क्या दूसरी दुनिया बनाई जा सकती है? अक्सर हमारा जवाब होता है- नहीं, एक सुन्दर दुनिया का सपना मुश्किल है। नयी दुनिया की सम्भावना शून्य है। यह दुनिया विकल्पहीन है- और यह भयंकर उद्घोषणा ‘मार्केट-ग्लोबलिज्म’ के द्वारा की गई। ‘मार्केट-ग्लोबलिज्म’ ने इस घोषणा के साथ ही विकल्पों के विमर्श का स्पेस ख़तम कर दिया और इस विचार को वैधानिकता देने से लेकर इसे अमलीजामा पहनाने में इसके कर्ता-धर्ता यानि ‘चीफ-कोडिफायर’ की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
ये ‘चीफ-कोडिफायर’ कौन थे? ये थे- अंतर्राष्ट्रीय एलिट, कॉर्पोरेट मैनेजर, बड़े कारपोरेशन के एग्जीक्यूटिव, कॉर्पोरेट-लॉबिस्ट, बड़े मिलिट्री अधिकारी, कॉर्पोरेट के पत्रकार और लेखक, लोक-अधिकारी, बड़े राजनेता जैसे अनेक प्रभावशाली लोग।
इन्होने अपने-अपने तरीके से निहित स्वार्थों के लिए ‘मार्केट-ग्लोबलिज्म’ के लिए कार्य किया और दुनिया को इस बात के लिए तैयार किया कि इस दुनिया को नयी दुनिया नहीं बनाई जा सकती। यही इसकी नियति है, यही इसकी परिणति है। इन्होने दुनिया को यथास्थितिवादी बनाने का भरसक प्रयास किया। इन्होने TINA यानि ‘देयर इज नो अल्टरनेटिव’ की उद्घोषणा की। और उसी में तमाम सपने दिखाए, अनगिनत वादें किए, लेकिन इसने अपने वादों को कभी पूरा नहीं किया, और सपनों को भी धीरे-धीरे कुचल डाला। और इसी कारण अस्सी के दशक से TAMA यानि ‘देयर आर मेनी अल्टरनेटिव’ की चेतना जागृत हुई जिसे ‘जस्टिस-ग्लोबलिज्म’ के नाम से जाना गया। इन्होने मुख्य वैश्विक राजनीतिक आर्थिक विचारधारा नव-उदारवाद या आर्थिक-ग्लोबलाइजेशन को चुनौती दिया।
‘जस्टिस-ग्लोबलिज्म’ के उभार के कई अहम् कारण थे; जैसे, मेक्सिको में नवउदारवादी नीतियों के विरोध में उपजा ‘जप्तिस्ता’ आक्रोश और उसमें हुई व्यापक हिंसा, और फिर 1997-98 का एशियाई आर्थिक संकट, फ़्रांस में 1995-98 के बीच हुए हड़ताल, ग्लोबल-साउथ का ऋण संकट, वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन और अन्य वैश्विक आर्थिक संगठनों की बढती राजनीतिक शक्ति, 11 सितम्बर का आतंकी हमला इत्यादि अनेक।
इन घटनाओं ने दुनिया के चिंतकों को नयी दुनिया के बारे में सोचने पर बाध्य किया. जिसका परिणाम ‘जस्टिस-ग्लोबलिज्म’ के रूप में सामने आया। इन्होने नब्बे के बाद नवउदारवादी नीतियों से संचालित ग्लोबलाइजेशन के विरुद्ध डी-ग्लोबलाइजेशन की वकालत करनी शुरू कर दी। जिस कारण इसे ग्लोबलाइजेशन विरोधी घोषित कर दिया गया, जबकि इनका मुख्य मकसद था ‘ग्लोबलाइजेशन फ्रॉम बिलो’ न कि ‘ग्लोबलाइजेशन फ्रॉम एवब’। जैसा कि ‘जस्टिस-ग्लोबलिज्म’ के एक विचारक विल्सन का दावा हैं– ‘डी-ग्लोबलाइजेशन से हमारा तात्पर्य ग्लोबलाइजेशन का विरोध नहीं है, बल्कि दूसरे तरीके से इसके सञ्चालन को लेकर है। पूंजीवादी अर्थशास्त्र कहता है- इसमें हारनेवाले भी होंगे और जीतनेवाले भी, लेकिन हारनेवाले के साथ हम क्या करते हैं?
हमारी प्राथमिकता हारनेवाले की सहायता करना है। हमारी प्राथमिकता पीछे छुट गए लोगों के प्रति है’। और जिसे 2004 के ‘वर्ल्ड मार्च ऑफ वीमेन’ की मांगों में भी देखा जा सकता है। जब इन्होने सभी मनुष्यों के समान महत्व के होने की बात कही। उन्होंने संसाधन, भूमि, रोजगार, आवास, शुद्ध भोजन और हवा, शिक्षा, न्याय, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, राजनीतिक निर्णयों में सहभागिता, कला-संस्कृति, आराम के समय, और वैज्ञानिक प्रगति के अन्य श्रोतों में उनके वाजिब हिस्से की मांग की।
और इन मांगों में कुछ भी अप्राकृतिक नहीं- कुछ भी अन्यायपूर्ण नहीं। दुनिया में संसाधनों और सुविधाओं के केंद्रीकरण के पीछे निश्चित रूप से उस आर्थिक तंत्र की भी बड़ी भूमिका है जिसने दुनिया के एक बड़े हिस्से को प्रचंड दरिद्रता में धकेल दिया। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय न्याय से प्रेरित इन विचारकों ने ‘पावर्टी-लाइन’ के अतिरिक्त ‘ग्रीड-लाइन’ या ‘लालच की सीमा’ को भी तय किये जाने की वकालत की- आदमी की न्यूनतम जरूरतें अगर तय की जा सकती है, तो इसकी अधिकतम जरूरतें भी अनिवार्य रूप से निर्धारित की जानी चाहिए। और यही न्याय है।
‘जस्टिस-ग्लोबलिज्म’ से जुड़े विचारक वर्तमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कम से कम तीन ऐसे बड़े कारक देखते हैं जो अंतर्राष्ट्रीय संकटों के श्रोत हैं। पहला; ‘डी- रेग्युलेसन’, यह पूंजी को एकदम आवारा बना देती है। बड़ी फर्मों को इसका लाभ मिलता है और जो अंतिम रूप से आम आदमी को अपने नियंत्रण में ले लेती है। यह संसाधनों और अधिकारों का एक पिरामिड तैयार करती है जिसके शीर्ष पर पूंजी होता है।
अर्थव्यवस्था ‘ट्रिकल-डाउन’ की मान्यताओं पर चलना प्रारम्भ कर देती है, यानि अमीर को और अधिक अमीर होने दीजिए तो गरीबों की गरीबी मिटेगी। यह कमाल का आर्थिक दर्शन है। और अमीर तब अमीर होंगे जब इनके पूंजी निर्माण में लोक-सत्ता बाधा न बने, इसलिए राज-सत्ता इनके वाजिब नियंत्रण से जुड़े कानूनों के प्रति भी उदार हो जाती है। यह ‘डी- रेग्युलेसन’ का मूल दर्शन है। जिसे ‘वाशिंगटन-कन्सेंसस’ के दस ऐतिहासिक बिन्दुओं में देखा जा सकता है। दूसरा; पूंजी अपने संचरण के दौरान क्षेत्रीय या स्थानीय सरोकारों का थोड़ा भी ध्यान नहीं रखती।
‘वन साइज फिट ऑल’ की सोच के साथ यह क्षेत्रीय विशिष्टता को अनदेखा कर देती है, इसलिए इसमें मानव विकास की संभावनाएं समाप्त हो जाती है। आर्थिक विषमता के साथ ही यह अन्य अनगिनत मानवीय त्रासदियों का कारण बनती है और तीसरा; यह सबसे अहम् है। नब्बे के दशक से ऐसी आशंकाएं व्यक्त की जाने लगी कि ऐसा न हो कि राज्य बाजार की भूमिका में आ जाए और बाजार राज्य की भूमिका में। और ये आशंकाएं निर्मूल नहीं मानी जा सकती।
राजसत्ता ने जिस तरह से वैश्विक पूंजी के सामने समर्पण किया है, और पूंजी ने जिस तरह से नीति निर्माण को अपने हाथ में लिया है उससे इस त्रासदी को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। लोकतान्त्रिक विचार, दर्शन और व्यवस्था को इस ग्लोबल पूंजी ने गंभीर रूप से क्षत्रिग्रस्त किया। दुनिया के विभिन्न देशों में अलोकतांत्रिक होती सत्ताएं वस्तुतः राज-सत्ता की तानाशाही मात्र नहीं है, बल्कि इसमें वैश्विक पूंजी का प्रभाव और उसकी तानाशाही की प्रेरणा है जो लगातार लोक-सत्ता को हासिये पर धकेलती जा रही है। यह लोकतंत्र को लगातार नुकसान पहुंचा रही है।
संवाद समाधान का पहला और अंतिम मार्ग है. दुर्भाग्य से ‘मार्केट-ग्लोबलिज्म’ ने संवाद का मार्ग बाधित कर दिया. लोकतंत्र संवाद का तंत्र है. और यह संवाद दोनों तरफ से होना चाहिए, लेकिन दुनिया की राज-सत्ताएँ अब एकतरफा संवाद कर रही हैं। यह बस कह रही है- सुनना स्वीकार्य नहीं रह गया है। जैसा कि एक अन्य विचारक स्टगर का मानना है कि लोकतंत्र ‘..यस सर’ नहीं है, यह दोनों तरफ की कहने सुनने की प्रक्रिया है’. और ऐसी प्रवृति ऊपर से नीचे की तरफ फैलती है, न कि नीचे से ऊपर की तरफ, यानि शीर्ष पर बैठा पूंजीवादी प्रबंधक नीचे समाज और सत्ता के तमाम पक्षों में ऐसी ही गैर-लोकतान्त्रिक सोच को पैदा कर रहा है। यह प्रवृति मानवजाति के लिए आत्मघाती है।
मानवीय मूल्यों से पूंजी के निर्माण के बदले पूंजी ने नए मूल्यों को रचना-गढ़ना शुरू कर दिया है. और आश्चर्य है कि यह पूंजी जुए की पूंजी है न कि श्रम से उपजी हुई पूंजी. विचारक सुसान स्ट्रेंज के सन्दर्भों में देखें तो यह ‘कैसिनो-कैपिटलिज्म’ है। अनुमान और सट्टे से अर्थतंत्र का विकास हो रहा है, इसलिए ऐसी अर्थव्यवस्था में मानवीय विकास और उनके मूल्यों के लिए स्पेस का होना विरोधाभाषी ही माना जा सकता है।
गुडमैन लिखते हैं- ‘जो संपत्ति मात्र संचित है वह संपत्ति नहीं है जबतक कि वह समुदायों में साझा नहीं की जाती। संपत्ति संचय के लिए नहीं है। यह समुदायों के उपभोग के लिए है’, जबकि ठीक उलट वैश्विक पूंजी में संपत्ति और संसाधनों का उत्पादन तो हो रहा है लेकिन उसका न्यायपूर्ण वितरण नहीं हो रहा. वे आगे कहते हैं- ‘संपत्ति निर्माण से पहले वैसी संरचना का निर्माण कीजिये जिसमें साझा करने की प्रेरणा हो. और यह हिस्सेदारी केवल कुछ समुदायों के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए हो’।
बेहद ही प्रचलित शब्द ‘विकास’ की जो परिभाषा है उसे सर्वप्रथम वर्ल्ड बैंक ने 1949 में आर्थिक वृद्धि को मापने के लिए प्रयुक्त किया था, इसका मानवीय विकास से कोई गहरा सम्बन्ध नहीं था। और तब से विकास ने समय-समय पर अपने रंग-ढंग बदले। अस्सी और नब्बे के दशक तक आते-आते यह अत्यंत ही आवारा और बेलगाम होता चला गया। और इसी बेलगाम और असंतुलित आर्थिक तंत्र को चुनौती देते हुए ‘जस्टिस-ग्लोबलिज्म’ ने अपनी प्रमुख प्रस्तावनाओं को रखा।
पहला- नव-उदारवाद वैश्विक संकट को पैदा कर रहा है।
दूसरा- बाजार द्वारा निर्देशित वैश्वीकरण ने संसाधन और जीवन-स्तर में बड़ी खाई पैदा की है।
तीसरा- दुनिया की समस्याओं के समाधान के लिए लोकतान्त्रिक सहभागिता अनिवार्य है।
चौथा- दूसरी दुनिया संभव है और इसकी नितांत आवश्यकता है।
पांचवा- लोगों को मजबूत बनाया जाए न कि कॉर्पोरेट को।
पूरी दुनिया में कमोबेश लोगों की जरूरतें और प्राथमिकतायें कोई और तय कर रहा है। नीति निर्माण की प्रक्रिया से वे बाहर हैं। कॉर्पोरेट निरंकुश सत्ता को जन्म दे रही है। सत्ता कॉर्पोरेट के लिए प्रबंधन का कार्य कर रही है। उनकी नीतियों से जन-सरोकार गायब हैं। सरोकार और मजबूत नीतियों के स्थान पर लोक-लुभावन चीजों में लोक-धन का दुरूपयोग किया जा रहा है। लोग लगातार कमजोर हो रहे हैं। ऐसे में विकल्पों पर सोचा जाना चाहिए इस आशा के साथ कि ‘अˈनद़्अर वर्ल्ड इज पॉसिबल’।