संयुक्त राष्ट्र ने अपनी नई रिपोर्ट में चिंता जताई है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र अपने सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने से तीन दशक से भी ज्यादा पीछे है। ऐसे में रिपोर्ट का कहना है कि इस क्षेत्र को अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अभी 2062 तक का इन्तजार करना होगा।
यह क्षेत्र किस कदर अपने लक्ष्यों से पिछड़ा हुआ है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2030 तक एशिया प्रशांत क्षेत्र मौजूदा रफ्तार से अपने सतत विकास के एक भी लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएगा।
रिपोर्ट में भारत के बारे में जो जानकारी साझा की गई है उसके मुताबिक इन लक्ष्यों के 85 मापदंडों पर भारत का प्रदर्शन बेहतर हुआ है, जबकि 27 मामलों में प्रगति करीब करीब रुक सी गई है। वहीं 36 मामलों में प्रगति खराब हुई है। रिपोर्ट में आंकड़ों की कमी को उजागर करते हुए कहा गया है कि अभी भी 100 संकेतक ऐसे हैं, जिनकी प्रगति को मापने के लिए हमारे पास पर्याप्त जानकारी नहीं है।
यदि भारत से जुड़े आंकड़ों पर नजर डालें तो ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनकी दिशा में होती प्रगति पहले से पिछड़ी है। उदाहरण के लिए देश में कुपोषण की स्थिति पहले से बदतर हुई है। जहां 2015 में देश की 14 फीसदी आबादी अल्पपोषण का शिकार थी, वहीं 2021 में यह आंकड़ा बढ़कर 16.6 फीसदी पर पहुंच गया। इसी तरह देश में महिलाएं में खून की कमी की समस्या करीब-करीब पहले जितनी ही है।
इसी तरह देश में आत्महत्या करने वालों का आंकड़ा भी बढ़ा है। वहीं घरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल के मामले में भी प्रगति पिछड़ी है। बता दें कि जहां 2020 में घरों से निकलने वाला 26.6 फीसदी दूषित जल साफ किया जा रहा था। वहीं 2022 में यह आंकड़ा घटकर 20 फीसदी रह गया है।
इसी तरह देश में संसाधनों का उपयोग बढ़ा है, जहां 2015 में भारत में प्रति व्यक्ति मैटेरियल फुटप्रिंट 4.8 टन था वो 2019 में बढ़कर 5.2 टन पर पहुंच गया। देश में बेरोजगारी दर 2018 में 7.7 फीसदी से बढ़कर 2020 में 7.9 पर पहुंच गई। सतत पर्यटन के मुद्दे पर भी प्रगति में गिरावट हुई है। देश में शरणार्थियों का जो आंकड़ा 2015 में प्रति लाख पर 0.8 था वो 2022 में बढ़कर एक हो गया है। वहीं अनुसंधान और विकास पर होने वाले व्यय में भी कोई वृद्धि नहीं दर्ज की गई है। आंकड़ों के मुताबिक 2015 से 2019 के बीच कृषि क्षेत्र से होने वाले उत्सर्जन में भी वृद्धि दर्ज की गई है। वहीं जलवायु परिवर्तन संबंधी नीतियों, के बारे में रिपोर्ट पर्याप्त आंकड़े मौजूद नहीं हैं। आंकड़ों के मुताबिक समुद्री प्रदूषण और समुद्री संसाधनों के सतत उपयोग के मामले में भी प्रगति पिछड़ी है।
बता दें कि सतत विकास के इन लक्ष्यों (एसडीजी) को हासिल करने के लिए 2030 की समय सीमा तय की गई थी। एक बेहतर दुनिया की आस में साल 2015 में दुनिया भर के नेताओं द्वारा सतत विकास के इन 17 लक्ष्यों को अपनाया था।
गौरतलब है कि इन लक्ष्यों का उद्देश्य दुनिया से भुखमरी, गरीबी, जैसी समस्याओं को दूर करना और सबके लिए साफ पानी, स्वच्छता, बेहतर स्वास्थ्य, लैंगिक समानता, आर्थिक विकास, बेहतर काम, सस्ती, सुलभ और स्वच्छ ऊर्जा के साथ-साथ बेहतर शिक्षा मुहैया कराना था। इसके साथ ही जैवविवधता, इनोवेशन और बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के साथ असमानताओं को कम करना जैसे मुद्दों को हल करना था।
संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक आयोग (यूएनईएससीएपी) द्वारा जारी इस नई रिपोर्ट 'एशिया एंड द पैसिफिक एसडीजी प्रोग्रेस रिपोर्ट 2024' में भारत सहित एशिया-प्रशांत क्षेत्र में व्याप्त गरीबी और असमानता की मौजूदा चुनौतियों पर प्रकाश डाला गया है।
इस बारे में ईएससीएपी की कार्यकारी सचिव आर्मिडा साल्सिया अलिसजाहबाना ने रिपोर्ट की प्रस्तावना में लिखा है कि, "हमारी अटूट प्रतिबद्धता महत्वपूर्ण है, क्योंकि एसडीजी की दिशा में प्रगति इस पूरे क्षेत्र में अपर्याप्त और असमानताओं से भरी है।" उनके मुताबिक इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हमें अतिरिक्त प्रयासों की आवश्यकता है।
कमजोर तबके को कहीं ज्यादा मदद की है दरकार
उनका यह भी कहना है कि विस्तृत आंकड़े उन असमानताओं को संबोधित करने की तात्कालिकता पर जोर देते हैं जो महिलाओं, बच्चियों, ग्रामीण आबादी और शहरों में जद्दोजहद करने को मजबूर गरीबों सहित हाशिए पर रहने वाले समूहों को प्रभावित करती हैं। यह वो लोग हैं जो खुद को शिक्षा और रोजगार के अवसरों से वंचित पाते हैं।
रिपोर्ट में एशिया-प्रशांत क्षेत्र के सबसे कमजोर देशों (एलडीसी) और छोटे विकासशील द्वीपीय देशों (एसआईडीएस) को लेकर विशेष रूप से चिंता जताई गई है, जो अपनी विशेष परिस्थितियों के चलते अनगिनत चुनौतियों का सामना करने को मजबूर हैं। रिपोर्ट का यह भी कहना है कि भौगोलिक रूप से अलग-थलग होने के साथ-साथ यह देश सीमित संसाधनों और जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों से कहीं ज्यादा प्रभावित हैं। ऐसे में इन्हें कहीं ज्यादा समर्थन की दरकार है।
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रिपोर्ट का यह भी कहना है कि 2015 के बाद से इन देशों ने एसडीजी की दिशा में जो प्रगति की थी, उसमें कोविड-19 महामारी की वजह से काफी रुकावटे आई हैं। इससे उनकी उपलब्धि केवल 5.9 फीसदी रह गई है। हालांकि सबसे कमजोर देशों (एलडीसी) ने इस राह में 11.5 फीसदी की थोड़ी बेहतर प्रगति हासिल की है।
वहीं ऐसे विकासशील देश जो चारों ओर से घिरे (एलएलडीसी) हैं उन्होंने इन लक्ष्यों की दिशा में 13 फीसदी की प्रगति दिखाई है। हालांकि इसके बावजूद वो 2030 के लक्ष्यों को हासिल करने से काफी दूर हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में एशिया-पैसिफिक क्षेत्र को व्यापार में करीब 160,39,507 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था।
रिपोर्ट में महिलाओं और पुरुषों के सामने खड़ी सामाजिक समस्याओं पर भी प्रकाश डाला गया है। इस क्षेत्र में महिलाओं को मुख्य रूप से शिक्षा और रोजगार के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उनकी नामांकन दर कम है और युवा महिलाओं को भी काम ढूंढने में परेशानी हो रही है, जिससे युवा बेरोजगारी दर में वृद्धि हुई है।
वहीं दूसरी ओर, पुरुषों की बात करें तो उन्हें स्वास्थ्य और सुरक्षा संबंधी समस्याओं से जूझना पड़ा है। इनमें एचआईवी के नए मामले, बीमारी से होने वाली मौतें, आत्महत्या की दर, शराब का सेवन, सड़क दुर्घटनाएं, तंबाकू का उपयोग जैसी चुनौतियां शामिल हैं।
रिपोर्ट में इस बात को भी उजागर किया गया है कि विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को साफ पानी और शौचालयों तक सीमित पहुंच जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इसके अलावा, खाना पकाने का स्वच्छ ईंधन न होने से वायु प्रदूषण और सांस संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ रहा है।
यह समस्या खासकर उन महिलाओं और बच्चियों के लिए कहीं ज्यादा विकट है जिन्हें रसोई में बहुत ज्यादा वक्त बिताना पड़ता है। कुल मिलकर कहें तो शहरों में स्थिति कहीं ज्यादा बेहतर है। हालांकि शहरी क्षेत्रों में भी सबसे कमजोर तबके के बच्चे हाई स्कूल तक की पढ़ाई पूरी करने के लिए भी संघर्ष करने को मजबूर हैं।
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जलवायु से जुड़ी आपदाओं के लिए तैयार नहीं एशिया-पैसिफिक
एसडीजी के इन 17 लक्ष्यों में से 13वां लक्ष्य जलवायु परिवर्तन और उसपर कार्रवाई से जुड़ा है। रिपोर्ट का कहना है कि इसपर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। एशिया पैसिफिक क्षेत्र की बात करें तो इस लक्ष्य की दिशा में हो रही प्रगति पूरी तरह पटरी से उतर गई है और जहां अन्य क्षेत्रों में कुछ न कुछ प्रगति हुई है वहीं इस दिशा में हम आगे जाने की जगह पीछे लौट रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक आयोग ने अपनी हाल ही में जारी एक अन्य रिपोर्ट "रेस टू नेट जीरो: एक्सेलेरेटिंग क्लाइमेट एक्शन इन एशिया एंड द पैसिफिक" में चेताया था कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र जलवायु से जुड़ी चरम मौसमी घटनाओं का सामना करने के लिए तैयार नहीं है। रिपोर्ट का कहना है कि यह क्षेत्र पहले ही जलवायु में आते बदलावों की भारी कीमत चुका रहा है। अनुमान है कि इस क्षेत्र में प्राकृतिक और जैविक खतरों के चलते हर साल 63.8 लाख करोड़ रुपए (78,000 करोड़ डॉलर) का नुकसान हो रहा है। आशंका है कि वो बढ़कर 114.53 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच सकता है।
रिपोर्ट के अनुसार पिछले छह दशकों में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में तापमान वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ा है। दुनिया में आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित दस में से छह देश इसी क्षेत्र में हैं। इन आपदाओं ने जहां खाद्य सुरक्षा पर आघात किया है। साथ ही अर्थव्यवस्थाओं को भी नुकसान पहुंचाया है और समुदायों को कमजोर किया है।
"एशिया पैसिफिक डिजास्टर रिपोर्ट 2023" के मुताबिक एशिया-प्रशांत क्षेत्र में 1970 से लेकर अब तक करीब 20 लाख लोग आपदाओं में मारे गए हैं। इतना ही नहीं अनुमान है कि यदि तापमान में होती वृद्धि के साथ इन आपदाओं का कहर और बढ़ सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ इन आपदाओं से होने वाला नुकसान बढ़कर 82 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है।
वहीं खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) और यूनिसेफ द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक पोषक आहार भारत सहित एशिया-प्रशांत क्षेत्र में रहने वाले 180 करोड़ लोगों की पहुंच से बाहर है। 2018-20 के लिए एफएओ द्वारा जारी आंकड़ों को देखें तो भारत में 20 करोड़ से ज्यादा लोग कुपोषण का शिकार थे, जिसका मतलब है कि करीब 15.3 फीसदी आबादी पोषण की कमी से जूझ रही थी। वहीं पांच वर्ष से कम उम्र के करीब एक तिहाई बच्चों का विकास ठीक से नहीं हो रहा है।
ऐसे में रिपोर्ट में जलवायु कार्रवाई को राष्ट्रीय नीतियों में एकीकृत करने के साथ, बदलावों को अपनाने और जलवायु संबंधी आपदाओं से निपटने के लिए अनुकूलन क्षमता में सुधार करने की आवश्यकता को रेखांकित किया है। इसके साथ ही रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हमें टिकाऊ बुनियादी ढांचे और अक्षय ऊर्जा में और अधिक निवेश की आवश्यकता है।