विकास

माल्थस को छोड़िए: जनसंख्या- वृद्धि  का सकारात्मक पक्ष देखिए

अगर सामुदायिक संपत्ति के अधिकार को सही ढंग से परिभाषित किया जाए तो बढ़ती आबादी, बेहतर तरीके से उसका प्रबंधन कर सकती है - अनिल अग्रवाल

Anil Agarwal
डाउन टू अर्थ के संस्थापक-संपादक अनिल अग्रवाल को उनकी 19वीं पुण्य-तिथि पर याद करते हुए उनका यह लेख पुन: प्रकाशित किया जा रहा है। शीर्षक में जिक्र माल्थस से आशय ब्रिटिश धर्मगुरू थॉमस रॉबर्ट माल्थस के सिद्धांत से है, जिसके मुताबिक बढ़ती आबादी हमेशा, खाद्य-आपूर्ति पर नकारात्मक असर डालती है
 

पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख कारक के तौर पर एक बार फिर दुनिया भर में बढ़ती जनसंख्या पर चर्चा की जा रही है। हालांकि भारतीय गांवों को उनके खराब वातावरण में जीने की कोशिश करते हुए देखने पर एक रोचक सवाल जहन में आता है: क्या यह समुदाय-आधारित पर्यावरण-प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिए जनसांख्यिकीय दबाव का अनुकूल स्तर हो सकता है ?

कई वैज्ञानिकों ने यह समझने का प्रयास किया है कि जमीनी स्तर पर बढ़ती जनसंख्या के प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ते दबाव की सामाजिक प्रतिक्रिया क्या है। उदाहरण के लिए, पिछले चालीस साल में देश में जनसंख्या का घनत्व लगभग दोगुना हो गया है। यह भारत के इतिहास में अभूतपूर्व है। क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि लोग इस पर तार्किक रूप से प्रतिक्रिया नहीं देने जा रहे हैं बल्कि खुद को एक सामूहिक, सामाजिक मौत के लिए तैयार कर रहे हैं? निश्चित तौर पर नहीं।

1980 के दशक में भारत ने अपने प्राकृतिक-संसाधनों का सामुदायिक-प्रबंधन करने के लिए तमाम छोटे-छोटे प्रयोगों को देखा। इनमें से कुछ प्रयोगों को पारिस्थितिकी के उत्थान में नाटकीय सफलता मिली और इससे समान रूप से स्थानीय अर्थव्यवस्था में नाटकीय सुधार भी हुआ। क्या हम इन सारे कामों को केवल कुछ प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं के काम का नतीजा मानकर खारिज कर सकते हैं या फिर यह किसी नई सामाजिक-प्रतिक्रिया का संकेत है?

सामाजिक विज्ञान के शोध की भाषा में, जिसे परियोजना-पूर्वाग्रह कहते हैं, अगर हम उसी निगाह से देखते हैं तो पहले वाले तर्क को स्वीकार करना आसान है। परियोजना-पूर्वाग्रह वह होता है, जिसमें हम किसी परियोजना के ढांचे के बाहर हो रहे सामाजिक-परिवर्तन को देखने में नाकाम रहते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि कई परियोजनाओं में कुछ लोगों ने व्यक्तिगत रूप से बड़ी भूमिका निभाई है लेकिन ऐसे सभी तरह के कामों को परियोजना के रूप में देखना सही नहीं होगा।
चिपको आंदोलन किसी व्यक्ति से ज्यादा लोगों का आंदोलन है। इसी तरह से सीड और हरियाखेड़ा गांवों के ‘ग्रामदान’ का काम और उनकी आत्मनिर्णय की कानूनी रूप से सशक्त प्रणाली, किसी परियोजना की तुलना में लोगों की आकांक्षाओं का परिणाम ज्यादा है। इसे परियोजना केवल इस संदर्भ में कह सकते हैं कि कुछ गांवों में शुरुआती निवेश समुदाय के बाहर से किया गया लेकिन ऐसा सारे गांवों में नहीं हुआ। इसमें कोई शक नहीं कि समुदाय के बिना इस तरह के प्रयास संभव नहीं हो पाते।

सवाल यह है कि इस तरह के ज्यादातर प्रयास 1980 के दशक में ही क्यों शुरू हुए ? 1960 और 1970 के दशकों में हम ऐसे प्रयोगों के बारे में बहुत कम सुनने को पाते हैं। निश्चित तौर पर उस दौर में भी तमाम गांधीवादी ऐसे थे, जो प्राकृतिक-संसाधनों की देखरेख के लिए सामुदायिक-प्रबंधन को बढ़ावा देना चाहते थे।  

हमारा मानना है कि जनसंख्या का बढ़ता घनत्व वास्तव में ऐसी वस्तुनिष्ठ सामाजिक परिस्थितियों का निर्माण कर रहा है, जो समुदाय-उन्मुख नेतृत्व की सफलता की नींव तैयार कर रही है। प्राकृतिक-संसाधनों पर आज अभूतपूर्व दबाव है। देश का आम आदमी इस स्थिति से निपटने के लिए कुछ करना चाहता है लेकिन देश की शासन प्रणाली और कानूनी ढांचा उसे पीछे खींचने में लगे हैं।
जमीन, पानी और जंगल जैसे प्राकृतिक-संसाधनों को नियंत्रित करने वाले कानून वही हैं, जिनकी कल्पना ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने सौ साल पहले की थी। आजादी के बाद की सरकारों ने विश्व बैंक जैसी बाहरी एजेंसियों द्वारा सहायता प्राप्त व्यक्तिगत और लाभार्थी-उन्मुख कार्यक्रमों को ही लगातार आगे बढ़ाया है।
समुदाय-आधारित, प्राकृतिक-प्रबंधन कार्यक्रमों को शायद ही कभी आगे बढ़ाया गया हो। इसके बावजूद, जब सामाजिक-कार्यकर्ता ऐसे कार्यक्रमों के साथ आगे आते हैं तो लोग उत्साह से उनका साथ देते हुए दिखते हैं।

इस तथ्य से हमारा विश्वास और मजबूत हो जाता है, कि कुछ ग्रामीण समुदाय बिना किसी बाहरी एजेंट की मदद के ऐसे प्रयास कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, सिहंभूम क्षेत्र में जिला मजिस्ट्रेट अमरजीत सिन्हा ने पाया कि कई आदिवासी गांवों में लोगों ने अपनी बस्तियों के आसपास के जंगलों का प्रबंधन करना शुरू कर दिया है। यह उन्होंने पूरी तरह से अपने प्रयासों से किया है।
उत्तर प्रदेश में प्रशासक नीरू नंदा ने देखा कि हिमालय क्षेत्र में कई गांव सरकार के स्वामित्व वाले वनों समेत कई जंगलों की सुरक्षा कर रहे हैं। हालांकि ये सभी ऐसे जंगल हैं, जिनके उपयोग का समुदाय के पास कानूनी अथवा पारंपरिक तौर पर हक है। जिन जंगलों को लेकर पड़ोसी बस्तियों के बीच विवाद होते हैं, उनका प्रबंधन नहीं हो पाता है, बल्कि उन्हें लगातार नष्ट किया जा रहा है।

वन अधिकारियों ने सुखोमाजरी मॉडल ( हरियाणा के अंबाला जिले के सुखोमाजरी गांव के लोगों ने 1980 के दशक में पानी और जंगलों का अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करने के तरीके अपनाकर ख्याति पाई थी ) को अपनाकर ग्राम-समुदायों की मदद से चंडीगढ़ के नजदीक उप- हिमालयी वाटरशेड की रक्षा करना शुरू कर दिया है।
ऐसे ही वन-पुनर्जनन का पश्चिम बंगाल का अरबी मॉडल, भी कामयाब रहा है, जिसके तहत ग्रामीणों को वनों की संयुक्त रूप से रक्षा करने पर लकड़ी, घास और वन उपज के अन्य अधिकारों का आश्वासन दिया जाता है। पश्चिम बंगाल में अब 1,684 ग्राम स्तरीय वन संरक्षण समितियां हैं। अनुभव दर्शाते हैं कि ग्रामीणों द्वारा प्राकृतिक-संसाधन प्रबंधन जिन स्थितियों में सफल होता है, वे हैं -

क) जहां सामान्य संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं और इसलिए, वहां मौजूदा जरूरतों की तुलना में पारिस्थितिकी के उत्थान से पर्याप्त लाभ मिल सकते हैं,
ख) जहां सामान्य संसाधन तेजी से पुनः उत्पादित किए जा सकते हैं और
ग)  जहां समुदाय अधिक सजातीय हैं और ज्यादा स्तर वाले नहीं हैं।

भारत में हमने पाया है कि क और ग में एक सहसंबंध है। पर्याप्त सामान्य संसाधनों वाले क्षेत्र आमतौर पर पहाड़ी, पर्वतीय क्षेत्र और असिंचित शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्र होते हैं। नमी वाले मैदानों और सिंचाई वाले इलाकों में या अर्ध-सिंचाई वाले क्षेत्रों में ज्यादातर जमीनें निजी होती हैं।
पहले वाले इलाकों में ज्यादातर बस्तियों छोटी और समाज बिना स्तरों वाला होता है जबकि दूसरे वाले इलाकों में जमीनें अमीर लोगों के हाथ में होती हैं। साथ ही इसकी बस्तियां बड़ी और तुलनात्मक तौर पर कुछ स्तरों में बंटी होती हैं।

अगर ऐसे इलाकों में आबादी बढ़ती है तो उसका सहभागी संसाधनों यानी खेती लायक जमीन पर असर पड़ेगा। गरीब अपने जीवन-यापन के लिए पूरी तरह से अमीर पर निर्भर हो जाएगा, उसकी सामाजिक और आर्थिक हालत उसे हिंसा और दबाव झेलने के लिए मजबूर बनाएगी।
लेकिन ऐसे क्षेत्र जहां, प्राकृतिक संसाधन तुलनात्मक रूप से निजी हाथों में कम हैं, और जो संयोग से पारिस्थितिकी रूप से अधिक नाजुक और अपेक्षाकृत ज्यादा गरीबी से त्रस्त क्षेत्र हैं, वहां जनसंख्या घनत्व बढ़ने से इन संसाधनों का बेहतर प्रयोग हो सकता है, खासकर तब, जब अभी तक सामुदायिक अधिकारों को ठीक से परिभाषित नहीं किया गया हो।

अगर सामुदायिक संपत्ति के अधिकार को सही ढंग से परिभाषित किया जाए तो बढ़ती आबादी बेहतर तरीके से उसका प्रबंधन भी कर सकती है। वहीं, जमीन का इस्तेमाल सभी के लिए करने की स्थिति एक तरह की अनुशासनहीनता को जन्म देती है। देश के कई गांव ऐसे हैं, जहां इस तरह की जमीनें खराब हालत में हैं, जिनका उपयोग सभी के लिए है, हालांकि वे काफी उत्पादक जमीनें हैं।
यहां जैवभार ( जीवित जीवों अथवा हाल ही में मरे हुए जीवों से प्राप्त पदार्थ जैव मात्रा को जैव संहति या जैवभार कहा जाता है) के पुनर्जनन की दर काफी ऊंची और तेज हो सकती है। उदाहरण के लिए, केवल कुछ महीनों में यहां घास का उत्पादन दोगुना या तीन गुना हो सकता है।
इस तरह पर्याप्त सामुदायिक अधिकार स्थापित करके और समुदायों को कार्रवाई के लिए लामबंद करके कुछ ही सालों में पर्याप्त आर्थिक लाभ हासिल किया जा सकता है। सिंचाई का पानी फसलों की एक बड़ी जमीन तक पहुंच सकता है और घास की बड़ी मात्रा, जानवरों के खाने की मांग को पूरा कर सकती है। प्राकृतिक-संसाधनों का  सामुदायिक-प्रबंधन तुरंत ही ग्राम-स्वराज की अवधारणा को लागू कर देगा। इसमें हर समुदाय अपने पड़ोसी को सामुदायिक जगह का अनाधिकृत उपयोग करने से रोकेगा।
हमने कई अंतर-बस्तियों में सामुदायिक जगह को लेकर विवाद देखे हैं क्योंकि पहले उनका रखरखाव सबके लिए था। हर समुदाय के पास एक विशेष क्षेत्र का कानूनी अधिकार होना चाहिए। इससे हर समुदाय, अपनी सामुदायिक जगह की सुरक्षा स्वयं करने लगेगा। इस तरह दूसरी बस्तियों के लोग उस पर अपना हक नहीं जताएंगे, और फिर धीरे-धीरे एक जैसी जरूरतों के चलते यह बस्तियां सामुदायिक जगह की सुरक्षा के लिए उचित नियम-कानून बना लेंगी।

इस तरह से लोगों में यह सोच भी विकसित होना शुरू हो जाएगी कि जनसंख्या वृ़िद्ध असीमित नहीं हो सकती। जब तक ऐसी सरकारी जमीनें ज्यादा हैं, जिन पर सभी का हक है, लोग उस पर अपना हक जताने और उसके ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल के लिए बड़े परिवार को प्राथमिकता देते हैं। वहीं, सामुदायिक-प्रबंधन की स्थिति में लोगों का जोर बेहतर प्रबंधन और निरंतर उत्पादकता बढ़ाने पर रहता है। इसीलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि सुखोमाजरी के लोगों ने चारा बढ़ जाने के बावजूद जानवरों की आबादी नहीं बढ़ाई बल्कि उनके यहां बकरियों की आबादी घट गई है।
निश्चित तौर पर अगर आबादी बिना किसी लगाम के आगे बढ़ती है और जैवभार की मांग-क्षमता पर्यावरण को प्रभावित करने के स्तर पर पहुंच जाती है तो सामुदायिक-प्रबंधन का तंत्र ढहने लगेगा। लेकिन अगर आज सामुदायिक -प्रबंधन की प्रणाली को संस्था के तौर पर विकसित किया जाता है तो इससे पर्यावरण का पुनर्जनन होगा, महिलाओं पर काम का बोझ कम होगा और उनकी साक्षरता-दर में वृद्धि होगी। जिन जगहों पर ये प्रणाली लागू होगी, वहां आबादी बढ़ने की दर भी तेजी से घट सकती है।

बढ़ती जनसंख्या का हमेशा मजाक बनाना भी ठीक नहीं है। इसे वास्तविक मुद्दों के समाधान के लिए एक अवसर के तौर पर भी देखा जा सकता है, जिसमें अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि को खत्म करना भी शामिल है।

( डाउन टू अर्थ के प्रिंट संस्करण में 3 मई, 1992 को प्रकाशित)