विकास

लुटता हिमालय: कम वजन और बेहतर डिजाइन वाले निर्माण करने होंगे

अच्छे और सुरक्षित निर्माण का एक ही मंत्र है- कम वजन और बेहतर डिजाइन वाले ढांचे, बढ़िया ड्रेनेज सिस्टम जो प्राकृतिक नाले से जुड़े और निर्माण के लिए स्थानीय सामग्री व जानकारियों का इस्तेमाल

DTE Staff

भारतीय हिमालयी क्षेत्र में विकास का एक आसान, लेकिन बेहद महत्वपूर्ण नियम है कि सब कुछ एक ही पैमाने पर नहीं बन सकता। हम कितना भी चाह लें कि मसूरी में दिल्ली जैसी ऊंची इमारतें हों, लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते। पहाड़ ऐसी इमारतों को नहीं अपनाएंगे। हिमालय में हमें स्थानीय क्षेत्रों के हिसाब से अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी। जहां लेह लद्दाख पथरीला, सख्त और सूखा है, वहीं अरुणाचल प्रदेश नर्म, नम, जैव विविधता से भरपूर और हरा-भरा है। इसलिए योजनाओं, तौर-तरीकों का स्थानीयकरण जरूरी है।

हमारे सामने बड़ी चुनौतियां हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिनसे जीएलओएफ (ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड) का खतरा बढ़ रहा है। पूरा हिमालय टेक्टोनिक प्लेटों की टक्कर से बना है और भूगर्भीय बल पहाड़ों को सीधा खड़ा रखते हैं जिससे गंभीर भूकंपीय गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है और यह गतिविधियां आखिर में भूकंप में बदल जाती हैं। इससे धरती के अंदर बना दबाव रिलीज हो जाता है।

अक्षांश में अंतर के साथ ही ऊपर दिए गए सभी कारणों की वजह से पश्चिमी, मध्य और पूर्वी हिमालय की अलग-अलग विशेषताएं हैं। वैज्ञानिक सोच और कार्यप्रणाली के आने के बाद से बहुत सारे भूवैज्ञानिक अध्ययन किए गए हैं। हाल के अध्ययनों सहित ये सभी रिपोर्ट अब उपलब्ध हैं, जो अनियोजित तरीके से हो रहे विकास और निर्माण के खतरों के प्रति आगाह करती हैं। इन्हीं रिपोर्ट्स के आधार पर कई समितियों का गठन किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी फैसले दिए। लेकिन, इस सबके बावजूद कोई फायदा नहीं हुआ। सवाल यह है कि इस तरह की प्राकृतिक और मानव-निर्मित चुनौतियों से पार पाने के लिए हम कैसी योजनाएं बनाएं। हम ऐसी योजना के साथ शुरुआत कर सकते हैं, जिसमें स्थानीय जानकारियों का ध्यान रखा गया हो, जैसे हमारी जमीन कैसी है, हम वहां किस तरह का निर्माण कर सकते हैं।

टेक्टोनिक प्लेट के चलते बनी फॉल्ट लाइन्स के बारे में स्थानीय तौर पर जानकारी मिल जाती है। इसके लिए बहुत ज्यादा वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता नहीं है। स्थानीय ज्ञान अपने आप में काफी शक्तिशाली होता है। उदाहरण के लिए, गैंगटोक पर्वतों की एक श्रृंखला पर बसा हुआ है, जो उत्तर से दक्षिण की ओर स्थित हैं। सहस्राब्दी के समय से ही ये शृंखलाएं आसपास रही हैं और बारिश का सारा पानी पश्चिम और पूर्व दोनों दिशाओं में ऊपर से नीचे की ओर जाने वाले नालों से होकर बह जाता है। अंतत: यह सब बड़ी नदियों में चला जाता है, जो आखिर में तीस्ता में मिल जाती हैं।

इन प्राकृतिक जल निकासी पारिस्थितिकी तंत्रों को विकसित होने में लंबा समय लगा है और इसलिए ये काफी महत्वपूर्ण और सस्टेनेबल हैं। इनमें से कई नाले इंजीनियर्ड हैं, लेकिन कभी-कभी इनमें भी बारिश के पानी के यकायक बहाव को झेल पाने की क्षमता नहीं होती। इसकी वजह से बाढ़ आती है और कटाव होता है। इन कारणों के साथ ही घर बनाने के दौरान लोगों के गैर-जिम्मेदाराना रवैये की वजह से हमने बहुत बार जान-माल का नुकसान होते देखा है। लोग अक्सर धूप वाले दिनों में घर बनाते हैं और बारिश का ध्यान नहीं रखते। लेकिन, मॉनसून आने पर उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। अब जलवायु परिवर्तन के चलते हो रहीं बादल फटने की घटनाओं की भी मार झेलनी पड़ रही है।

यह समस्याएं हमें विकास व निर्माण योजनाओं के डिजाइन के सवाल पर ले जाती हैं। हमारे हिमालयी शहरों और अन्य परियोजनाओं को भविष्य के लिए डिजाइन करना काफी मेहनत का काम है, जो बड़े पैमाने पर जोखिमों से भी भरा हुआ है। इन जोखिमों का पता लगाना बड़ी चुनौती है। इसलिए हमें सावधानी से निर्माण करने की आवश्यकता है।

मैं अपनी पीड़ा व्यक्त करने से कभी नहीं चूकता, जब मैं पहाड़ों की ओर जाती उन सड़कों को देखता हूं, जिनमें बारिश के पानी वाले नाले उनसे भी ऊंचे होते हैं। सड़कों के किनारे की पट्टियां नालों को छूती नहीं हैं, जिससे घास और घनी वनस्पतियों के लिए पर्याप्त जगह बच जाती है। बाद में यह नालों को ही अवरुद्ध करती हैं।

मॉनसून आते ही पहाड़ियों में पानी के तेज बहाव के कारण भूस्खलन की एक श्रृंखला सी बन जाती है, जिससे दूसरी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। मेरे सार्वजनिक जीवन में कई लोग मेरे पास सड़क के क्षतिग्रस्त होने के कारण मुआवजे की गुहार लेकर आए हैं। ये सब इसलिए होता है, क्योंकि सड़क ठीक से नहीं बनाई गई है। इसलिए, डिजाइन के अलावा कार्यान्वयन भी बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन हम कब सीखेंगे? जोखिम में कमी लाने के लिए एक दिलचस्प तरीका सतत विकास लक्ष्य हैं। लेकिन, इसके लिए हमें इन लक्ष्यों को योजनाओं और उनकी निष्पादन प्रक्रिया के केंद्र में लाना होगा। हम ऐसा कर पाते हैं, तो एक पावरफुल फ्रेमवर्क बन सकेगा।

इसके लिए हम कानून बना सकते हैं। हमने सिक्किम में लगभग ऐसा ही किया था। इस तरह हम खुद के, हिमालय के और अपने ग्रह के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं के प्रति सचेत रहेंगे। क्या हम कटाव की समस्याओं का पारिस्थितिक समाधान खोज सकते हैं? क्या हम पर्यावरण हितैषी सड़कों का निर्माण कर सकते हैं? ऐसे सवालों का आसान सा जवाब है, पहाड़ियों पर कीचड़ व मलबा न फेंका जाए। इसके साथ ही हमें इन इलाकों की वहन क्षमता को भी ध्यान में रखना होगा। पहाड़ों में समतल भूमि की कमी होती है। इसलिए हमें पहाड़ी ढलान के साथ निर्माण करना पड़ता है। भूमि की स्थिरता से समझौता किए बिना निर्माण कार्य करने का एक तरीका है जिसमें सही तरीके से बनाए गए मिट्टी के बांध का इस्तेमाल कर ढलान वाली जगह को सुरक्षित कर सकते हैं।

इसके बाद वर्षा और अन्य अपशिष्ट जल की निकासी के बारे में गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए, जिससे इनका निकास निकटतम प्राकृतिक नाले में हो सके, जो आखिर में नीचे जाकर किसी छोटी नदी में मिल जाए। इस सबके लिए काफी सावधानी के साथ योजनाएं बनाने और बेहतर इंजीनियरिंग डिजाइन की जरूरत होगी। इंजीनियरों और ठेकेदारों ने किस तरह से व्यावहारिक जानकारियां जुटाई हैं, इसे मैं वर्षों से देख रहा हूं। हमें सुनिश्चित करना होगा कि उनके द्वारा अर्जित जानकारियों को विज्ञान की कसौटियों पर परखा जा सके और दस्तावेजों में उन्हें दर्ज किया जा सके। फिर उन्हें मैनुअल में तब्दील किया जाए, ताकि सुरक्षित और उचित निर्माण प्रक्रियाओं का पालन हो सके।

2011 में सिक्किम में भूकंप आया जिसका केंद्र उत्तरी सिक्किम के जोंगू में था। इस भूकंप ने 45 सेकंड से ज्यादा समय तक गंगटोक समेत राज्य के दूसरे हिस्सों को झकझोर डाला। उस भूकंप से आई तबाही मैंने अपनी आंखों से देखी है। हमारे कई मठ, सचिवालय समेत कई इमारतें ध्वस्त हो गईं। इनमें पुरानी इमारतों के साथ ही अनियोजित तरीके से खड़े भवन भी शामिल थे। दिलचस्प बात यह है कि जिन 4 इमारतों को ध्वस्त किया जाना था, उन्हें छोड़कर गैंगटोक और दूसरे कस्बे इस भूकंप में बच गए। हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट भी सुरक्षित थे। यह एक तरह से स्ट्रेस टेस्ट था। उस भूकंप की तीव्रता 6.8 रिक्टर थी, लेकिन अगर कभी इससे ज्यादा तीव्रता का भूकंप आया, तो उससे होने वाले विनाश की कल्पना नहीं की जा सकती है। उसके बाद कई बड़ी इमारतें बनाई जा चुकी हैं। इन्हें और बेहतर तरीके से बनाया जा सकता था। अच्छे और सुरक्षित निर्माण का एक ही मंत्र है- कम वजन और बेहतर डिजाइन वाले स्ट्रक्चर तैयार करें, पानी की निकासी के लिए बढ़िया ड्रेनेज सिस्टम बनाएं, जो प्राकृतिक नाले से जुड़े और निर्माण के लिए स्थानीय सामग्री व जानकारियों का इस्तेमाल करें। अगर हम किसी शहर के विकास, वहां निर्माण के बारे में योजनाएं बना रहे हैं, तो उसके केंद्र में सतत विकास लक्ष्यों का होना जरूरी है।

पर्वतीय क्षेत्रों में विस्तार की समस्या बहुत बड़ी है, इसलिए उस इलाके की वहन क्षमताओं का खयाल रखा जाना चाहिए। खासकर भूकंपीय गतिविधियों के लिहाज से बिल्डिंग कोड की सालाना समीक्षा की जानी चाहिए। इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन के चलते अनिवार्य तौर पर आने वाली समस्याओं के पारिस्थितिक समाधान के लिए हमें अभियान चलाने की जरूरत है। और आखिर में, क्या हम मौसमी पर्यटकों के लिए तैयार हैं? पिछले साल हिमालय के शहरों में पहुंचे पर्यटकों की संख्या हमें चकित कर देती है। ये वे पर्यटक थे, जो मैदानी इलाकों की गर्मी से बचने के लिए पहाड़ पर पहुंच गए थे। पर्यटन के चलते पूरे हिमालयी क्षेत्र में निर्माण गतिविधियां तेज हो गईं हैं। इस मामले में पॉलिटिकल इकोनॉमी निर्णायक बदलाव लाने वाली साबित हो सकती है। सत्ता में बैठे राजनेताओं के लिए यह जरूरी है कि वह पवर्तीय शहरों की जटिलताओं और उनकी वहनीय क्षमताओं को पहचानें, उनकी तरफ ध्यान दें। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं, तो आने वाले वक्त में और तबाही देखेंगे और उसके जिम्मेदार भी हम ही होंगे।