विकास

स्वामित्व योजना: क्या दो गज जमीन के लिए संघर्ष होगा खत्म?

Ramesh Sharma

भारत की जनगणना (2011) के अनुसार ग्रामीण भारत में रहने वाली लगभग 56 फ़ीसदी विपन्न आबादी आवासहीन/भूमिहीन है। इसका अर्थ यह है कि जिसे  उन्होंने जन्मभूमि कहा, उस भूमि पर उनका कोई स्वामित्व नहीं है। इसके यह भी मायने हैं कि उनके नागरिक अधिकार अर्थात नागरिक होने के स्वाभिमान अधूरे हैं। आप इसे ऐसे भी मान सकते हैं कि भूमि के स्वामित्व के बिना उनके पहचान और सम्मान के सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं।  यथार्थ यह है कि  भारत जैसे देश मे आजादी के सात दशकों के बाद भी आधी आबादी, बेज़मीन होने का दंश झेल रही है।

भारत सरकार द्वारा घोषित स्वामित्व योजना इस नज़रिये  से महत्वपूर्ण है कि पहली बार नागरिक अधिकारों को मान्यता देने के उद्द्येश्य  से आवासभूमि के अधिकार को अपरिहार्य माना गया है। लेकिन इसे लागू करना  चुनौतीपूर्ण इसलिये है कि इसके लिये जवाबदेह प्रशासनिक तंत्र, पूरी तरह योजना के सरकारीकरण के बने-बनाये  ढांचे में है - और वह भी उन्हीं विभागों पूरी तरह से निर्भर है पर जिनके नाक़ाबिलियत के चलते आज आधी ग्रामीण आबादी, बेज़मीन रह गयी।   

बहरहाल, सुदूर मणिपुर के इम्फाल (पूर्व) में रहने वाले देबेन्द्र सिंह कहते हैं कि आज जिस ज़मीन पर मेरा आशियाना है, उसके भूमि अधिकार के लिये  दरख़ास्त देते-देते मेरे पिता चले गये। मैं दूसरी पीढ़ी का आवेदनकर्ता हूँ लेकिन  ख़ुशी की बात है कि इस योजना के चलते मैं शायद एक दिन भूमि स्वामी हो जाऊंगा। शायद देबेन्द्र सिंह के ख़ुशी को पूरा होने में अभी कुछ बरस लग सकते हैं। दरअसल इसका कारण है स्वामित्व योजना के अंतर्गत मणिपुर के 3798 चिन्हित गावों में योजना का  क्रियान्वयन और लक्ष्यपूर्ति वर्ष 2023-24 तक पूरा किया जाना है।  उत्तर-पूर्व में एक ऐसा राज्य जहाँ स्वयं भारत सरकार के अनुसार आवासहीनता अधिक  है उसे स्वामित्व योजना के क्रियान्वयन के अंतिम पायदान पर रखना निःसंदेह  तर्कहीन उपेक्षा को ही दर्शाता है। वास्तव में मणिपुर के सभी 3798 गावों के सर्वेक्षण और आवासहीनों को अधिकार देने का लक्ष्य सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर तय होना चाहिए था।

लोकतक (मणिपुर में मीठे पानी के सबसे बड़े जलाशयकी निवासी  कनकदेवी के लियेस्वामित्व’ जैसी किसी भी योजना का फिलहाल कोई अर्थ नहीं है। मणिपुर के बिष्णुपुर जिले के इस विशाल नैसर्गिक लोकतक जलाशय में कनकदेवी और उनके जैसे कई  परिवारों के तैरते हुये आशियाने  (फ्लोटिंग हैबिटाट ) को अवैध घोषित करते हुये नेस्तनाबूद करने के कई फ़रमान जारी हुये  दरअसल  वर्ष 2006 में मणिपुर सरकार द्वारा 'लोकतक सुरक्षा अधिनियम' घोषित किये जाने के बाद से अब तक इन  बस्तियों में रह रहे हज़ारों परम्परागत  मत्सयपालकों  को  उजाड़ने के अनेकों प्रयास किये गये हैं। टूटी-फूटी झोपड़ियों को तोड़ते-जलाते हुये, मत्स्यपालकों को प्रताड़ित करके जेल मे डालते हुये और अंततः इन तैरती हुई बस्तियों को अवैध घोषित कर के  कनकदेवी जैसे सैकड़ों लोगों को बेदख़ल करते हुये शासन ने मान लिया कि मणिपुर के विकास के लिये यह सब बाधायें हैं। 

कनकदेवी कहती हैं कि विगत 10 बरस में उनकी बस्तियों को बीसों बार उजाड़ने का नापाक प्रयास किया गया। वो कहती हैं कि हाई कोर्ट के स्पष्ट आदेश के बावज़ूद हमारे अपने पुरखों के इन टूटे-फूटे बस्तियों को अवैध घोषित कर दिया गया है। हमारा केवल इतना कहना है कि जिन बस्तियों में हमनें जनम लिया, कम से कम वहां झोपड़ी बनाने का अधिकार तो एक नागरिक होने के नाते हमें मिलना ही चाहिए। कनकदेवी मानती हैं कि यदि स्वामित्व योजना, उनके अधिकारों के सवालों का जवाब दे सके तो देशवासी होने के गर्व को वह भी एक दिन महसूस कर सकेगी, वरना दो गज जमीन के लिए उनका संघर्ष जारी रहेगा।

फ़िलहाल स्वामित्व योजना के जो दायरे परिभाषित हैं, उनमे लोकतक की इन बस्तियों की तरह वैध अवैध सवाल और बरसों से लंबित अनगिनत तर्क़  आयेंगे, जिनके प्रति कोई भी असंवेदनशील और अधूरे जवाब संभवतः लाखों लोगों को उनके नागरिक और स्वामित्व के अधिकारों से वंचित कर देंगे इन लाखों लंबित प्रकरणों के लिये  वे भूमिहीन  तो कतई जवाबदेह नहीं हैं।  ऐसे हज़ारों गांव जिन्हें विकास के नाम पर उजाड़ा गया है, संभव है इस महत्वाकांक्षी स्वामित्व योजना के दायरे में अपात्र साबित कर दिये जाएंगे।

भारत की जनगणना (2011) के अनुसार मणिपुर की लगभग 70 फ़ीसदी ग्रामीण आबादी आवासहीन/ भूमिहीन है। अर्थात जिस भूमि में उनके आवास हैं, उसका मालिकाना हक़ अब तक नहीं दिये गये हैं।  वास्तव में, मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार क़ानून (1960) प्रत्येक जिलाधीश को यह अधिकार देता है कि उसके जिले में चिन्हित आवासहीनों को वह उपयुक्त भूमि, उपलब्धता और पात्रता  के आधार पर आबंटन करे।

दुर्भाग्य से विगत 60 बरस में आवासभूमि के स्वामित्व सुनिश्चित नहीं किये जाने का ही परिणाम है कि लगभग आधी सदी से देबेन्द्र सिंह  और कनकदेवी सहित मणिपुर के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले  लगभग दो तिहाई लोगों के अधिकारों के सवाल अनुत्तरित हैं  आप इसे राजनैतिक असम्वेदनशीलता अथवा प्रशासनिक लापरवाही अथवा दोनों का घालमेल मान सकते हैं।

स्वामित्व योजना के राह में एक बड़ी चुनौती है और होगी कि बिना स्थानीय समुदाय के भागीदारी के क्या प्रशासन तंत्र पर इसे लागू करने की पूरी जवाबदेही देना जायज़ होगा ? क्या स्वामित्व योजना के तहत ड्रोन सर्वे से भी पूर्व  ज़मीनी नक्शों और दावों का मिलान जरूरी नहीं है ? स्वामित्व के दावों के भौतिक सत्यापन में ग्रामसभा अथवा शहरी निकायों की भूमिका सर्वप्रमुख क्यों नहीं होनी चाहिये ? और सबसे महत्वपूर्ण कि भूमि स्वामित्व, क्या महिलाओं के नाम पर भी/ही नहीं होना चाहिए?

विगत कई उदाहरण बताते हैं कि भूमि आबंटन और पात्रता के निर्धारण में स्थानीय समुदाय या सीधे ग्राम सभा अथवा शहरी निकायों की भागीदारी, इसकी सफ़लता अथवा असफ़लता  को तय कर सकती है।  वनाधिकार क़ानून (2006) यदि सफलतापूर्वक लगभग 20 लाख लोगों को भूमि अधिकार दिलाने का सफल माध्यम बन सकती है तो स्वामित्व योजना में भी इसकी कुछ सीखों को क्यों नहीं अपनाया जाना चाहिए?

स्थानीय निर्वाचित प्रतिनिधियों को क्रियान्वयन की कड़ी में शामिल करने का अर्थ है पूरी प्रक्रिया को जनभागीदारी से जोड़ना और सफलताओं में उन्हें भी हिस्सेदार बनाना।

मणिपुर जैसे भौगौलिक रूप से छोटे राज्य में - स्वामित्व योजना का दूरगामी प्रभाव हो सकता है।  विगत कुछ वर्षों से कई स्थानीय संगठनों नें मिलकर भूमि अधिकारों के सवालों को प्रमुखता से उठाया है। किंतु तमाम प्रयासों के बावज़ूद भी राज्यतंत्र द्वारा भूमि अधिकारों को संवैधानिक  दायित्व के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। स्वामित्व योजना इस दृष्टिकोण से एक अवसर है।

कुछ मायनों में स्वामित्व योजना महत्वाकांक्षी भी है, लेकिन करोड़ों लोगों के नागरिक अधिकारों के खातिर इसे फिलहाल तो महत्वपूर्ण मान लेना चाहिए। मणिपुर राज्य और वहां के 3798 गावों के दो तिहाई ग्रामीण आवास हीन आबादी के लिये यह एक नया सपना भी हो सकता है। अच्छा होगा इस सपने को साकार करने के लिए ग्रामसभा को भी माध्यम बनाया जाये अन्यथा और कई योजनाओं की तरह स्वामित्व का सपना  भी कहीं गुम ना हो जाये। देबेन्द्र सिंह  और कनकदेवी जैसे दूसरी पीढ़ी के आवासहीन को यदि अब उनके नागरिक अधिकार और दो गज जमीन का स्वामित्व मिल सके तो निश्चित ही यह बरसों से देखे गए सपने के साकार होने जैसा होगाआज स्वामित्व योजना की सफलता और असफलता के दरमियां बेजमीन आधी आबादी प्रतीक्षा में खड़ी है।

(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)