विकास

उत्तराखंड के लिए कितना फायदेमंद साबित होगा जीईपी?

उत्तराखंड में जीडीपी की तरह जीईपी का आकलन करने का निर्णय लिया गया है

Varsha Singh

वर्ष 2018 की उत्तराखंड जल संस्थान की रिपोर्ट बताती है कि तीन सालों में 500 में से 93 पेयजल आपूर्ति की परियोजनाओं में पानी निकलना लगभग 90 प्रतिशत कम हो गया है। इसी दौरान 268 परियोजनाओं में पानी की मात्रा 75-90 प्रतिशत तक कम हो गई है। जबकि 139 जल परियोजनाओं में में 50-75 प्रतिशत तक पानी की गिरावट आई है। नदियों का घर कहलाने वाले राज्य की ये स्थिति भविष्य के संकट की ओर इशारा करती है। इसीलिए जीईपी यानी ग्रॉस इनवायरमेंट प्रोडक्ट के आंकलन की अहमियत बढ़ जाती है।

केदारनाथ आपदा के बाद से ही उत्तराखंड में जीईपी के आंकलन का मुद्दा उठा। अब राज्य इस मुद्दे पर एक कदम और आगे बढ़ा है। 5 मार्च को देहरादून के डब्ल्यूआईआई में जीईपी के आंकलन के लिए पांच सदस्यीय कमेटी गठित की गई है। प्रमुख सचिव आनंद वर्धन की अध्यक्षता में बनी ये कमेटी जीईपी के आंकलन का तरीका तय करेगी। बैठक में ये तय किया गया कि चार प्रमुख तत्वों पानी, हवा, मिट्टी और जंगल के आधार पर जीईपी की गणना होगी। हर साल जीडीपी के साथ जीईपी रिपोर्ट भी तैयार की जाएगी। ताकि हमें अर्थव्यवस्था के साथ हमारे इकोसिस्टम के सेहत की स्थिति भी पता चले। इसमें ये भी बताया जाएगा कि जीईपी को सुधारने के लिए क्या प्रयास किए गए। मसूरी के लालबहादुर शास्त्री अकादमी में कमेटी की अगली बैठक होगी।

हिमालयन इनवायरमेंटल स्टडीज एंड कंजर्वेशन ऑर्गनाइजेशन (हेस्को) के अध्यक्ष अनिल जोशी ने ही सबसे पहले जीईपी की बात शुरू की। वह कहते हैं, पूरे देश में हर साल लगभग 4 हजार बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) पानी बरसता है और इसका सिर्फ 8 प्रतिशत पानी हम सहेज पाते हैं। तो जीईपी से हमें पता चलेगा कि हमने बारिश के पानी को सहेजने के लिए कितने तालाब, झील वाटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर बनाए। उदाहरण के तौर पर उत्तराखंड वन विभाग ने बताया है कि इस वर्ष 75 करोड़ लीटर पानी रिचार्ज किया है। इसी तरह यदि एक सड़क काटने के लिए 25 हजार पेड़ काटे तो जीईपी से हमें पता चलेगा कि उसके एवज में हमने कितने पौध रोपण किए और उसमें से कितने पौधे जीवित बचे।

अनिल जोशी कहते हैं कि जीईपी जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने की एक कोशिश होगी। हम जीईपी को जीडीपी से जोड़ने की कोशिश नहीं करने जा रहे। न ही उसके मौद्रिक मूल्य से कोई मतलब रखने जा रहे। फिलहाल हमें सिर्फ इस पर काम करना है कि एक साल में जंगल, हवा, पानी, मिट्टी और उसकी कितने बढ़े, जंगल की गुणवत्ता कितनी बढ़ी।

जबकि डायलॉग हाईवे के देविंदर शर्मा पर्यावरणीय सेवाएं देने वाले जंगल, नदी, पर्वत के मूल्य के आंकलन पर ज़ोर देते हैं। वह कहते हैं कि मौजूदा समय में जीईपी के आंकलन की सख्त जरूरत है। कैलाश पर्वत, गंगा नदी के आर्थिक मूल्य का आंकलन किया जा चुका है। इंडस रिवर बेसिन के लिए भी ये काम किया जा रहा है। जब हम आर्थिक नज़रिये से पर्वयावरण का आंकलन करेंगे तो फिर पर्यावरण को होने वाले नुकसान को भी समझ सकेंगे। जीईपी के ज़रिये ये बातें मुख्य धारा में आएंगी। अगर उत्तराखंड ये कर पाया तो अन्य राज्यों पर भी जीईपी के आंकलन का दबाव बढ़ेगा। हालांकि वह थोड़े आशंकित भी हैं कि वर्ष 2013 से जीईपी की बात हो रही है लेकिन अभी तक कुछ ठोस सामने नहीं आया।

बैठक में मौजूद केंद्र सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार प्रोफेसर के विजय राघवन ने जीईपी को समझने के लिए रियल टाइम डाटा तैयार करने पर ज़ोर दिया। जिसके आधार पर पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए भविष्य की नीति तैयार की जाएगी।