विकास

बिहार चुनाव में कितने प्रभावी रहे गरीबी और रोजगार के मुद्दे?

आज तय होगा कि बिहार के लोगों ने रोजगार, गरीबी जैसे मुद्दे को कितनी गंभीरता से लिया है

Umesh Kumar Ray

बिहार को आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत है ताकि यहां की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत के बराबर पहुंच सके।बिहार में प्रति व्यक्ति आय अन्य राज्यों के मुकाबले कम होने का जिक्र करते हुएबिहार आर्थिक सर्वेक्षण:2019-2020’ की रिपोर्ट में ये बातें कही गई हैं। 

बिहार आर्थिक सर्वेक्षण में और भी कई आंकड़े दिये गये हैं, जो लोगों की आर्थिक बदहाल के मामले में बिहार की एक निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं। मसलन आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में गरीबी की दर 33.7 फीसद है, जो राष्ट्रीय औसत से काफी ज्यादा है। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की दर शहरी क्षेत्रों के मुकाबले अधिक है। 

इसी तरह, सेंटर ऑफ मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि इस साल अप्रैल-मई में बिहार में बेरोजगारी की दर 46 प्रतिशत थी, जो इसी अवधि में राष्ट्रीय औसत (23.5%) का दोगुना रही।

इन आंकड़ों को सामने रखकर 7 नवंबर को खत्म हुए बिहार विधानसभा चुनाव को देखें, तो लगता है कि इस बार के चुनाव में बेरोजगारी और गरीबी मुख्य मुद्दा रही होगी। लेकिन, क्या सच में ऐसा हुआ है? क्या लोगों ने इस बार जात-जमात से ऊपर जाकर रोजगार और गरीबी के मसले पर ही वोट दिया है? इस तरह के सवाल अब उठ रहे हैं। 

हालांकि, इस पूरे चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने रोजगार को केंद्रीय मुद्दा बना कर चुनाव लड़ा और जीत होने पर पहली कैबिनेट में ही 10 लाख लोगों को नौकरी देने का वादा किया।

जानकारों का कहना है कि इस चुनाव में रोजगार और गरीबी-भुखमरी के मुद्दे पर ही चुनाव लड़ा गया और लंबे समय के बाद ऐसा हुआ है। 

एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से जुड़े प्रोफेसर डीएम दिवाकर ने डाउन टू अर्थ के साथ बातचीत में कहा, “इस बार का चुनाव निस्संदेह रोजगार और गरीबी के मुद्दे पर लड़ा गया है और इसके पीछे मुख्य वजह ये है कि बिहार में रोजगार की भारी किल्लत है और एक बड़ी आबादी गरीब है। विकास के तमाम पैमानों में बिहार निचले पायदान पर बना हुआ है।” 

बिहार को भौगोलिक रूप से चार हिस्सों में बांटा गया है- दक्षिण बिहार, उत्तर बिहा, मध्य बिहार और सीमाचंल। इनमें से हर हिस्से से कुछ जिले ऐसे हैं, जहां गरीबी चरम पर है। बिहार के 12 जिले प्रति व्यक्ति उत्पादन (जीडीपी) के मामले में फिसड्डी हैं। 

बिहार आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, कैमूर, अरवल, नवादा शिवहर, सीतामढ़ी, मधुबनी, बांका, सुपौल, मधेपुरा, कटिहार, अररिया और किशनगंज प्रति व्यक्ति उत्पादन में निचले पायदान पर हैं। इन जिलों में 70 से ज्यादा विधानसभा सीटें आती हैं। इनमें से उत्तरी बिहार और सीमांचल के जिलों में गरीबी के कारण पलायन भी खूब होता है। सीमांचल में तो चुनाव के बीच ही रोजाना बसों में सवार होकर लोग दूसरे राज्यों में काम करने के लिए रवाना हो रहे थे। मजदूरों का पलायन देखकर एक प्रत्याशी ने उन्हें मिन्नतें कर वोटिंग तक रोका था और रोजगार का भरोसा दिलाया था। सीमांचल में रोजगार और गरीबी का मुद्दा बहुत असरदार रहा। इसका असर चुनाव परिणाम में देखने को मिल सकता है। 

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में भी बिहार के कुछ जिलों में चरम गरीबी की बात कही गई है। रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के 6 जिलों सीतामढ़ी, भोजपुर, रोहतास, नालंदा, मुंगेर और जमुई में 47 से 72 प्रतिशत आबाद गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करती है। 

ऐसा नहीं है कि ये आंकड़े पिछले 2-3 सालों के दौरान बने हैं जानकारों का कहना है कि दशकों से कमोबेश ऐसी ही स्थिति रही है और इन दशकों में आंकड़ों में सुधार के लिए जो कुछ भी किया जाना था, वो किया नहीं गया। बिहार में सबसे ज्यादा 44.6 प्रतिशत रोजगार कृषि, वन और मत्स्यपालन से मिलता है, लेकिन इन सेक्टरों में अपेक्षित काम नहीं हुआ।

प्रैक्सिस: इंस्टीट्यूट ऑफ पार्टिसिपेटरी प्रैक्टिसेसके इंटरनल प्रोग्राम इनिशिएटिव के डायरेक्टर अनिंदो बनर्जी ने डाउन टू अर्थ को बताया, “जिस सेक्टर में सबसे ज्यादा रोजगार मिलता है, वो कृषि और उससे संबंधित दूसरे क्षेत्र हैं। बिहार का सकल घरेलू उत्पाद का विकास दर अच्छा रहा है, लेकिन प्राथमिक सेक्टर में विकास दर एक प्रतिशत से भी नीचे रहा। कृषि और उससे संबंधित सेक्टर में बहुत कुछ नहीं हो सका। यही वजह है कि यहां से भारी तादाद में पलायन होता है।” 

बिहार में रोजगार लम्बे समय से एक बड़ी समस्या रहा है, फिर इस बार ऐसा क्या हुआ कि अचानक इस मुद्दे के सामने दूसरे सभी मुद्दे हाशिये पर चले गये? इस सवाल का जवाब कोविड-19 संकट के कारण हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूरों की घरवापसी और यहां भी रोजगार की किल्लत में मिलता है।

अनिंदो बनर्जी बताते हैं, “पिछले कुछ महीनों में लॉकडाउन के कारण रोजगार का संकट खड़ा हुआ, जो स्पष्ट रूप से नजर आया। लोगों को लगा कि उनके पास रोजगार का कोई विकल्प नहीं है। रोजगार की तलाश में जो पलायन भी कर रहे थे, लॉकडाउन के चलते उनके लिए ये रास्ता भी बंद हो गया था। ऐसे में लोगों के सामने एक बड़ा संकट खड़ा हुआ था। शायद यही वजह रही कि इस बार रोजगार का मुद्दा चुनाव में हावी रहा।

डीएम दिवाकर मानते हैं कि बेरोजगारी बिहार के लिए बड़ा मुद्दा रहा है, लेकिन इस बार लॉकडाउन के कारण रोजगार छिन जाना और दूसरे राज्यों से लौटे कामगारों को यहां भी काम मिलना; इन दोनों ने उत्प्रेरक का काम किया, जिससे बेरोजगारी चुनावी मुद्दा बन गया।

आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, लॉकडाउन के दौरान दूसरे राज्यों से करीब 32 लाख लोग बिहार लौटे थे। अनधिकृत आंकड़े इससे दोगुने बताये जाते हैं।

दिवाकर कहते हैं, “कोविड-19 संकट के कारण जब परिवार के एक पुरुष सदस्य का रोजगार छिन गया, तो केवल उस पुरुष सदस्य पर असर नहीं पड़ा, बल्कि उस पर आश्रित पूरा परिवार ही प्रभावित हुआ। इस हिसाब से देखा जाये, तो बिहार की एक बड़ी आबादी के लिए रोजगार सबसे बड़ी चिंता थी।