विकास

कितने और जोशीमठ?

हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले में भी एक जल विद्युत परियोजना की वजह से कई गांव भूधंसाव का सामना कर रहे हैं

DTE Staff

अजीत कुमार

पिछले कुछ महीनों से जोशीमठ काफी चर्चा में रहा है। कोई भी समाचार चैनल ले लीजिए या फिर कोई पत्रिका, जोशीमठ में आई आपदा के बारे में लिखा मिल जाएगा। अब सवाल यह उठता है कि ऐसे और कितने जोशीमठ हमारे भारत देश में मौजूद हैं।

बात हो रही है, हिमाचल प्रदेश के जिला चंबा के दूरदराज का कबायली क्षेत्र होली और इसके साथ लगते अन्य गांव की त्रासदी की। इन गांव की तबाही के मुद्दे को किसी भी मीडिया या फिर गैर सरकारी संगठनों ने उठाने की जरूरत नहीं समझी।

ऐसा नहीं है कि होली क्षेत्र और इसके साथ लगते गांव की तबाही जोशीमठ की तबाही से कम है, बल्कि सिर्फ और सिर्फ इस लिए कि यह क्षेत्र जोशीमठ की तरह एक पर्यटक क्षेत्र नहीं है, इसलिए इन गांवों का जिक्र मीडिया में नहीं हो रहा।

इन गांवों की तबाही की शुरुआत साल 2010 में हुई थी, जब देश की प्रतिष्ठित निर्माण कम्पनी जीएमआर ने इस क्षेत्र के साथ लगती रावी नदी पर बजोली होली हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट बनाने की शुरुआत की।

रावी नदी के दायीं तरफ लगता क्षेत्र हिमालय का कठोर चट्टानों वाला क्षेत्र है। जिसमें इंसानी बस्तियां बहुत कम बसी हैं। जबकि नदी के बायीं ओर लगता क्षेत्र मिट्टी वाला भू भाग है। जिसमें अनेक गांव बसे हुए हैं। इस क्षेत्र की 80 प्रतिशत भूमि कृषि योग्य है। इस भूमि पर यहां के लोगों की आर्थिकी की रीढ़, सेब के बगीचे हैं।

इस क्षेत्र के लोगों का दुर्भाग्य यह रहा कि पॉवर प्रोजेक्ट का निर्माण करने वाली जीएमआर कम्पनी ने सुरंग निर्माण के लिए सुरक्षित किनारे को छोड़कर भुरभुरी मिट्टी वाले रिहायशी इलाके को निर्माण के लिए चुना।

यहां के बाशिंदों को शुरू से ही आशंका थी कि इस क्षेत्र में निर्माण कार्य करना इस क्षेत्र की तबाही का कारण बन सकता है, अत: साल 2010 में जब बजोली होली हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट का निर्माण कार्य शुरू हुआ तो ग्रामीणों ने भारी विरोध किया। 

इस विरोध में अग्रणी भूमिका यहां की निरक्षर महिलाओं ने निभाई, जो अपने-अपने घरों को छोड़कर निर्माण स्थल पर आ डटी और कई महीनों तक दिन रात निर्माण स्थल पर डेरा जमाये रखा। 

विवश होकर कम्पनी को निर्माण कार्य रोकना पड़ा। ग्रामीणों को लगा कि उन्होंने आपने जन्मस्थली को बचा लिया है। यह केवल मात्र कुछ दिनों का सुकून था।

जब कम्पनी के अधिकारियों ने निर्माण के लिए जरूरी परियोजना प्रभावित क्षेत्रवासियों द्वारा हस्ताक्षरित अनापत्ति प्रमाण पत्र दिखाया तो प्रदर्शनकारियों के पांव तले जमीन खिसक गयी। लोगों को यह समझ ही नहीं आ रहा था कि परियोजना के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र उन्होंने कब दिया।

अब यह तो परियोजना के अधिकारी ही बता सकते थे कि यह प्रमाणपत्र उन्हें कैसे हासिल हुआ। प्रदर्शनकारियों को सुरक्षा बलों द्वारा बलपूर्वक निर्माण स्थल से हटा कर जेल में बंद कर दिया और उनके विरुद्ध एफआईआर दर्ज करवाई गयी।

निर्माण कार्य जोर-शोर से शुरू हुआ। हैड रेस टनल (एचआरटी) के निर्माण के लिए परियोजना अधिकारियों द्वारा तमाम सरकारी गाइडलाइंस से हट कर सुरंग निर्माण के लिए विस्फोट का सहारा लिया जा रहा था। रात को सोये हुए लोगों के घरों का हिलना, रसोई से अचानक बर्तनों का गिरना आम बात थी।

तमाम विरोधों के बाद मार्च 2020 में जब परियोजना ने कार्य करना शुरू किया तो जिसका डर था वही हुआ। परियोजना प्रभावित गांव झडौता के ठीक बीचों -बीच सुरंग से 500 लीटर प्रति मिनट की दर से पानी का रिसाव शुरू हो गया। बस यहीं से इस गांव की तबाही की गाथा लिखना शुरू हो गयी।

कई लोगों के घर टूट गये, जमीनें धंसना शुरू हो गयी, ग्रामीणों के सेब के बगीचे तबाह हो गये। परियोजना प्रबंधन की तमाम कोशिशों के बाबजूद पानी का रिसाव आज तक बंद नहीं हुआ है। जब लोगों ने आवाज उठाने की कोशिश कि तो उन्हें 10 से 15 हजार रुपए की फौरी राहत देकर शांत करा दिया गया। गांव में अभी भी भूमि कटाव व् लोगों के घरों का गिरने का क्रम जारी है।

इस परियोजना से क्षेत्र का पर्यावरणीय तंत्र भी काफी प्रभावित हुआ है। बर्षा चक्र अस्थिर हो चुकी है। कभी भारी बारिश तो कभी सूखा पड़ना आम बात हो चुकी है। लोगों की जमीनें बंजर हो चुकी हैं। कभी इस क्षेत्र में शर्दियों में लगभग 3 से 4 फुट बर्फ प्रति वर्ष पड़ती थी, परन्तु कुछ सालों से बर्फ पड़ना काफी कम हो चुकी है साल 2022-23 में इस क्षेत्र में बर्फ न के बराबर पड़ी है। लोगों की रोजी रोटी का जरिया, सेब बगीचे तबाह हो चुके हैं। मजबूर, हताश ग्रामीण खुले आसमान तले जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं।

लेखक राजकीय महाविद्यालय, भरमौर जिला चंबा, हिमाचल प्रदेश में लाइब्रेरियन हैं। लेख में प्रकाशित विचार व सूचनाएं की जिम्मेवारी उनकी स्वयं की हैं।