विकास

डाउन टू अर्थ खास: इंसानों के जी का जंजाल बनी शहरों में बढ़ती कबूतरों की संख्या, कैसे होगा समाधान

भोजन की सहज उपलब्धता और तेज प्रजनन-क्षमता जैसे विविध कारणों ने पूरे भारत में हाल- फिलहाल के सालों में कबूतरों की संख्या को बहुत तीव्रता से बढ़ाने में मदद की है

Rajat Ghai, Himanshu Nitnaware, Taran Deol

जानवरों की कुछ प्रजातियों के साथ मनुष्य की आत्मीयता होती है। शायद यही वजह है कि आवारा कुत्ते, बंदर और कबूतर हमेशा से भारतीय जीवन का हिस्सा रहे हैं। मगर, हाल के दशकों में शहरों में इनकी संख्या में भारी इजाफा हुआ है और इनकी तादाद इतनी अधिक बढ़ गई है कि मानव सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो गया है। कुत्ते व बंदर के काटने से रेबीज जैसे जूनोटिक रोग व कबूतर की बीट के चलते फेफड़े से संबंधित बीमारियों में जिस तरह की बढ़ोतरी हो रही है, वैसी पहले कभी नहीं हुई। शहरों में रहने वाली इन प्रजातियों के व्यवहार में भी काफी बदलाव देखने को मिल रहा है। ये शहरी व्यवस्था के अनुरूप खुद को ढाल रहे हैं। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए उनकी संख्या को नियंत्रित करना शायद पर्याप्त नहीं है। इसके लिए मानव को अपने व्यवहार में भी बदलाव की जरूरत है ताकि ये उदार जानवर शहर के लिए खतरा न बनें। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, क्या आवारा कुत्ते इंसानों के मददगार साबित हो रहे हैं या मुसीबत बन गए हैं? । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, बंदरों से प्यार जताएं या गुस्सा । पढ़ें तीसरी कड़ी- 

दिनकर पॉल अपने दिन की शुरुआत एक खास दस्तूर के साथ करते हैं। दिल्ली के चितरंजन पार्क इलाके में सब्जियों और फल के विक्रेता पॉल बाजार की पार्किंग वाली खाली जगह पर जाते हैं और जमीन पर एक मुट्ठी बाजरा बिखेर देते हैं। देखते ही देखते वहां सैकड़ों की संख्या में कबूतर और कौवे इकट्ठे हो जाते हैं। पॉल के भाई बलराम डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “उन्हें चिड़ियों और जानवरों से बहुत लगाव है।” दूसरी तरफ, सड़क के उस पार अनिर्बान भद्र अपने परिवार के साथ रहते हैं। उन्हें इन कबूतरों से बहुत परेशानी होती है क्योंकि वे अपनी बीटों से उनके घर को बहुत बहुत गंदा कर देते हैं। वे डाउन टू अर्थ से कहते हैं, “मेरे दो छोटे-छोटे बच्चे हैं और मुझे हमेशा यह डर लगा रहता है कि उनमें से किसी ने भी अगर दुर्घटनावश उस बीट को मुंह में ले लिया तब क्या होगा, कबूतर हमारे लिए एक बड़ी समस्या हैं।”

लेकिन मुंबई के पश्चिमी कांदिवली इलाके में रहने वाले जिगना गोपानी के लिए कबूतर किसी मौत के हरकारे से कम नहीं हैं। गोपानी डाउन टू अर्थ को बताती हैं, “यह जुलाई 2019 की बात है जब मुझे सांस लेने में बहुत परेशानी होने लगी। दो दिनों तक मुझे लगातार तेज खांसी आती रही और तेज बुखार भी रहा।” बाद में ब्लड टेस्ट, एक्स-रे और सीटी स्कैन जैसी कई जांचों से गुजरने के बाद डॉक्टर इस नतीजे पर पहुंचे कि गोपानी फेफड़ों की एक गंभीर बीमारी, हाइपरसेंसिटिविटी न्युमोनाइटिस से पीड़ित थीं जिसके कारण उनके फेफड़ों में धब्बे हो गए थे और उनको सांस लेने में बहुत तकलीफ होती थी। वैज्ञानिक किताबों मंंे बताया गया है कि यह बीमारी फेफड़ों की एक प्रतिरक्षात्मक प्रतिक्रिया से संबन्धित है जिसके कारण फेफड़ों को किसी एंटीजन या एलर्जन को सांस के साथ बार-बार अपने भीतर लेना पड़ता है। कबूतर का बीट एक सामान्य एंटीजन होता है।

चूंकि यह एक लाइलाज बीमारी है, इसलिए गोपानी को अब पूरी जिंदगी स्टेरॉयड या प्रतिरक्षादमनकारी (इम्यूनोस्प्रेसेंट्स) दवाओं पर निर्भर रहना होगा। गोपानी यह ठीक-ठीक नहीं जानती हैं कि उन्हें यह बीमारी कैसे हुई। उन्होंने कभी कबूतरों को दाना नहीं खिलाया। वह बताती हैं, “लेकिन दूसरी इमारतों की तरह कबूतर हमारी बिल्डिंग में भी हर तरफ भरे हुए हैं और उनकी बीट भी फैली हैं।” बहरहाल फेफड़ा संबंधी रोगों के विशेषज्ञ इस बिंदु पर एकमत हैं कि हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस के बढ़ते हुए मामलों के लिए कबूतर जिम्मेदार हैं। मुंबई की छाती संबंधी रोगों की विशेषज्ञ डॉ. नम्रता जसानी कहती हैं कि पिछले 10-15 सालों में महानगर में इस बीमारी से संबंधित मामलों में पांच गुणा अधिक बढ़ोतरी हुई है और इसका सीधा संबंध कबूतरों की तादाद में बेतहाशा वृद्धि से है। दिल्ली विश्वविद्यालय के “बायोडायवर्सिटी पार्क्स प्रोग्राम ऑफ सेंटर फॉर एनवायरनमेंट मैनेजमेंट ऑफ डिग्रेडेड इकोसिस्टम्स” (सीईएमडीई) में वैज्ञानिक फैयाज खुदसर कहते हैं, “कबूतर अपनी बीट अथवा पंखों में बाह्य परजीवियों के माध्यम से पशुजन्य कीटाणु को फैलाने के लिए बदनाम हैं।” हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस के अलावा कबूतरों की बीट से क्रिप्टोकोक्कल मैनिंजाइटिस (एक प्रकार का फंगल संक्रमण जो फेफड़ों से शुरू होकर मानव-मस्तिष्क तक फैलता है और इसके लक्षण संभ्रम और मानव-व्यवहार में परिवर्तन के रूप में प्रकट होते हैं) और सिटैकोसिस (एक बैक्टेरियल संक्रमण जिसमें रोगी की स्थिति न्यूमोनिया जैसी हो जाती है) जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं। खुदसर कहते हैं, “कोई भी व्यक्ति इनमें से किसी भी रोग से संक्रमित हो सकता है क्योंकि कबूतरों का मल-पदार्थ लगभग हर कहीं पर है, चाहे सड़क हो या मिट्टी हो। उन घोसलों में तो उसे निश्चित मिलना है जिन्हें कबूतर हमारे घरों में बनाते हैं। चूंकि मल-पदार्थ हवा में भी उपस्थित होते हैं इसलिए ये हमारे फेफड़ों में भी पहुंच जाते हैं।

शहरी क्षेत्रों में इसका दुष्प्रभाव बढ़ाने में प्रदूषित हवाओं का बड़ा योगदान है।” साथ ही उनका कहना है कि एक कबूतर प्रतिवर्ष लगभग 12 से 15 किलोग्राम के बराबर मल का उत्सर्जन कर सकता है। 2019 में लंग इंडिया नाम के एक जर्नल में प्रकाशित अध्ययन ने 2012 से 2015 के बीच 19 शहरों में इंटरस्टिशल लंग डिजीज (आईएलडी) के रोगियों के आंकड़ों को विश्लेषित करने के बाद यह पाया कि बहुसंख्य रोगी एयर कंडीशनर का उपयोग करने के आदी थे, लेकिन अन्य कारणों की तुलना में पक्षियों से संक्रमित होने वाले आईएलडी के रोगियों की संख्या सबसे अधिक थी। दूसरी तरफ पिजंस: दी फैशिनेटिंग सागा ऑफ दी वर्ल्डस मोस्ट रिविर्ड एंड रिवाइल्ड बर्ड जैसी पुस्तक के लेखक एंड्रू डी. ब्लेचमैन कहते हैं, “कबूतर कोई संकट नहीं हैं। अगर इनकी संख्या अप्रत्याशित रूप से बड़ी है तो इसके लिए एकमात्र उत्तरदायी मनुष्य हैं। उनकी आबादी तभी बेतहाशा बढ़ती है, जब हम उन्हें अधिक खिलाते हैं।” संगठनों के संघ बर्ड काउंट इंडिया के अश्विन विश्वनाथन भी इस बात से सहमत हैं। वह कहते हैं कि कबूतरों ने तीन कारणों से अपने आप को भारतीय शहरों के अनुकूल ढाल लिया है। पहला, वे शहरों और आसपास के इलाकों में उपलब्ध कोई भी सामान्य खाना खाकर जीवित रह सकते हैं। दूसरा वे कहीं भी अपना घोंसला बना लेते हैं।

शहरी इलाकों में दिखाई देने वाले कबूतर मूलतः रॉक डव या रॉक पिजन या कोलंबा लिविया के वंशज होते हैं और घोंसला बनाने के लिए उन्हें कोई भी सामान्य जगह चाहिए होती है। शहर की ऊंची इमारतें इस दृष्टि से उपयुक्त हैं। तीसरा, दूसरे अन्य पक्षियों के विपरीत कबूतर साल भर एक ही बसेरे में रहते हैं। विश्वनाथन बताते हैं भारत में पिछले 25 वर्षों में कबूतरों की आबादी में 100 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि दूसरी तरफ अधिकतर पक्षियों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई। इसके अलावा शहरी इलाकों में उनका कोई स्वाभाविक शिकारी नहीं है। कबूतर अगर सचमुच आम लोगों की सेहत के लिए खतरा हैं तो इस खतरे को कम करने के लिए क्या उपाय हैं? डाउन टू अर्थ ने इस संबंध में जिन विशेषज्ञों से बात की उन्होंने कुछ सुझाव जरूर दिए। लेकिन एक बिंदु पर वे सभी एकमत दिखे कि अगर आम लोग खुद को बीमारियों से बचाना है तो उनको कबूतरों को दाना-पानी देना बंद करना होगा। जम्मू विश्वविद्यालय के शोधार्थियों द्वारा 2014 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार जम्मू शहर में कबूतरों को मिलने वाली ज्यादातर खुराक आम लोगों द्वारा उनको ऐच्छिक रूप से दिए जाने वाले खाद्यान्नों से प्राप्त होती है।

अध्ययन के अनुसार, “कबूतर आम लोगों द्वारा अपने भोजन की उपलब्धता के संदर्भ में मनुष्यों से सुलभ होने वाले खाने की प्राथमिकता को साफ-साफ दर्शाते थे और यह भी संकेत करते थे कि इस उपलब्धता की बनिस्बत कबूतरों की बर्बाद खाने पर निर्भरता न्यूनतम है।” खुदसर कहते हैं, “कबूतरों को अपने और अपने कुनबे के लिए पर्याप्त आहार के स्रोतों की आवश्यकता होती है। अनेक अध्ययन यह बताते हैं कि यदि आप तीन-चार दिनों तक कबूतरों को खाना नहीं देते हैं तो उनके शरीर का वजन लगभग 5 प्रतिशत तक कम हो जाता है। इसके साथ ही उनकी प्रजनन क्षमता में भी कमी आ जाती है।” खुदसर यह भी बताते हैं कि इसके अतिरिक्त जब उन्हें कम आहार मिलता है तब उनके भीतर प्रतिस्पर्द्धा की भावना बढ़ जाती है जिसके कारण किशोर कबूतरों में युवावस्था प्राप्त करने की तीव्र प्रवृति में कमी आ जाती है और परिणामस्वरूप उनके प्रजनन पर एक स्वाभाविक अंकुश लग जाता है। मार्च 2023 में बॉम्बे उच्च न्यायालय के एक आदेश के बाद पुणे नगर निगम ने सार्वजनिक स्थलों पर कबूतरों को खाना खिलाने वाले नागरिकों से 500 रुपए का जुर्माना वसूलना शुरू कर दिया और साथ ही कबूतरों की संख्या में “अस्वाभाविक वृद्धि” को “स्वास्थ्य के लिए घातक” बताया है। लेकिन इस आर्थिक दंड का लोगों पर कोई अधिक असर नहीं दिखाई देता है।

ब्लेचमैन कहते हैं कि पश्चिम के देशों में कबूतरों को अपार्टमेंट्स, घरों और गगनचुंबी इमारतों में जाली अथवा कांटे लगा कर बसेरा या घोंसला बनाने से रोका जाता है। वह कहते हैं, “ये उपाय भी तभी तक कारगर साबित होते हैं जब तक जाली फट नहीं जाती।” कुछेक सार्वजनिक इमारतों की छतों पर एक देखभाल करने वाले आदमी की निगरानी में कबूतरों के लिए उनके रहने की निश्चित जगह बनाना ही एकमात्र उपाय है जो बहुत हद तक कारगर सिद्ध हुआ है। कबूतरों को यहां आकर अपना डेरा जमाने के लिए लुभाया जाता है, उनके अंडे को या तो वहां से सीधे हटा दिया जाता है। इस तरकीब से उनकी आबादी को नियंत्रित किया जा सकता है।

कबूतरखाना, दरबा या फिर मचान या लॉफ्ट के नाम से मशहूर इस तकनीक को यूरोप के अनेक प्रमुख देशों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। दासगुप्ता कहते हैं कि कुछ देशों में कबूतरों को सामूहिक रूप से मार डालने का तरीका भी अपनाया जाता है, लेकिन ज्यादातर प्रमाण यह संकेत करते हैं कि सामूहिक संहार के बिना भी अनेक स्तरों पर इनकी संख्या को कुछेक हफ्तों में ही सफलतापूर्वक नियंत्रित किया जा सकता है। विश्वनाथन कहते हैं, “शहरी इलाकों में मनुष्यों के घनत्व को ध्यान में रखते हुए इतनी बड़ी संख्या में कबूतरों के मारे जाने के व्यापक दुष्प्रभाव हो सकते हैं। इससे अनके संक्रामक बीमारियां भी फैल सकती हैं।” उनका सुझाव है कि लोगों को कबूतरों को खिलाना बंद करने के बारे में प्रशिक्षित करना बहुत आवश्यक है।

खुदसर के अनुसार, उनके रहने के ठिकानों और घोंसलों को सीमित कर के भी उनकी संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन यह सब करने का अधिकार किसको दिया गया है? दिल्ली के मुख्य वन्यजीवन प्रबंधक सुनीश बक्शी कहते हैं, कबूतरों के प्रबंधन की जिम्मेदारी स्थानीय शहरी निकायों की है। दूसरी तरफ दिल्ली नगर निगम के निदेशक आशीष प्रियदर्शी कहते हैं, कबूतर एमसीडी के अधिकार-क्षेत्र में नहीं आते हैं। वह कहते हैं, “उनसे संबंधित निर्णयों को वन विभाग द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए।” इस तरह की आशंकाएं संभवतः मनुष्य और पशुओं के बीच टकराव का एक दूसरा कारण है।

उड़नशील संकट

कबूतर और दूसरे पक्षियों पर न्यायालय और प्रशासन के ताजा फैसले

  • पुणे नगर निगम और ठाणे नगर निगम ने मार्च 2023 में कबूतरों को खाना खिलाने के अपराध में नागरिकों से 500 रुपए का जुर्माना वसूलने का आदेश दिया है
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फरवरी 2023 में लखनऊ नगर निगम को आम जनजीवन में परेशानी पैदा करने वाले पक्षियों को मार डालने का निर्देश देने की मांग करने वाली याचिका को निरस्त कर दिया
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने जुलाई 2016 में एक दीवानी मामले की सुनवाई करते हुए आदेश दिया कि इमारतों अथवा अपार्टमेंट्स में पक्षियों को दाना खिलाने के कारण दूसरे लोगों को इससे किसी प्रकार की समस्या नहीं होनी चाहिए। यह मामला जब बाद में सर्वोच्च न्यायालय में गया तो मार्च, 2019 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी उच्च न्यायालय के फैसले को ही बहाल रखा

“मनुष्य और कबूतर साथ-साथ रह सकते हैं”

कबूतरों की आबादी घटाने के लिए उठाए गए कदम शहरों की प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेंगे — अप्रतिम सहाय

मैगालोपोलिस महानगर जैसे आज के अधिकतर शहरी रिहायश कभी इतिहास में वन्य-प्रदेश, जंगल या घास के हरे-भरे मैदान रहे होंगे। लेकिन आज ये प्राकृतिक आवासीय प्रदेश शायद ही कहीं दिखते हैं। हमारे अनेक वन्यसाथी अब हमारे लिए एक परिचित नाम हो गए हैं। कबूतर शहरों और महानगरों में उपस्थित एक सामान्य पक्षी है। आज देश भर में कबूतर (डव) की सात, पंडुक या पाख्ते (पिजन) की चार और ग्रीन पिजन की दस प्रजातियां पाई जाती हैं। उनमें सबसे सामान्य और सुलभ प्रजाति रॉक पिजन या रॉक डव (कोलंबा लिविड) है। इन कबूतरों को पालने के इरादे से बाद के वर्षों में मनुष्यों द्वारा भोजन मुहैया कराए जाने लगा, जिसके कारण सी लिविया डोमेस्टिका जैसी उप-प्रजातियों का तेजी से विकास हुआ। भारत में 2000 के बाद के दशकों में कोलंबा लिविया की तादाद में 150 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई। दिल्ली जैसे शहर में हजारों लोग पक्षियों, खास कर कबूतरों को खाना खिलाते हैं जिनमें दूसरी चीजों के अलावा अनाज के दाने भी होते हैं। इसे कबूतरों के प्रति आम लोगों की सहिष्णुता और दोनों प्रजातियों के बीच सह-अस्तित्व के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। सच यही है कि जिस प्रकार कबूतरों ने खुद को मनुष्य के जीवन और स्वभाव के अनुरूप ढाल लिया है वह एक अकल्पनीय और विलक्षण सत्य है।

इस तरह की रिपोर्ट्स आती रही हैं कि मनुष्य कबूतरों के कारण बर्ड फेंसियर्स लंग, या बर्ड ब्रीडर्स लंग जैसी बीमारियों से संक्रमित हो जाता है। कबूतरों का सहचर्य, मलमूत्र और पंख इस संक्रमण का मुख्य कारण हैं। परिणामस्वरूप यह चिड़िया अब एक “खतरा” मानी जाने लगी है। बहरहाल यह समझना होगा कि इसकी बड़ी तादाद कबूतरों को एक “खतरा” नहीं बना रही है। हमारी खाद्य श्रृंखला में कबूतरों का एक निश्चित स्थान है और कुत्ते और बिल्ली जैसे अनेक जानवरों के लिए यह चिड़िया उनका भोजन है।

(कार्तिक सत्यनारायण वाइल्डलाइफ एसओएस के सह-संस्थापक और सीईओ हैं)

“कबूतरों को खाना देना तत्काल बंद करें”

पक्षियों की बड़ी संख्या का मुख्य कारण मनुष्य के आवासीय क्षेत्रों में मिलने वाली खाद्य सुरक्षा है — फैयाज खुदसर

आंकड़े बताते हैं कि भोजन पशुओं के प्रजनन संबंधी आचरणों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। इनमें पक्षी भी शामिल हैं। भोजन की उपलब्धता ही एक सफल प्रजनन और उसके बाद की जिम्मेदारियों को सुनिश्चित करने में सबसे बड़ा कारक है। बहुत से गांवों वाले सुरक्षित क्षेत्र में और उन जंगलों में जो मनुष्यों और मवेशियों से भरे हों, वहां वन्य पशुओं के लिए बहुत अधिक खाद्य सुरक्षा नहीं होती है। इन इलाकों से सभी गांवों के विस्थापन और पुनर्वास के कारण वन्य-पशुओं की संख्या में तेज वृद्धि हुई है। पहले अवलोकन में यह बढ़ोतरी प्रति वर्ग किलोमीटर में छह पशु प्रति वर्ष की दर से दर्ज की गई। यह आंकड़ा उस पहले साल का है जब उक्त क्षेत्र को बेहतर खाद्य सुरक्षा और सुरक्षित स्थान की उपलब्धता के उद्देश्य से मनुष्यों और मवेशियों से मुक्त कर दिया गया।

उसी तरह मनुष्यों के वर्चस्व वाले क्षेत्रों में कृत्रिम खाद्य सुरक्षा ने कबूतरों के साथ-साथ कुत्तों और बंदरों को भी अधिकाधिक प्रजनन के लिए प्रोत्साहित किया। अनेक स्थानों पर उनकी तादाद इतनी अधिक हो गई है कि वहां की ट्रॉफिक संरचना में असुंतलन उत्पन्न हो गया है जिसका दुष्प्रभाव पारिस्थितिकी क्रियाकिलापों पर पड़ता है। इस संकट से निबटने का एकमात्र तरीका यही है कि कबूतरों के साथ-साथ बंदरों को भी खाना देना तत्काल बंद कर देना चाहिए और कुत्तों को दिए जाने वाले खाने को भी सीमित कर दिया जाना चाहिए। यह उपचार प्रतिदिन अलग-अलग स्थानों पर उपयोग किया जाना भी उतना ही जरूरी है। एक कुत्ते को किसी भी घर के सामने या किसी नियत जगह पर रोज खाना देने से उसे इसकी आदत लग जाती है। खाने की तलाश में कुत्ते को थोड़ी दूर तक रोज भटकने दीजिए। इससे उसकी स्थान-विशेष पर अपना अधिकार समझने की प्रवृति में भी कमी आएगी। हमें इस समस्या का एक मानवीय लेकिन व्यवहारिक समाधान खोजने की जरूरत है।

(फैयाज खुदसर दिल्ली के एक वन्यजीव जैववैज्ञानिक हैं)

नोट: यह स्टोरी डाउन टू अर्थ, हिंदी के जुलाई 2023 के अंक में प्रकाशित हो चुकी है।