इलेस्ट्रेशन: योगेंद्र आनंद 
विकास

दुनियाभर में भरोसा खो रही हैं सरकारें!

सरकारों में भरोसे की कमी राष्ट्रीय और वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था में सुधार की इच्छा का प्रतिबिंब है

Richard Mahapatra

इस साल दुनिया का हर दूसरा नागरिक सरकार चुनने के लिए अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेगा। ऐसे समय में इस बहस ने भी जोर पकड़ लिया है कि क्या हम अपनी चुनी हुई सरकारों पर विश्वास करते हैं?

सभी राजनीतिक दल मतदाताओं से वादे करते हैं। उदाहरण के लिए भारत में हाल ही में संपन्न हुए आम चुनावों के दौरान कुछ दलों ने जहरीले और विभाजनकारी चुनाव अभियान चलाने के बावजूद मतदाताओं को गारंटी पत्र जारी किए थे।

ऐसे राजनीतिक दलों को यूरोप, अमेरिका और एशिया में लोगों द्वारा चुना जा रहा है है। हाल ही में चुनी गईं अधिकांश सरकारों ने सांप्रदायिक-सामुदायिक आधार और साथ ही आर्थिक मोर्चे पर भी ध्रुवीकरण एजेंडे को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाया है।

लोगों ने उनके एजेंडे पर मतदान भी किया है। इसलिए कोई यह मान सकता है कि चुनाव जीतने वाली राजनीतिक दल के पास अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए जनादेश है। चुनी हुईं सरकारें अपने कामों को इसी जनादेश के आधार पर वैध भी ठहराती हैं।

लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या ऐसी सरकारों पर लोगों को भरोसा है? हाल ही में अर्थ4ऑल द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण इन प्रश्नों के उत्तर टटोलने में मदद मिलती है। आर्थिक जानकारों, वैज्ञानिकों और अधिवक्ताओं के इस समूह ने जी20 देशों (भारत सहित) में अपनी सरकारों पर भरोसे के बारे में सर्वेक्षण के निष्कर्ष जारी किए हैं।

सर्वेक्षण में क्या अमीरों पर अधिक कर लगाया जाना चाहिए और क्या लोगों को भरोसा है कि उनकी सरकार ग्रह को पर्यावरणीय संकट से बचाने के लिए पर्याप्त काम कर रही है, जैसे प्रश्न भी शामिल थे। सर्वेक्षण में जी20 देशों के 22,000 लोगों से राय मांगी गई, जो दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में 85 प्रतिशत का योगदान करते हैं। अर्थ4ऑल के सर्वेक्षण में पाया गया कि केवल 39 प्रतिशत लोगों का मानना है कि उनकी “सरकार पर बहुसंख्यक लोगों की भलाई हेतु निर्णय लेने के लिए भरोसा किया जा सकता है।”

जब उनसे पूछा गया कि क्या लंबी अवधि (20-30 साल) में ऐसे लाभकारी निर्णय लेने के लिए सरकार पर भरोसा किया जा सकता है तो केवल 37 प्रतिशत लोगों ने हां में उत्तर दिया। सरकार पर यह भरोसे की कमी राष्ट्रीय और वैश्विक दोनों राजनीतिक व्यवस्था में सुधार की लोगों की इच्छा को दर्शाती है। सर्वेक्षण में शामिल लगभग दो-तिहाई लोग अपने देश की राजनीतिक प्रणाली में बदलाव चाहते थे। लगभग 30 प्रतिशत लोगों ने अपनी राजनीतिक प्रणाली में “पूर्ण” सुधार की जरूरत महसूस की।

सर्वेक्षण में भारत की राजनीतिक व्यवस्था में लोगों के भरोसे के बारे में भी रोचक जानकारी मिली। बहुसंख्यकों के लिए निर्णय लेने के लिए सरकार पर भरोसा करने के सवाल पर सर्वेक्षण में शामिल 74 प्रतिशत भारतीयों ने दृढ़ विश्वास दिखाया। लंबे समय में उपयुक्त निर्णय लेने के लिए सरकार पर लगभग समान स्तर का भरोसा देखा गया।

देश को चलाने के लिए कौन सी राजनीतिक व्यवस्था ठीक होगी? इस सवाल पर 87 प्रतिशत लोगों ने “विशेषज्ञों द्वारा देश के लिए जो सबसे अच्छा लगता है, उसके अनुसार निर्णय लेने” के लिए वोट दिया। हालांकि, 86 प्रतिशत लोगों ने “लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था” के लिए वोट दिया।

सर्वेक्षण में शामिल निम्न आय वाले परिवारों में से 83 प्रतिशत ने विशेषज्ञों द्वारा संचालित प्रणाली पर भरोसा दिखाया, जबकि 79 प्रतिशत ने लोकतांत्रिक प्रणाली पर भरोसा दिखाया, जो सर्वेक्षण में दर्ज कुल आंकड़े (86 प्रतिशत) से काफी कम है।

अर्थ4ऑल की कार्यकारी अध्यक्ष सैंड्रिन डिक्सन-डेक्लेव का कहना है कि यूरोप में सरकार पर अविश्वास उल्लेखनीय है। वह इस अविश्वास को एक अन्य महत्वपूर्ण निष्कर्ष के संदर्भ में देखती हैं। उनके मुताबिक, दो तिहाई से अधिक उत्तरदाताओं ने महसूस किया कि जी20 देशों की आर्थिक प्राथमिकता केवल लाभ और धन के बजाय स्वास्थ्य, आमजन का कल्याण और प्रकृति होनी चाहिए।

वह कहती हैं, “हाल ही में यूरोपीय चुनाव कट्टरपंथ की ओर बढ़ रहे हैं, इसलिए हमें सरकारों को एक ऐसी अर्थव्यवस्था शुरू करने के लिए जवाबदेह ठहराना होगा जो लोगों और धरती दोनों की एक साथ सेवा करे।”

अर्थ4ऑल पहल से जुड़े एक अन्य अहम शख्स ओवेन गैफनी ने निष्कर्षों का सारांश देते हुए कहा, “हमने दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में जिन लोगों का सर्वेक्षण किया, उनमें से अधिकांश का मानना है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने और प्रकृति की रक्षा के लिए इस दशक में बड़ी तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। साथ ही कई लोगों को लगता है कि अर्थव्यवस्था उनके लिए काम नहीं कर रही है और वे राजनीतिक और आर्थिक सुधार चाहते हैं। संभव है कि इससे लोकप्रिय नेताओं के उभार को समझने में मदद मिले।”