विकास

मनरेगा जरूरी या मजबूरी-5: 3.50 लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता पड़ेगी

कोरोनावायरस की वजह से पैदा हुए हालात के बाद अर्थव्यवस्था को संभालने में मनरेगा योजना कितनी कारगर रहेगी, एक विश्लेषण-

Sachin Kumar Jain

2005 में शुरू हुई महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना एक बार फिर चर्चा में है। लगभग हर राज्य में मनरेगा के प्रति ग्रामीणों के साथ-साथ सरकारों का रूझान बढ़ा है। लेकिन क्या यह साबित करता है कि मनरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है या अभी इसमें काफी खामियां हैं। डाउन टू अर्थ ने इसकी व्यापक पड़ताल की है, जिसे एक सीरीज के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, 85 फीसदी बढ़ गई काम की मांग । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, योजना में विसंगतियां भी कम नहीं । तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा, - 100 दिन के रोजगार का सच । चौथी कड़ी में आपने पढ़ा, 250 करोड़ मानव दिवस रोजगार हो रहा है पैदा । पढ़ें अगली कड़ी- 

वर्ष 2007-08 की वैश्विक आर्थिक मंदी में भारत की अर्थव्यवस्था को गहरे झटके से बचाने में मनरेगा का बड़ा योगदान था और अब, जबकि भारत कोविड-19 महामारी से जूझ रहा है, तब भी मनरेगा ही समाज-सरकार-बाजार के लिए सबसे बड़ा सहारा साबित हो रहा है। वर्तमान परिस्थितियों से निपटने के लिए मनरेगा को एक सबसे माकूल रणनीति के रूप में स्वीकार करना होगा। बात बहुत ही सीधी है।

मनरेगा में सभी सक्रिय जाॅबकार्ड धारियों को 100 से 150 दिनों के काम की उपलब्धता सुनिश्चित करना। वर्तमान आवंटन 1.015 लाख करोड़ रुपए है। लेकिन यदि वास्तव में सभी सक्रिय 7.81 करोड़ जाॅबकार्ड धारियों को 150 दिन का रोजगार उपलब्ध करवाना है, तो भारत सरकार को 3.38 लाख करोड़ रुपए का आवंटन करना होगा।

इसमें से 70 प्रतिशत राशि (2.25 लाख करोड़ रुपए) केवल मजदूरी के लिए व्यय होना चाहिए। यदि सभी सक्रिय जाॅबकार्ड धारियों को 100 दिन का रोजगार देने की मंशा है, तो उस मंशा को साबित करने के लिए 2.37 लाख करोड़ रुपए का आवंटन करना होगा, जिसमें से लगभग 1.58 लाख करोड़ रुपए केवल मजदूरी के लिए दिए जाने चाहिए।

इस निवेश से ग्रामीण बाजार में सीधे नकदी आएगी। लोग अपनी जरूरतें भी पूरी कर पाएंगे और उत्पादन को भी प्रोत्साहन मिलेगा। इसके लिए बड़ी कंपनियों और कारखानों को प्रत्यक्ष सहायता देते रहने की नीति में बदलाव करना होगा और निम्न आयवर्ग के ग्रामीण परिवारों को सीधे सहायता पहुंचाने की नीति में विश्वास करना होगा।

मजदूरी की दर को संकुचित रखने के कारण ही अर्थव्यवस्था और ज्यादा संकुचित होती जाएगी। अतः जरूरी है कि मजदूरी को कम से कम 300 रुपए किया जाना चाहिए। इससे 7.81 करोड़ सक्रिय मनरेगा परिवारों को 150 दिन के काम के एवज में साल भर में 45,000 रुपए मिलेंगे और मजदूरों को सीधे 3.51 लाख करोड़ रुपए मिलेंगे। इससे स्थानीय बाजार में नकद का प्रवाह भी बढ़ेगा। सरकारी कर्मचारियों को वेतनमान वृद्धि देते समय भारत सरकार यही तर्क देती है कि इससे बाजार में पैसा आता है।

कोविड-19 के कारण उत्पन्न हुई स्थिति से अब वे परिवार काम करना चाहेंगे, जो संभवतः पलायन पर जा रहे थे या जिन्हें और कोई अन्य विकल्प उपलब्ध हो रहे थे। कोविड-19 के बाद मनरेगा में काम करने वाले परिवारों की संख्या 5.25 करोड़ से बढ़कर 7.81 करोड़ हो जाने की संभावना है, अगर सरकार माकूल कोशिशें करेगी, तो उसे 2.56 करोड़ परिवारों को रोजगार उपलब्ध करवाना होगा।  

वर्ष 2016-17 से 2019-20 के वित्तीय वर्षों में भारत सरकार ने औसतन 59,111 करोड़ रुपये की राशि मनरेगा के लिए जारी की। केंद्र सरकार द्वारा दी गयी राशि से भी यह स्पष्ट होता है कि मजदूरों की जरूरत और उनकी स्थिति में बदलाव लाने के मकसद से मनरेगा का क्रियान्वयन नहीं किया गया है।

केंद्र सरकार द्वारा पिछले चार सालों में सबसे ज्यादा जाॅबकार्ड वाले और जरूरतमंद राज्यों बिहार को औसतन 2,553 करोड़ रुपए और उत्तरप्रदेश को 4,769 करोड़ रुपए की राशि जारी की गई। यही कारण है कि केवल इन दो राज्यों में 1.50 करोड़ सक्रिय जाॅबकार्ड धारी परिवारों में से 77 लाख ने ही काम किया। बाकी ने पलायन या फिर अन्य कामों में विकल्प तलाशे होंगे। इसके अलावा पश्चिम बंगाल को 6,798 करोड़ रुपए, राजस्थान को 5,483 करोड़ रुपए, मध्यप्रदेश को 4,127 करोड़ रुपए की राशि जारी की गई।

अगर कानून के मंशा के मुताबिक इस साल सभी को 100 दिन का रोजगार उपलब्ध करवाना है तो योजना में 2.25 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान करना होगा। इसमें से वर्तमान औसत मजदूरी की दर 202 रुपए के मान से 1.58 लाख करोड़ रुपए (यानी 70 प्रतिशत) राशि मजदूरी के रूप में खर्च की जानी होगी। अब तक सरकार ने मनरेगा के लिए 1.05 लाख करोड़ रुपए का आवंटन किया है। इस हिसाब से 1.20 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त आवंटन किए जाने की जरूरत होगी।

उम्मीद करना चाहिए कि काम के दिनों की संख्या बढ़ाकर 150 से 200 दिन की जाएगी। साथ ही मजदूरी की दर भी औसतन 300 रुपए की जाए, ताकि तात्कालिक भुखमरी और आर्थिक बदहाली के हालात स्थायी न बन जाएं।

आगे का रास्ता

सबसे पहले रोजगार के अधिकार के दिनों की संख्या 100 से बढ़ाकर 150 दिन होनी चाहिए ताकि निम्न आयवर्ग के 7.81 करोड़ परिवारों के सामने अति गरीब हो जाने की स्थिति पैदा न हो जाए। इसके लिए 3.38 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान करना होगा, जिसमें से 2.37 लाख करोड़ रुपये का व्यय केवल मजदूरी पर किया जाना होगा। मध्यप्रदेश को 22,769, बिहार को 23,426, उत्तरप्रदेश को 37,105, पश्चिम बंगाल को 36,135 और राजस्थान को 30,248 करोड़ रुपए की जरूरत होगी। दूसरा, यदि औसत मजदूरी की दर 202 रुपए से बढ़ाकर 300 रुपए की जाती है तो भारत सरकार को मजदूरी के भुगतान के लिए 3.51 लाख करोड़ रुपए आवंटित करने होंगे।

जल्द पढ़ें, कुछ विशेषज्ञों के कॉलम