विकास

लुटता हिमालय: प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए संतुलित पहल की आवश्यकता

क्षेत्र के पर्यावरण और लोगों के आर्थिक लाभ के बीच एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है। आपदाओं को पूरी तरह से रोक पाना संभव नहीं है, लेकिन पहले से की हुई तैयारियों और योजनाओं से क्षति को कम किया जा सकता है

DTE Staff

आर्थिक दृष्टि से पर्यटन भारत के सबसे बड़े सेवा उद्योगों में एक होने के साथ-साथ “मेक इन इंडिया” कार्यक्रम का एक अभिन्न हिस्सा भी है। 2021 में भारत के रोजगार क्षेत्रों में करीब 3.9 करोड़ लोग पर्यटन के क्षेत्र में काम करते थे जो देश के कुल रोजगार का आठ प्रतिशत था। 2029 तक यह रोजगार क्षेत्र का आंकड़ा बढ़कर तकरीबन 5.3 करोड़ हो जाने की संभावना है। एक महत्वपूर्ण आर्थिक गुणक होने के नाते पर्यटन के विकास और विस्तार को आमदनी बढ़ाने और जनसंख्यिकी लाभांश की दृष्टि से बड़े पैमाने पर रोजगार के नए अवसर निर्मित करने वाले एक महत्वपूर्ण व्यवसाय के रूप में देखा जाता है। पर्यटन उद्योग का अपने गंतव्य क्षेत्र पर एक व्यापक और बहुक्षेत्रीय प्रभाव पड़ता है क्योंकि यह पर्यटकों की बुनियादी भौतिक सुविधाओं और सरकार के राजस्व-लाभ से सीधा संबद्ध है। चूंकि पर्यटन का सीधा संबंध देश के सामाजिक, आर्थिक और परिस्थितिकी-कल्याण से है, इसलिए यह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में विकास के सभी लक्ष्यों से भी संबंधित है। विशेष कर लक्ष्य- 8 (टिकाऊ, समावेशी और मौजूदा आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना) और लक्ष्य - 12 (इस्तेमाल किये जाने योग्य उत्पादन के पैटर्न को सुनिश्चित करना) जैसे लक्ष्यों से तो इसका सीधा जुड़ाव है।

एक वैश्विक जैवविविध हॉटस्पॉट और जलवायु की दृष्टि से संवेदनशील हिमालय क्षेत्र 10,500 प्रकार के फूलों की प्रजातियों का विशालतम प्रांगण रहा है जो उप-ऊष्णकटिबंधीय तलहटियों से लेकर उच्च अल्पाइन जलवायु क्षेत्र तक विस्तृत है। आदिकाल से यह प्रदेश अपनी विराटता, विस्तार, भव्यता, समाज-संस्कृति, विशाल संसाधनों और जनसांख्यिकी परिदृश्य की दृष्टि से मनुष्य के आकर्षण का बिंदु रहा है। इसके अलावा पारंपरिक स्थानीय ज्ञान, कर्मकांड, पौराणिकता, आदर्श और प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से इस भूक्षेत्र का विशिष्ट महत्व रहा है।

उपरोक्त कारणों और कई अन्य कारणों से दुनिया भर से लोग भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से प्रेरित होकर हिमालय-क्षेत्र में घूमने आते हैं। इन उद्देश्यों में शोध, पर्यटन, अनुसंधान, आध्यात्म, तीर्थाटन और पर्वतारोहण जैसे साहसिक अभियान आदि प्रमुख हैं। गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र नदियों का सम्मिलित घाटी-प्रदेश होने के कारण मानव-सभ्यता और दुनिया की जनसांख्यिकी को अंतिम रूप देने में इसकी प्रेरक-भूमिका रही है। अपने उद्गम-स्थल से लेकर अपने गंतव्य वाले कछार तक यह 65.3 करोड़ लोगों की जीवनरेखा के रूप में प्रवाहित होती है और उनके अस्तित्व, आजीविका और सुरक्षा के लिए अनिवार्य पारिस्थितिकी-तंत्र और दूसरी सुविधाएं देने का काम करती है। भूगर्भीय दृष्टि से हिमालय का निर्माण अपेक्षाकृत एक नई परिघटना है। भारतीय प्लेट और यूरेशियन प्लेट के एक-दूसरे से टकराने से कोई 5 करोड़ साल पहले इस पर्वतमाला का जन्म हुआ था। इस टकराव के आवेग को हिमालय की दक्षिणी सीमाओं ने यथासंभव न्यूनतम करने का प्रयास किया और इसी कारण हिमालय की ऊंचाई में प्रतिवर्ष 5 मिलीमीटर की दर से आज भी वृद्धि हो रही है। परिणामस्वरूप यह पूरा भूभाग भौगोलिक रूप से अस्थिर और भूकंप की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है।

भूगर्भ की कार्बनिक सक्रियताओं और अपक्षरण की प्रक्रियाओं के फलस्वरूप ऊंचाइयों में अत्यधिक असमानताएं और हिमोढ़ तथा रूपांतरित चट्टानों से निर्मित उबड़-खाबड़ उच्चावतल, हिमालय की ढलानों की विशेष पहचान हैं। दुनिया की सबसे नई और ऊंची पर्वतमाला (इसकी 30 से भी अधिक चोटियां ऊंचाई में 7,600 मीटर से अधिक हैं, जो अभी भी निरंतर ऊंची होती ही जा रही हैं) होने और प्राकृतिक/मानवजनित गड़बड़ियों के कारण हिलामय का पूरा भूभाग प्राकृतिक दृष्टि से अस्थिर, कमजोर, संवेदनशील और खतरनाक है। भौगोलिक बनावट, भूकंप की अतिशय आशंका और उच्च वर्षा-दर– इन तीनों कारकों ने एक साथ हिमालय को भूकंप, भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं की दृष्टि से अतिसंवेदनशील बना दिया है। यही कारण है कि हिमालय का अग्रवर्ती क्षेत्र जो पश्चिम में चमन फॉल्ट और उत्तर में सिंधु-त्संगपो संधि-क्षेत्र से घिरा है, भूगर्भीय दृष्टि से इस अंतरमहाद्वीप का सबसे सक्रिय भूकंपीय प्रदेश समझा जाता है।

एशिया के भूभाग और निरंतर उत्तर की तरफ बढ़ते भारतीय प्लेट के बीच फंसे होने के कारण हिमालय का भूभाग लगातार एक कठोर दबाव के अंतर्गत रहता है। दबाव का यह क्षरण प्रायः हिमालय की परतों के फटने के रूप में हमारे सामने घटित होता है। एक आकलन के अनुसार 60 प्रतिशत हिमालय-क्षेत्र ने स्वयं में इतनी अधिक मात्रा में लोचदार ऊर्जा समाहित कर रखी है कि वह पांच से लेकर आठ की तीव्रता तक अत्यंत बड़े और विनाशकारी भूकंपों को तुलनात्मक रूप में सहनीय बना सकती है। चूंकि भूकंप के कारण एक ऊर्ध्वगामी और क्षैतिज- दोनों ही रूपों में भूमि की जटिल गतिशीलता पैदा होती है इसीलिए हिमालय के अधिकांश कृत्रिम निर्माण-कार्य और खड़ी ढलानें पर्याप्त लचीलेपन से अपेक्षित विनाश से बची रह गईं। यह प्रदेश अन्य प्राकृतिक आपदाओं– मसलन हिमस्खलन, ग्लेशियरों के अकस्मात पिघलने से अचानक आई बाढ़, बड़े पैमाने पर होने वाले भूस्खलन और बादल फटने जैसी त्रासदी की दृष्टि से भी अत्यंत संवेदनशील है। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) की संस्था स्नो एंड एवलांच स्टडी इस्टैबलिश्मेंट्स (एसएएसई) के अनुमान के मुताबिक, प्रत्येक साल इंडियन हिमालयन रीजन में हिमस्खलन की घटना से लगभग 30 लोग मारे जाते हैं। इसी तरह जीएलओएफएस की घटनाओं में भी वृद्धि दर्ज की गई है। इसका एक कारण जलवायु परिवर्तन है भी जिसकी वजह से हिमालय के निचले भूक्षेत्रों में जानमाल की क्षति और वन्यजीवन तथा पहाड़ों के बेशकीमती संसाधनों के विनाश जैसी घटनाएं होती हैं।

भारत सरकार ने योजना आयोग की 11वीं पंचवर्षीय योजना में सुदूर और पिछड़े क्षेत्रों के आर्थिक विकास और रोजगार-निर्माण की दृष्टि से पर्यटन का उल्लेख देश के सबसे बड़ा सेवा उद्योग के रूप में किया था। इसी प्रकार, 12 वीं पंचवर्षीय योजना ने समावेशी विकास के उद्देश्य से गरीब-समर्थक पर्यटन को चिन्हित किया था। साथ ही भारत सरकार की “स्वदेश दर्शन” योजना के अंतर्गत थीम-आधारित पर्यटक-सर्किट को विकसित करने की परियोजना की शुरुआत की थी। इन 15 थीम-आधारित सर्किट में पूर्वोत्तर सर्किट, ईको-सर्किट और स्प्रिचुअल सर्किट जैसी कुछ योजनाएं आईएचआर (इंडियन हिमालयन रीजन) के अधीन भी आती हैं। 19 चिन्हित स्थलों में असम के काजीरंगा नेशनल पार्क को एक अति महत्वपूर्ण स्थल के रूप में चिन्हित किया गया है । पर्यटन मंत्रालय ने पर्यटन को विकसित और प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से सभी पूर्वोत्तर राज्यों को शामिल करते हुए स्वदेश दर्शन और नेशनल मिशन ऑन पिल्ग्रिमेज रिजुविनेशन एंड स्प्रिचुअल हेरिटेज ऑगमेंटेशन ड्राइव (प्रशाद) योजना के अंतर्गत 1,456 करोड़ रुपए (211.35 मिलियन अमेरिकी डॉलर) की लागत की 18 परियोजनाओं को अपनी मंजूरी दी है। इन सभी परियोजनाओं के कारण हिमालय-क्षेत्र में पर्यटन विकास की गति तेज हुई है जिसका असर स्थानीय अर्थव्यवस्था, स्थानीय समुदायों और पर्यावरण पर स्पष्ट दीखता है। हालांकि इसके दुष्प्रभाव घाटी और नदी के तटीय इलाकों में बदतर होते कचरा-प्रबंधन, परिशोधन की अपर्याप्त क्षमता और भूमि, मिट्टी, जल और हवा के प्रदूषण के रूप में भी दिखते हैं।

यहां दांव पर हिमालय-क्षेत्र का पर्यावरण और उसके प्राकृतिक संसाधन लगे हैं। यह यथार्थ केवल हिमालय का नहीं बल्कि दुनिया के उन सभी भूभागों का है जो पारिस्थितिकी की दृष्टि से इतने ही संवेदनशील हैं I इन तथ्यों को विचार में रखते हुए नीति-नियंताओं के लिए यह एक चुनौतियों से भरा काम है कि विकास और संरक्षण के बीच न्यायसंगत संतुलन बनाते हुए कार्य-योजनाओं का निर्माण करें। वर्तमान समय में हिमालय से स्थानीय लोगों का बहुत तेज पलायन हो रहा है। ऐसे में यहां युवाओं के लिए पर्यटन के क्षेत्र में भाग्य आजमाने के अवसरों की कोई कमी नहीं है। यह अक्सर देखा गया है कि पर्यटन को मुख्यतः गिनती के लोगों के मुनाफे के स्रोत पर केन्द्रित किया जाता रहा है और वे गिनती के लोग भी इस इलाके से बाहर के लोग हैं। लेकिन इसके सामाजिक और पर्यावरण संबंधी दुष्प्रभाव मुख्यतः स्थानीय समुदायों को झेलना पड़ता है। इसलिए भी हिमालय-क्षेत्र के पर्यावरण और लोगों के आर्थिक लाभ के बीच एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

प्राकृतिक आपदाओं को पूरी तरह से रोक पाना तो संभव नहीं है, लेकिन पहले से की हुई तैयारियों और योजनाओं से क्षति को कम अवश्य किया जा सकता है। भवन निर्माण से संबंधित कानून को लागू करने, कमजोर क्षेत्र के लिए प्रतिकूल परियोजनाओं पर प्रतिबंध लगाने और भूगर्भीय दृष्टि से अनुकूल परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए जरूर कानून बनाने की आवश्यकता पर बल दिया जाना चाहिए। हिमालय-क्षेत्र के राज्यों को इन तथ्यों को नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है। उसी तरह आपातकालीन विस्थापन का अभ्यास, वस्तुस्थिति पर निगरानी, बादल फटने जैसी घटना का पूर्वानुमान लगाने में सक्षम डोपलर राडार जैसी चेतावनी देने वाले यंत्र तथा दूसरी तकनीकों में स्थानीय लोगों की पूरी रूचि और सहभागिता भी आवश्यक है।

चूंकि भारत जी-20 देशों के राष्ट्राध्यक्षों के मेजबानी करने जा रहा है, इसलिए उत्तरदायी पर्यटन के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण को प्रोत्साहित करना और दीर्घकालिक विकास की शर्तों पर खरा उतना आवश्यक है। इस दृष्टि से इस नाजुक पारिस्थितिकी-तंत्र में प्राकृतिक संसाधनों के अभिरक्षण के लिए एक संतुलित पहल की बेहद आवश्यकता है।