विकास

जोशीमठ का सबक: टिकाऊ पर्यटन की चुनौती

अब तक विकसित किए गए पर्यटक स्थल नगरपालिका की सीमा के साथ ही साथ संवहन क्षमता सीमा या लोगों और बुनियादी ढांचे के अधिकतम भार से पार चले गए हैं

समृद्ध जैव विविधता, ग्लेशियर, जल संसाधन और सांस्कृतिक विविधता के बूते भारत का हिमालयी क्षेत्र दुनियाभर के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग के अनुसार, 2018 तक पश्चिम बंगाल में पर्यटकों की संख्या सबसे ज्यादा रही। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, असम, मेघालय, सिक्किम, और त्रिपुरा जैसे उत्तर-पश्चिमी और मध्य हिमालयी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में भी बड़ी संख्या में सैलानी घूमने पहुंचे। इनकी तुलना में अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, और नागालैंड जाने वाले पर्यटकों की संख्या कम रही।

हिमालयी क्षेत्र में धार्मिक तीर्थयात्राओं के साथ ही मनोरंजक और रोमांचक गतिविधियों के लिए उपयुक्त माहौल मिलता है। इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में रहने वाले लोगों के लिए पर्यटन आय और आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी है। जमीनी स्तर से लेकर शीर्ष तक ये गतिविधियां टिकाऊ तरीके से हों, यह सुनिश्चित करना मुश्किल तो नहीं लेकिन चुनौती भरा काम जरूर है। पिछले एक साल से केंद्र सरकार हिमालयी क्षेत्र में टिकाऊ पर्यटन को बढ़ावा देने पर जोर दे रही है।

जून 2022 में केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और रिस्पॉन्सिबल टूरिज्म सोसायटी ऑफ इंडिया के साथ एक शिखर सम्मेलन आयोजित किया। इसमें टिकाऊ पर्यटन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर रणनीति की शुरुआत की गई। इसका उद्देश्य पर्यावरणीय, आर्थिक, और सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिरता, जैव विविधता की सुरक्षा, क्षमता निर्माण और बेहतर गवर्नेंस को बढ़ावा देना है।

बेहतर परिवहन सुविधाओं के जरिए वायु प्रदूषण में कमी लाने, ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण और खुली जगहों के साथ ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर में अधिक निवेश की जरूरत भी इस दौरान महसूस की गई। इसके साथ ही जुलाई में स्वदेश दर्शन 2.0 के लिए दिशा-निर्देश भी जारी किए गए। इस योजना का उद्देश्य देश में थीम-आधारित पर्यटक सर्किट का विकास करना है। इसमें हिमालयी क्षेत्र की विभिन्न परियोजनाओं और प्रस्तावों में टिकाऊ और जिम्मेदार पर्यटन परियोजनाओं को स्थापित करने का विजन भी शामिल है।

हालांकि, कुछ चुनौतियों पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। हिमालय में कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जो बड़े पैमाने पर पर्यटन के कारण काफी परेशानियों का सामना करते हैं, वहीं कुछ अन्य अपनी पर्यटन क्षमता का अभी तक पूरा इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। यहां तक कि राज्यों के भीतर भी क्षेत्रीय विषमताएं हैं। कुछ सर्किट में पर्यटकों की संख्या बहुत बढ़ रही है।

इन सब में मौसम भी अहम भूमिका निभाता है। प्रमुख पर्यटन गतिविधियां साल में केवल कुछ महीनों तक ही सीमित हैं। जब गर्मियां चरम पर होती हैं, खासकर अप्रैल से जून तक या फिर बर्फबारी के दौरान दिसंबर से फरवरी के अंतिम सप्ताह तक, या कभी-कभी मध्य मार्च तक ही ये इलाके पर्यटकों से गुलजार रहते हैं। सर्दियों की तुलना में गर्मियों के दौरान अधिक सैलानी देखे जाते हैं, जिसकी वजह से उन महीनों के दौरान मौजूदा बुनियादी ढांचे और स्थानीय संसाधनों पर इंसानों का दबाव बढ़ जाता है।

एक छोटी सी जगह पर अचानक कुछ समय के लिए बढ़ गई भीड़ के कई असर दिखाई देते हैं। जैसे ठोस कचरे का अधिक उत्पादन, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और वनों की कटाई बढ़ जाती है। सर्दियों में लोगों और वाहनों की भीड़ और उनसे जुड़ी गतिविधियों के कारण जलवायु परिवर्तन तेज होता है। इससे बर्फबारी और बर्फ पिघलने के पैटर्न में बदलाव आता है। इन सभी दबावों के परिणामस्वरूप हिमालयी क्षेत्र के स्थानीय समुदायों और संसाधनों पर भारी संकट मंडरा रहा है।

पर्यटन का दबाव कम करने की जरूरत

बेतहाशा बढ़ते पर्यटन के खतरों को कम करने का एक तरीका लोगों में संरक्षण की भावना पैदा करना है। पारिस्थितिक पर्यटन (जिसमें रेस्पॉन्सिबल ट्रैवल और स्थानीय पर्यावरण और पारिस्थितिक तंत्र की सुरक्षा शामिल है), वैकल्पिक पर्यटन या हरित पर्यटन को बढ़ावा देकर क्षेत्रीय असमानताओं को कम किया जा सकता है। इसमें किसी भी स्थान पर उपलब्ध संसाधनों के आधार पर पर्यटन गतिविधियों का विकेंद्रीकरण शामिल है। यहां 2 बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए- पहला, किसी क्षेत्र में अब तक विकसित किए गए पर्यटक स्थल नगरपालिका की सीमा के साथ ही साथ संवहन क्षमता सीमा या लोगों और बुनियादी ढांचे के अधिकतम भार से भी पार चले गए हैं। दूसरा, ईकोटूरिज्म गतिविधियों के लिए काफी संभावनाओं वाले उत्तरपूर्वी राज्यों में पर्यटन प्रणाली अभी भी विकसित की जानी है। इन दो बिंदुओं पर ध्यान देने से स्थानीय पर्यटन क्षमता को समझने में मदद मिलेगी।

इसके अलावा, छोटे इलाकों में विकास कार्यों से पहले संवहन क्षमता का आकलन करने से पर्यावरण पर दबाव कम करने, प्रदूषण कम करने, प्राचीन पारिस्थितिकी को बनाए रखने और निवासियों और पर्यटकों, दोनों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में काफी मदद मिलेगी। इतना ही नहीं, बड़े पैमाने पर पर्यटन में कमी के लिए न केवल राज्यों और पर्यटन स्थलों के भीतर मौजूदा सुविधाओं का विकेंद्रीकरण करना महत्वपूर्ण है, बल्कि नए स्थलों का विकास भी उतना ही जरूरी है। इससे दूर-दराज के क्षेत्रों को भी मुख्यधारा से जोड़ा जा सकेगा और प्रवासन को कम करते हुए निवासियों के लिए आजीविका और आय के अवसर प्रदान किए जा सकेंगे। साथ ही, पर्यटक भी इन इन दूरस्थ क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर अप्रयुक्त पर्यावरण का लाभ उठाने में भी सक्षम होंगे। लेकिन विकास के लिए यहां भी पहले संवहन क्षमता आकलन और पर्यटकों के लिए एक स्थायी सीमा का निर्धारण बहुत जरूरी है।



प्रदूषण से मुकाबला

पर्यटन स्थलों और उनके आसपास ठोस कचरे का अंधाधुंध उत्पादन और निस्तारण हिमालयी क्षेत्रों में बड़ी समस्या बनता जा रहा है। गोविंद बल्लभ पंत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एनवॉयरनमेंट, अल्मोड़ के अध्ययन से पता चलता है कि पहाड़ी स्थानों में कुल कचरे का 65-80 प्रतिशत बायोडिग्रेडेबल ठोस कचरा होता है, जबकि गैर-बायोडिग्रेडेबल अपशिष्ट व्यापक रूप से ट्रैकिंग और एक्स्पिडिशन समिट में पाया जाता है। इसलिए पहाड़ी स्थानों पर माइक्रोबियल बायो कंपोस्टिंग को अमल में लाया जा सकता है। यह बायोडिग्रेडेबल कचरे के साथ नियंत्रित स्थितियों (25±5 डिग्री सेल्सियस) में एरोबिक प्रक्रिया के तहत कचरे के प्राकृतिक विघटन और अपघटन का सबसे अच्छा तरीका है। जिस प्रकार हम बैक्टीरिया (लैक्टोबैसिलस) के इस्तेमाल से दूध को फर्मेन्ट करके दही और योगर्ट प्राप्त करते हैं, वैसे ही मध्यम से ठंडी परिस्थितियों में बढ़ने वाले साइकोफिलिक और मेसोफिलिक बैक्टीरिया के इस्तेमाल से बायोडिग्रेडेबल कचरे को जैव खाद में तोड़ सकते हैं। 500 किलो कच्चे माल से 267 किलो बायो कम्पोस्ट प्राप्त किया जा सकता है। जहां गर्मियों में अंतिम उत्पाद 55±5 दिनों में प्राप्त किया जा सकता है, वहीं सर्दियों में इसी प्रक्रिया में 65±5 दिन लगते हैं।

दूसरी ओर, जिन क्षेत्रों में गाड़ियां ज्यादा चलती हैं, वहां परिवेशी हवा से अधिक प्रदूषण होता है। इसमें पीएम 10, पीएम 2.5, पीएम 1.0 (1 माइक्रोन से नीचे), ब्लैक कार्बन (0.5 माइक्रोन) और अल्ट्रा-फाइन एरोसोल के साथ-साथ सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड और सरफेस ओजोन जैसे गैसीय प्रदूषक शामिल हो सकते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि टूरिस्ट सीजन के दौरान इन प्रदूषकों की मात्रा निर्धारित अधिकतम सीमा से क गुना अधिक बढ़ जाती है। जबकि बाकी समय ये प्रदूषक सीमा के भीतर रहते हैं। इंडो-गैंगेटिक मैदान, थार मरुस्थल, पश्चिम एशियाई देश और सहारा मरुस्थल कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जहां से ये प्रदूषक कभी-कभी हिमालय क्षेत्र की तलहटी या ऊंचाई तक चले जाते हैं। ग्लेशियरों पर इनके जमा होने से उनके पिघलने की दर बढ़ जाती है।

इससे निपटने के लिए बंज ओक, रिंग-क्यूप्ड ओक, काफल, उतिष और गिंग्को जैसी स्थानीय वनस्पति प्रजातियों को पर्यटन स्थलों और आसपास के इलाकों में रोपकर ग्रीन बेल्ट या पार्क विकसित किया जा सकता है। इसी तरह, पलाश, नीम, गुलमोहर, और मिश्रित पत्तियों वाले बकैन हवा में शामिल धूल के कणों को काम करने में सहायक होते हैं। साधारण पत्तियों वाले पौधे धूल, धुएं और अन्य प्रदूषकों को कम करने में भी मदद करते हैं। इनमें देवदार, पीपल, बरगद, सागौन, साल, आम, कचनार और कदम्ब जैसे पेड़ भी शामिल हैं।

स्थानीय स्तर पर वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए किए गए अन्य उपायों में सौर, भूतापीय और पवन ऊर्जा जैसे गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों का उपयोग किया जा सकता है। इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ ही जलविद्युत ऊर्जा के लिए जल मिलों (घराट) को शुरू करना भी इसमें मददगार साबित हो सकता है। पाइन नीडल जंगलों और आसपास के पर्यटन स्थलों में प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला कच्चा माल है, जिसका इस्तेमाल आग जलाने में ईंधन की तरह किया जा सकता है। इनका उपयोग जैव ईंधन के विकल्प के तौर पर किया जा सकता है।

सहभागिता बढ़ाने की जरूरत

जब भी कोई सस्टेनेबल अप्रोच अपनाई जाती है, तब ऐसे उपायों के साथ ही स्थानीय समुदायों को भी उसमें शामिल करना चाहिए। इसके लिए सतत और आर्थिक समाधानों को अपनाना होगा। साथ ही लोगों के बीच जागरुकता लाने के लिए कौशल और क्षमता निर्माण कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करना होगा। हिमालयी क्षेत्र में सैलानियों, निवासियों, और अन्य हितधारकों के लिए यह जरूरी है कि इन इलाकों की सुविधाओं और संसाधनों का उपयोग करते समय नियमों का ख्याल रखें और अच्छी आदतें सीखें।

समस्याओं के समाधान के लिए ईको-टूरिज्म या विलेज टूरिज्म जैसे उपायों को अपनाना भी बेहतर विकल्प साबित हो सकता है। इसका लाभ भी स्थानीय समुदायों तक पहुंचाए जाने की जरूरत है, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें।

(लेखक उत्तराखंड के अल्मोड़ा में स्थित गोविंद बल्लभ पंत नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन एनवायरमेंट के सेंटर फॉर एनवॉरनमेंटल असेसमेंट एंड क्लाइमेट चेंज के प्रमुख हैं। लेखक प्रासंगिक सुविधाएं प्रदान करने के लिए संस्था के निदेशक का आभार प्रकट करता है। व्यक्त किए गए सभी विचार लेखक के हैं, इसका उनके संगठन से कोई संबंध नहीं है)