विकास

भूख और भूख सूचकांक को स्वीकारना जरूरी है!

भूख को जब समग्रता में नहीं देखा जाता है तब तथ्यों को नकारा जाता है। वैश्विक भूख सूचकांक के रिपोर्ट के साथ भी यही होता है

Sachin Kumar Jain

वैश्विक भूख सूचकांक में भारत को 121 देशों की सूची में 107 वें स्थान पर रखा गया है और इसे नकारने की बहुत कोशिशें हो रही हैं। वास्तव में भूख और खाद्य असुरक्षा के विषय को जरा खुले मन से और तार्किक बुद्धि से देखने की जरूरत होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि जो व्यक्ति भूख के साथ रहता है, वह भी अपनी गरिमा को संभालना चाहता है और भूखे रहते हुए भी यह सार्वजनिक घोषणा नहीं करना चाहता है कि मैं भूखा हूं या मेरा परिवार भूखा है।

मानव अपना गरिमा को भूख से ज्यादा महत्वपूर्ण तत्व मानता है। देश भी यह स्वीकार नहीं करना चाहता है कि उसके भूगोल में भूख का संकट मौजूद है। यह भी सच है कि जब देश में, उदाहरण के लिए भारत में, खाद्य असुरक्षा की स्थिति विद्दमान होती है, तब सरकारें उससे निपटने के लिए नीतिगत पहल भी करती हैं।

भारत में भी 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को हर महीने 5 किलो अनाज (केवल अनाज पूरा भोजन नहीं होता है) रियायती दर पर दिए जाने की कानूनी व्यवस्था है। लेकिन अगर भरपेट अनाज (यानी रोटी और चावल) मिल भी जाए तो भी व्यक्ति खाद्य असुरक्षा से मुक्त नहीं हो सकता है।

लेकिन इन तीनों ही स्थितियों में भूख को नकारे जाने से खाद्य असुरक्षा, कुपोषण और भुखमरी की वास्तविक स्थितियों का अंत तो नहीं ही होता है। अतः जरूरी है कि इस विषय को मानवीयता, वैज्ञानिक और राजनीतिक नज़रिए से समग्रता में देखा जाना चाहिए। 

भूख को जब समग्रता में नहीं देखा जाता है तब तथ्यों को नकारा जाता है। वैश्विक भूख सूचकांक के रिपोर्ट के साथ भी यही होता है। हमें खुद से यह सवाल पूछना जरूरी है कि क्या वेल्थुंगरहिल्फे और कंसर्न वर्ल्डवाइड नाम की ये दो संस्थाएं खुद तो भूख की स्थिति निर्मित नहीं करती हैं. वे तो बस उनका अध्ययन करके समाज और सरकार को अहसास कराती हैं कि भारत और भारतीयता के सामने सबसे बड़ा नैतिक सवाल “भूख और खाद्य असुरक्षा” का है।

भारत में आज वैश्विक भूख सूचकांक पर इतनी धारदार प्रतिक्रिया होने कारण यह है कि यहां राज्य और केंद्र व्यवस्था के संसाधनों (राजस्व) के खाते में से 13 हज़ार करोड़ रुपये का व्यय मंहगाई कम करने, कृषि क्षेत्र को मदद करने और कुपोषण प्रबंधन के बजाये मूर्तियाँ बनाने और धार्मिक स्थानों के निर्माण पर किया जा रहा है।

देश में एक अजीब किस्म का राजनीतिक-मनोरोग महामारी की तरह फ़ैल रहा है, अपने प्रचार का और मिथ्या कथानक बनाने का। ग्लोबल हंगर इंडेक्स इस विसंगति को उजागर करता है।

यह जरूरी है कि जिस भूख की स्थिति का आंकलन वैश्विक भूख सूचकांक में होता है, उसके वैज्ञानिक और तथ्यात्मक पहलुओं को जाना-समझा जाए। सबसे पहली बात तो यह है कि भूख और कुपोषण अपने आप में समस्या नहीं, बल्कि कई अन्य समस्याओं के कारण बनने वाली स्थिति है यानी ये परिणाम हैं।

जब जलवायु परिवर्तन के कारण आजीविका, पेयजल और स्वास्थ्य के की समस्याएं बहुत बढ़ जाती हैं या सम्मानजनक उचित मूल्य नहीं मिलने के कारण कृषि का संकट बढ़ता है, तब भूख की समस्या जन्म लेती है, जब लड़कियों, दलितों और आदिवासियों के साथ भेदभाव होता है, तब भूख का विकास होता है, जब लोगों के पास रोज़गार नहीं होता है, तब समाज और देश में भूख का विकराल रूप लेती है। जब लोगों से उनके संसाधन (पानी, जंगल, जमीन, पहाड़, लकड़ी, खनिज, मिटटी) छीने जाते हैं, तब भूख और कुपोषण की स्थिति निर्मित होती है। इन कारणों से पैदा हुई स्थिति का विश्लेषण वैश्विक भूख सूचकांक में होता है।

भूख का मतलब क्या?

ऍफ़एओ के अनुसार भूख एक असहज या दर्दनाक शारीरिक अनुभूति है जो आहार ऊर्जा की कम खपत के कारण होती है। जब व्यक्ति सामान्य, सक्रिय और स्वस्थ जीवन जीने के लिए नियमित रूप से पर्याप्त मात्रा में कैलोरी (आहार ऊर्जा) का सेवन नहीं करता है, तब यह दीर्घकालिक हो जाती है। यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलती जाती है। ऍफ़एओ ने दुनिया में भूख के स्तर का अनुमान लगाने के लिए अल्पपोषण संकेतक (अंडर-नरिशमेंट) की व्यापकता का उपयोग किया है,  इसी प्रकार "भूख" को “अल्पपोषण” के रूप में भी संदर्भित किया जा सकता है।

वैश्विक भूख सूचकांक मतलब क्या?

यह स्पष्ट करना बहुत जरूरी है कि वेल्थुंगरहिल्फे और कंसर्न वर्ल्डवाइड स्वयं कोई सर्वेक्षण नहीं करते हैं, बल्कि इस अध्ययन के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले चार सूचकों – अल्प पोषण, बच्चों में ठिगनापन और दुबलापन और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर के आंकड़ों का मूल्यांकन करके एक सूची में जमा देती हैं।

भारत में कितने लोग अल्पोषण (जिन्हें निर्धारित मात्रा में कैलोरी प्राप्त नहीं होती है) के साथ रहते हैं, दुनिया से सभी देशों में यह अध्ययन राष्ट्रीय सरकारों की सहमति से संयुक्त राष्ट्र संघ का खाद्य और कृषि संगठन (ऍफ़एओ) करता है। भारत में कितने बच्चे ठिगनेपन (जन्म के अनुसार लम्बाई/ऊंचार कम होना) और दुबलेपन (लम्बाई/ऊंचाई के अनुसार वज़न कम होना) का अध्ययन भारत सरकार राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के माध्यम से करती है। इसी तरह पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर का अध्ययन संयुक्त राष्ट्र संघ की इंटर-एजेंसी ग्रुप फार चाइल्ड मार्टेलिटी एस्टीमेशन द्वारा किया जाता है, जिसमें भारत की भागीदारी रहती है।

इन चारों सूचकों को इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि जब किसी भी देश या समाज में जलवायु परिवर्तन, मंहगाई, गरीबी, बेरोज़गारी, आर्थिक असमानता या किसी भी कारण से भूख की समस्या बढ़ती है, तो उसका परिणाम अल्प पोषण, बाल कुपोषण और बाल मृत्यु में दिखाई दे जाता है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स (2022) मुख्य रूप से यही बताता है कि कहीं न कहीं कुछ कारण हैं, जो भूख के संकट को मिटने नहीं दे रहे हैं। वास्तव में इस रिपोर्ट को नकार कर सरकार द्वारा केवल वास्तविकता और अपने ही अध्ययनों को नकारने का जतन किया जा रहा है। यह रिपोर्ट बहुत दुःख देती है, पीड़ा देती है, लेकिन हमें चेताती है कि देश की नीतियां न्यायपूर्ण और मानवीय मूल्यों के अनुरूप नहीं हैं।

भारत की स्थिति खराब क्यों है?

वैश्विक भूख सूचकांकों का वर्ष 2000 से 2022 के बीच अध्ययन करने से पता चलता है कि इन दो दशकों में तुलनात्मक रूप से भारत में कम बदलाव आया है।

वर्ष 2000 में भारत का सूचकांक 38.8 था, जो वर्ष 2014 में घट कर 28.2 पर आया था लेकिन वर्ष 2022 में इसमें बढ़ोतरी हुई है और अब यह 29.1 है। इन 22 सालों में सूचकांक में 25 प्रतिशत कमी हुई थी। इसकी तुलना में अंगोला में 60 प्रतिशत, माली में 44 प्रतिशत और कम्बोडिया में 58 प्रतिशत की कमी आई। इसका मतलब है कि भारत में आर्थिक विकास का लाभ कुछ लोगों/घरानों तक ही सीमित रहा है और वंचितपन बढ़ रहा है।

जो नीतियां और योजनायें संचालित की जा रही हैं, उनमें कुछ महत्वपूर्ण बदलाव करने की जरूरत है; मसलन राशन प्रणाली में दाल और तेल जोड़ना, मध्यान्ह भोजन और आंगनवाड़ी योजना में आवंटन को दो गुना करना और पोषण सुरक्षा के लिए सरकार के विभिन्न विभागों – कृषि, उद्यानिकी, जल संसाधन, शिक्षा, आदिवासी और अनुसूचित जाति विकास, वित्त, पर्यावरण, ग्रामीण विकास, शहरी विकास, खाद्य विभाग, स्वास्थ्य विभाग आदि की जवाबदेहिता सुनिश्चित करना जरूरी है. केवल महिला एवं बाल विकास विकास विभाग से कुछ न होगा। यह भ्रम अब त्याग देना चाहिए कि केवल प्रचार और अवास्तविक आंकड़ों को रचकर भूख और कुपोषण की वास्तविकता को छिपाया जा सकेगा।

संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य और कृषि संगठन के द्वारा नियमित रूप से यह बताया जाता है कि भारत की कितनी जनसँख्या को पर्याप्त भोजन नहीं मिल रहा है? वर्ष 2016-18 की अवधि में 17.36 करोड़ लोग अल्प पोषित थे, वर्ष 2017-19 की अवधि में यह संख्या 18.03 करोड़ हो गई, लेकिन ऍफ़एओ की वर्ष 2022 की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2019-21 की अवधि में यह संख्या बढ़कर 22.43 करोड़ हो गई। वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की स्थिति को प्रभावित करने वाला यही सबसे महत्वपूर्ण सूचक है। इसके दूसरी तरफ वर्ष 2017 में भारत में ठिगनेपन से प्रभावित बच्चों की संख्या 4.01 करोड़ थी, जो वर्ष 2020 में घटकर 3.61 करोड़ रह गई। लेकिन जब दुबलेपन (वास्टिंग) कुपोषण की बात की जाती है, तो भारत सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (5) के अनुसार इस वक्त भारत में 19.3 प्रतिशत बच्चे अल्पपोषित (कुपोषित) हैं और ग्लोबल हंगर इंडेक्स तथ्यों में बस यही जोड़ता है यह संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। वर्ष 2012-16 की अवधि में यह संख्या 15.1 प्रतिशत ही थी।    

देशी प्रमाण क्या बताते हैं?

भारत में पोषण से सम्बंधित नीतियों का आधार राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण होते हैं। इस सर्वेक्षण के पांचवे चक्र के विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में बच्चे भूख और कुपोषण के साथ रहना गर्भ में ही सीखते हैं। भारत सरकार का यही अध्ययन बताता है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (4; 2015-16) में 15 से 49 वर्ष के आयु वर्ग की 54.1 प्रतिशत महिलायें एनीमिया से प्रभावित थीं, यह संख्या राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (5; 2019-21) में बढ़कर 59.1 प्रतिशत हो गई। बच्चों में भी एनीमिया इसी दौरान बढ़कर 58.6 प्रतिशत से 67.1 प्रतिशत हो गया।

वास्तव में खाद्य और पोषण असुरक्षा एक बड़ी चुनौती है। भारत में जन्म के एक घंटे के भीतर माँ का दूध केवल 41.8 प्रतिशत बच्चों को ही मिलता है। वर्ष 2015-16 में यह स्तर 41.6 था। यानी पांच सालों में कोई बदलाव नहीं हुआ। इसके बाद सबसे ज्यादा कुपोषण तब बढ़ता है, जब बच्चों को छः महीने की उम्र का होने पर ऊपरी आहार मिलना शुरू नहीं होता है। भारत सरकार का अध्ययन बताता है कि अभी की स्थिति में 6 से 23 महीने की उम्र के केवल 11.3 प्रतिशत बच्चों को ही पर्याप्त ऊपरी पोषण आहार मिलता है, यानी लगभग 89 प्रतिशत बच्चे भूखे रहते हैं। क्या इन तथ्यों को भी सरकार खारिज करेगी?   

वैश्विक भूख सूचकांक (2022) की रिपोर्ट बताती है कि केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में पिछले 2 सालों में भूख की स्थिति में सकारत्मक बदलाव नहीं आया है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 46 देश सतत विकास लक्ष्य (2) को वर्ष 2030 तक हासिल नहीं कर पायेंगे। इसके तीन मुख्य कारण हैं – जलवायु परिवर्तन, देश के भीतर और अलग-अलग देशों के बीच हिंसक टकराव और युद्ध एवं कोविड19 महामारी के कारण अर्थव्यवस्थाओं में आई कमजोरी और बढती हुई मंहगाई; अतः जरूरी है कि भारत में भी भूख की स्थिति को नकारने के बजाये गंभीरता से स्वीकार किया जाए और बदलाव की पहल की जाए। 

भारत के लोग जिस संकट से जूझ रहे हैं, उसे समझना और हल करने की प्रतिबद्धता दर्शाना बहुत जरूरी है। हमें कुपोषण और भूख की स्थिति को स्वीकार करने की क्षमता विकसित करना चाहिए।