विकास

महिलाओं के भूमि अधिकारों का अधूरा अध्याय

खेती-बाड़ी के अधिकांश काम करने के बावज़ूद महिलाओं को भी 'किसान' होने का वैधानिक अहसास, आख़िर कब और किसकी बदौलत होगा?

Ramesh Sharma

भारत में महिलाओं के भूमि अधिकारों का अध्याय, स्वाधीनता के सात दशकों के बाद भी अब तक अपूर्ण है। इसका एक अर्थ यह है कि आधी आबादी की  'स्वाधीनता' अब तक अधूरी है। और इसके निहितार्थ यह भी हैं कि भारत में महिलाओं की 'स्वाधीनता' स्वयं समाज और सरकार ने कमतर कर दी है। ऐसे में भारत की जनगणना (2011), जिन 56 फ़ीसदी ग्रामीण जनसंख्या के भूमिहीन होने का आंकलन करती है उस विपन्न भूमिहीन समाज में महिलाओं की क्या स्थिति है/हो सकती है - यह सवाल महिलाओं के अधिकारों के केंद्रबिंदु में आज होना ही चाहिए। 

लेकिन जवाब आखिर कहां और किसके पास होने चाहिए? क्या समाज और सरकार के समक्ष महिलाओं को यह साबित करना होगा कि वह भी 'समानता' के संवैधानिक दायरों में शामिल हैं? क्या महिलाओं को सार्वजनिक रूप से प्रमाणित करना होगा कि ‘संपत्ति और भूमि’ में कानूनन उनका भी आधा हिस्सा है? खेती-बाड़ी के अधिकांश काम करने के बावज़ूद महिलाओं को भी 'किसान' होने का वैधानिक अहसास, आखिर कब और किसके बदौलत होगा? राज्यों के मौजूदा कानून और नीतियां, आधी आबादी के भूमि अधिकारों को ज़मीनी स्तर पर स्थापित कर पानें में अब तक असफ़ल क्यों  रही हैं? महिलाओं को संपत्ति में बराबरी का हिस्सा देने में आखिर सामाजिक व्यवस्था इतनी अक्षम क्यों है? संवैधानिक वायदों के बाद भी महिलाओं के अधिकारों को लेकर सामाजिक जड़ता और प्रशासनिक नाकामियां पूर्वाग्रहों से ग्रसित क्यों हैं? महिलाओं को सम्मानपूर्वक  उनके भूमि और संपत्ति के अधिकारों को न दिला पाने का अभियोग समाज पर लगना चाहिये या सरकार पर? भारत जैसे देश में लगभग 55 करोड़ महिलाओं  के अधिकारों और जिंदगी से जुड़े इन सवालों के जवाबों के लिये समाज और सरकार आखिर कब तक सामर्थ्यहीन बने रहेंगे/बने रहना चाहते हैं ?

प्रश्नों की यह सतत बढ़ती कड़ियाँ कदाचित और अधिक लंबी और जटिल हो सकती हैं - लेकिन अनुत्तरित सवालों के जवाबों के लिये जवाबदेह सरकार और समाज का मौन सदियों से अधिकारों के लिये प्रतीक्षारत महिला समाज के समक्ष अब तलक  मुंह बाये खड़ा है।  वास्तव में महिलाओं के हक़ों की पैरवी करते तमाम कानून तो महज़ लिखी हुई इबारतें हैं, जिन्हें मानना - न मानना उस पुरुषप्रधान समाज का विशेषाधिकार बन चुका है, जो महिलाओं को भूमि और संपत्ति के  बराबरी का हक़ मिलने - न मिलने के मध्य खड़ा है। यथार्थ तो यह है कि उसके (पुरुषप्रधान) विशेषाधिकार के दायरे में वह पूरी विधायिका, कार्यपालिका और (कुछ हद तक) न्यायपालिका भी है, जो  महिलाओं के अधिकारों के पैमानों को अब तक  पूर्वाग्रहपूर्ण  तय करते रही  है। 

झारखण्ड में  भूमि संबंधी कानून और भूमि तथा संपत्ति के अधिकारों को लेकर महिलाओं की मौज़ूदा स्थिति,  समाज और सरकार दोनों की मानसिकता को बेपरदा करती  है। पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रीय संगठन 'लैंडऐसा' और भारत में एकल महिलाओं के अधिकारों के लिये संघर्षरत  ‘एकल नारी सशक्ति संगठन’  के संयुक्त प्रयासों से हुये अध्ययन की बानगी इसे गहराई से समझा जा सकता है। इस अध्ययन की प्रमुख शोधकर्ता शिप्रा देव का कहना है कि – “झारखंड में विशेष रूप से आदिवासी महिलाओं के भूमि और संपत्ति के संबंध में अब तक तय वैधानिक ताने-बाने  के कमजोर और निष्प्रभावी होने के पीछे कई कारण हैं जिसे कानून की शब्दावलियों से लेकर उसके  पूर्वाग्रहपूर्ण व्याख्या और सार्वजनिक  सामाजिक भेदभाव से लेकर प्रशासनिक अवमाननाओं तक देखा-समझा जा सकता है। झारखण्ड के आदिवासी क्षेत्रों में प्रथागत रीतियों के अंतर्गत परंपरागत जाति-निकायों के प्रमुख (जैसे मुंडा, मानकी  आदि) केवल पुरुष ही  होते आये हैं जहाँ महिलाओं के भूमि तथा संपत्ति के अधिकारों की चर्चा ही बेमानी है।” 

वास्तव में आदिवासी महिलाओं के संदर्भ में झारखण्ड मे जारी वैधानिक प्रावधानों  तथा  प्रथागत कानूनों की दोहरी व्यवस्था, महिलाओं के अधिकारों को जटिल बनाती हैं - और फिर सामाजिक व  संस्थागत बाधायें इस जटिलता को और अधिक बढ़ाती हैं।  

महिलाओं के भूमि और संपत्ति के  अधिकारों से संबंधित  मौजूदा कानूनों और प्रथाओं के आधार पर समाज और सामाजिक-पंचायतों के विवादपूर्ण निर्णय, लिये गये  इन निर्णयों के लिये पुरुष प्रधान सामाजिक प्रमुखों का होना और निर्णयों के माध्यम से महिलाओं पर लादी गयी प्रताड़ना एक ऐसा दुष्चक्र बन चुका है, जो इक्कीसवीं सदी मे अपने अधिकारों के लिये संघर्षरत महिलाओं के लिये विवादित फ़रमान जारी करता है । 

झारखंड में महिलाओं को शारीरिक-मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाले  'डायन कुप्रथा' पर पूर्ण प्रतिबंध  की घोषणा करते हुये वर्ष 2001 मे 'डायन प्रतिषेध अधिनियम' लागू किया गया।  दरअसल, महिलाओं को डायन ठहरा देने के नाम पर बरसों से जारी कुप्रथा की जड़ों में, भूमि और संपत्ति संबंधी विवाद ही अधिक हैं।  इसीलिये इस कुप्रथा की समाप्ति और दोषी लोगों पर दण्डात्मक  कार्यवाही के लिये लाये गये इस कानून का  सबने स्वागत किया।  किन्तु, इस कानून के दायरे में कितने लोगों पर दंडात्मक कार्यवाही हुई - इसकी संख्या ही  कानून को लागू करवाने वाले लचर तंत्र को बेनक़ाब करती है। 

झारखण्ड के प्रमुख दैनिक अख़बार 'प्रभात ख़बर' में 8 जनवरी 2021 को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 से अक्तूबर 2020 तक राज्य में डायन बिसाही के आरोप में 211 महिलाओं की हत्या की गयी है। झारखंड पुलिस के रिकॉर्ड  में वर्ष 2015 से अक्तूबर 2020 तक 4658 मामले डायन अधिनियम के अंतर्गत  विभिन्न जिलों के थानों में दर्ज किये गये हैं। यानी हर वर्ष डायन बिसाही के आरोप में प्रताड़ना और हत्या के औसतन 931 मामले सामने आते रहे  हैं। ग़ौरतलब है कि डायन के नाम महिलाओं को भूमि और संपत्ति के अधिकार से जुदा करने की साज़िश किसी से छिपी नहीं, बावजूद इसके राज्य द्वारा  दोषियों पर कार्यवाही न होने की लापरवाहियों ने महिलाओं को और अधिक कमजोर ही किया है। 

एकल नारी सशक्ति संगठन की निदेशिका  और झारखण्ड में महिलाओं के अधिकारों के लिये संघर्षरत बिन्नी जी का कहना है कि - "डायन के नाम पर महिलाओं को संपत्ति और भूमि के अधिकारों से जुदा करने की घटनायें  यह साबित करती हैं कि, पुरुषप्रधान सामाजिक ताने-बाने के मध्य  मौजूदा दंडात्मक व्यवस्था लगभग विफ़ल रही है।" ऐसे में मौजूदा प्रथागत कानूनों के दायरे में आदिवासी महिला को, भूमि और संपत्ति के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को  पाने के संघर्ष में समाज और सरकार दोनों के ही विरुद्ध खड़ा होना होता है।  

महिलाओं के भूमि अधिकारों को लेकर वर्ष 2012 में भारत सरकार के योजना आयोग  द्वारा यह कहा गया  कि आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने  के लिये स्थानीय संसाधनों पर महिलाओं के स्वामित्व को मजबूत किया जायेगा।  वर्ष 2017 में झारखण्ड उन चुनिंदा राज्यों में शामिल रहा जिसने सार्वजनिक घोषणा किया कि - यदि 50 लाख रूपए तक के भूमि संबंधी पंजीयन, महिलाओं के नाम पर किये जाते हैं तो राजस्व विभाग द्वारा मात्र एक रुपए का सांकेतिक स्टाम्प शुल्क लिया जायेगा। लेकिन मई 2020 तक आते-आते उसी झारखण्ड सरकार ने भूमि राजस्व के तथाकथित भारी नुकसान के राजनैतिक तर्कों के साथ इस प्रावधान को ही समाप्त कर दिया।  इस नीति का आना और खारिज कर दिया जाना उस पुरुषप्रधान व्यवस्था का प्रमाण है जिसे संवेदनशील, महज़ संवैधानिक प्रावधानों और राजनैतिक परियोजनाओं  से नहीं बनाया जा सकता है।  

झारखण्ड की  इमलिया, शांति, सुनीता और प्रमिला जैसी महिलायें उन पूर्वाग्रहों से ग्रसित व्यवस्था की आखेट बनीं, जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावज़ूद - अपने अधिकारों की आवाज़ बुलंद करने का साहस दिखाया था। समाज और सरकार की असंवेदनशीलता ने उन्हें केवल हताश ही नहीं किया बल्कि उन्हें यह मानने को मज़बूर भी किया कि, भूमि और संपत्ति के बराबरी के हकों की उनकी ख़्वाहिशें अधूरी ही रहेंगी।  उनकी जिंदगी और अधिकारों का यह अधूरापन, उस समूची आधी आबादी का एक ऐसा सत्य है, जो समाज और सरकार के ‘संविधान-निष्ठ  और नैतिक  न होने’ का सार्वजनिक प्रमाण  है।  अपनी ज़मीन  और ज़मीर के लिये बरसों से संघर्षरत  महिलाओं  के विरुद्ध  जारी अक्षम्य अन्याय को  समाप्त करने का नैतिक सामर्थ्य अब तो सरकार और समाज में होना ही चाहिये।   

(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं, यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं)