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बदहाल है झारखंड की सरकारी शिक्षा व्यवस्था, स्कूलों में नहीं है शौचालय और बिजली-पानी की सुविधा

सर्वेक्षण से पता चला है कि सर्वे में शामिल किसी भी स्कूल में शौचालय और बिजली, पानी की सुविधा नहीं थी। यदि कहीं शौचालय हैं भी भी तो वो जर्जर अवस्था में हैं

Lalit Maurya

शिक्षा, समाज को बेहतर बनाती है वो आने वाले भविष्य को तैयार करती है। लेकिन क्या हो यदि खुद शिक्षा व्यवस्था ही बदहाल हो। ऐसा ही कुछ झारखण्ड में भी सामने आया है। आप यकीन नहीं करेंगें कि झारखंड के एक तिहाई प्राथमिक स्कूल केवल एक ही टीचर के भरोसे चल रहे हैं।

गौरतलब है कि इन स्कूलों में 90 फीसदी बच्चे दलित और आदिवासी परिवारों से आते हैं। ऐसे में पहले ही अनगिनत कठिनाइयों का सामना कर रहे इन बच्चों का भविष्य कैसा होगा इसकी कल्पना भी विचलित कर देती है।

वहीं स्कूलों पर किए सर्वेक्षण से पता चला है कि सर्वे में शामिल किसी भी स्कूल में शौचालय और बिजली, पानी की सुविधा नहीं थी। यदि कहीं शौचालय हैं भी भी तो वो जर्जर अवस्था में हैं। जिनका होना न होना बराबर है। यह हैरान कर देने वाली जानकारी गैर-सरकारी संगठन ज्ञान विज्ञान समिति झारखंड द्वारा प्रकाशित नई रिपोर्ट 'स्कूल की भूल' में सामने आई है।

यह रिपोर्ट ज्ञान विज्ञान समिति (जीवीएसजे) द्वारा सितंबर से अक्टूबर 2022 के बीच झारखंड के 138 प्राइमरी और अपर-प्राइमरी स्कूलों पर किए सर्वेक्षण पर आधारित है। यह सर्वे राज्य के 16 जिलों में फैले 26 ब्लॉकों में किया गया था।

रिपोर्ट के मुताबिक झारखण्ड की शिक्षा प्रणाली पहले ही खस्ताहाल थी। ऊपर से कोविड-19 महामारी ने उसकी स्थिति और खराब कर दी है। पता चला है कि स्कूलों को इस महामारी के प्रभावों से उबारने के लिए जो प्रयास किए गए है वो पूरी तरह नाकाफी रहे हैं।

झारखण्ड में शिक्षा व्यवस्था की दुर्दशा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वहां आज भी अधिकांश स्कूलों ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 द्वारा निर्धारित न्यूनतम मानदंडों का पालन नहीं किया है।

गौरतलब है कि यह अधिनियम सभी जातियों और समाज के बालक-बालिकाओं को जो 6 से 14 वर्ष के हैं, उन्हें नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है। इस अधिनियम को 4 अगस्त 2009 को लोकसभा में पारित किया गया था। जो 1 अप्रैल 2010 से पूरे देश में लागू हो गया था।

वैसे भी देशभर में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था की जो स्थिति है वो किसी से छिपी नहीं है। मगर झारखण्ड में सरकारी स्कूलों की स्थिति कुछ ज्यादा ही खराब है। एनुअल सर्वे ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) के मुताबिक, झारखंड, बिहार, असम और उत्तर प्रदेश सहित उन गिने चुने राज्यों में शामिल है जहां 2011 में 8 से 11 साल के आधे बच्चे एक मामूली पैराग्राफ पढ़ने में भी असमर्थ थे।

न शौचालय न बिजली पानी की व्यवस्था, किताबों का भी नहीं अता पता

झारखण्ड में एक बड़ी आबादी आदिवासियों की है। वहीं करीब 78 फीसदी हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है। ऐसे में ज्यादातर बच्चे शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों के भरोसे हैं, क्योंकि गरीबी के चलते प्राइवेट स्कूल आबादी के एक बड़े हिस्से की पहुंच से बाहर हैं।

सर्वे से पता चला है कि झारखंड के एक-तिहाई से भी ज्यादा प्राथमिक स्कूलों और बीस फीसदी प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में सिर्फ एक ही शिक्षक है, जबकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम के मुताबिक, सभी स्कूलों में कम से कम दो शिक्षक होने चाहिए।

इसी से इन स्कूलों के प्रति सरकारी उदासीनता का अंदाजा लगाया जा सकता है। शिक्षकों की इस कमी का सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक आदिवासी बहुल इलाकों में स्थिति और भी ज्यादा खराब है। 

इतना ही नहीं रिपोर्ट से पता चला है कि झारखण्ड के प्राइमरी स्कूलों में विद्यार्थियों की उपस्थिति केवल 68 फीसद दर्ज की गई हैं वहीं अपर-प्राइमरी स्कूलों में स्थिति कहीं ज्यादा खराब है जहां यह आंकड़ा 58 फीसद दर्ज किया गया है। स्पष्ट है कि शिक्षकों की कमी और बुनियादी सुविधाओं का आभाव विद्यार्थियों को स्कूलों से दूर कर रहा है।

इतना ही नहीं सर्वे में सामने आया है कि वहां केवल 19 फीसदी उच्च-प्राथमिक विद्यालय ऐसे है जहां 30 छात्रों पर एक शिक्षक है। पता चला है कि प्राथमिक स्तर पर ज्यादातर शिक्षक (55 फीसदी) पारा शिक्षक हैं जबकि और उच्च प्राथमिक स्तर पर यह आंकड़ा 37 फीसदी है। सर्वे में शामिल करीब 40 फीसदी प्राइमरी स्कूल पूरी तरह से पारा शिक्षक ही चला रहे हैं।

ज्यादातर शिक्षकों का मानना है कि महामारी के बाद फरवरी 2022 में स्कूलों के फिर से खुलने तक ज्यादातर छा त्र पढ़ना-लिखना भूल गए थे। वहीं यदि सुविधाओं की बात करें तो सर्वे में शामिल एक भी स्कूल में शौचालय चालू हालत में नहीं था। न ही इन स्कूलों में बिजली, पानी की कोई व्यवस्था थी।

इसी तरह दो- तिहाई प्राथमिक स्कूलों में चारदीवारी तक नहीं थी। 64 फीसद स्कूलों में खेल का मैदान नहीं था और 37 फीसदी स्कूलों की लाइब्रेरी में किताबें तक नहीं थी। दो-तिहाई शिक्षकों ने माना कि सर्वेक्षण के समय स्कूल के पास मिड डे मील के लिए पर्याप्त पैसा नहीं था। ऐसे में झारखंड में बच्चों के कल्याण और अधिकारों की रक्षा के लिए स्कूली शिक्षा प्रणाली को दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। साथ ही इसके लिए शिक्षा व्यवस्था पर बड़े पैमाने पर निवेश करने की भी जरूरत है।