सिंगरौली जैसा इलाका जो ऊर्जा के क्षेत्र में मानक बना वहां लोगों को कई बार विस्थापन का सामना करना पड़ा। सिंगरौली में बहु-विस्थापन की प्रवृत्ति दिखती है। क्या यह बहु-विस्थापन सरकार की नीतिगत विफलता का परिणाम है?
आपके सवाल की पृष्ठभूमि में इस सवाल का जवाब हां में होगा। 1894 में जो भूमि अधिग्रहण कानून बना था उसमें इस बहु-विस्थापन की अवधारणा नहीं रखी गई थी। तब यह नहीं सोचा गया था कि कोई व्यक्ति एक बार से ज्यादा विस्थापित होता है। जुलाई 2011 में डीएन युगंदर समिति के विशेषज्ञों के समूह (इसमें मेरी भी भागीदारी थी) द्वारा नए कानून को तैयार करते वक्त मैंने यह रेखांकित किया था कि सिंगरौली के विस्थापितों का बहु-विस्थापन के दृष्टिकोण से ध्यान नहीं रखा जा रहा है।
अगर आप नए भूमि अधिग्रहण कानून के खंड-40 को देखेंगे तो यह सीधे तौर पर सिंगरौली के बहु-विस्थापन की समस्या को संबोधित करता है। उस बैठक में मैंने कहा था कि हमें बहु-विस्थापन को रोकने के प्रयास करने चाहिए। बहु-विस्थापन सिंगरौली में प्रत्यक्ष रूप से देखा गया। इसकी वजह यही रही कि पिछले कानून ने विस्थापन की संवेदनशीलता को नहीं समझा कि यह कितना मुश्किल और दर्द भरा होता है। जाहिर सी बात है कि उस समय बहु-विस्थापन की समस्या सोच से परे थी। पिछले कानून में इसे समझने की कमी रह गई थी। नए कानून ने इस मुद्दे को समझा और इसके लिए नीतिगत योजनाएं लाई गईं। इसमें सबसे अहम बात यह है कि अगर आप बहु-विस्थापन को रोकने में नाकाम रहते हैं तो मुआवजे की रकम दोगुनी होनी चाहिए।
सिंगरौली में विस्थापितों के आंकड़ों पर अनिश्चितता है। किसी नीति को समझने के लिए आंकड़े जरूरी है। इस संबंध में आपका क्या कहना है?
सिंगरौली की जनसंख्या मोटे तौर पर 11 लाख है। इसमें नौ लाख शहरी आबादी है और दो लाख ग्रामीण आबादी है। अगर हम 11 लाख जनसंख्या के अनुपात में बात करें तो दो से तीन लाख लोगों का विस्थापन हुआ है। 1962 के बाद बहु परियोजनाओं के कारण विस्थापन की इस संख्या को भयावह माना जा सकता है। हालांकि इसका सटीक आंकड़ा देना बहुत मुश्किल है। इसके पहले रिहंद की परियोजना के लिए जो विस्थापन हुआ था उसका कोई आधिकारिक रिकार्ड नहीं रखा गया। उसके बाद फिर आता है 70 और 80 का दशक। इस समय के अंतराल में एनसीएल की कोयला खनन परियोजना, फिर एनटीपीसी की परियोजना आईं। इन परियोजनाओं के समय कुछ आधिकारिक दस्तावेज रखे जाने शुरू हुए। सिंगरौली की बात करें तो इसमें कोई शक नहीं कि दो से तीन लाख लोगों का विस्थापन हुआ होगा।
कोल इंडिया की पुनर्वास नीति का अब तक क्या प्रभाव पड़ा?
अगर हम कोल इंडिया की नीति को देखें तो यह दो एकड़ जमीन पर एक नौकरी देती थी। कोल इंडिया के पुनर्वास की यह नीति भूमि अधिग्रहण के अनुपात के आधार पर थी। अगर किसी परिवार के घर से चार एकड़ जमीन का अधिग्रहण हुआ है तो कोल इंडिया उस परिवार के दो लोगों को स्थायी नौकरी देने की पेशकश करेगा। भूमि आधारित रोजगार कोल इंडिया की नीति रही है। यह दो एकड़, एक नौकरी वाली नीति केंद्रीय नीति के ढांचे का हिस्सा नहीं रही है। नियमों के तहत ऐसा नहीं था कि आपको नौकरी देनी ही थी। केंद्रीय कानून कहता है कि आपको विस्थापितों के जीवन-निर्वाहन का इंतजाम करना है। कंपनी को उन्हें रोजगार में प्राथमिकता देने का निर्देश है, नौकरी देने की बाध्यता नहीं है। यह कोल इंडिया ने अपनी नीति बनाई कि हर दो एकड़ जमीन पर एक रोजगार देगी। यहां पर एक अहम मुद्दा यह है कि चलिए, जिनके पास दो एकड़ जमीन है उन्हें तो नौकरी मिल गई। लेकिन उनका क्या जिनके पास जमीन नहीं है, जो भूमिहीन हैं? जो बटाईदार लोग हैं, जो कृषि उपज की हिस्सेदारी पर आश्रित हैं, उनका क्या होगा?
क्या एनसीएल की पुनर्वास नीति में कुछ सुधार आया है?
इसके लिए हमें कानूनी प्रतिबद्धताओं को देखना होगा। जो केंद्रीय अधिग्रहण नीति है उसमें कानूनी बाध्यताएं और प्रतिबद्धताएं हैं। आज की तारीख में जो केंद्रीय पुनर्वास नीति है किसी को भी उसी के दायरे में अपनी नीति बनानी होगी। एनटीपीसी या एनसीएल के जो प्रावधान हैं या जो पुनर्वास संबंधित लाभ हैं वो केंद्रीय पुनर्वास समिति के तय मानक से कम नहीं हो सकते हैं। दूसरी बात यह है कि अगर किसी मामले में खास पुनर्वास नीति बनाना चाहते हैं तो वे केंद्रीय नीति से आगे जा सकते हैं, ज्यादा दे सकते हैं लेकिन उसे कम नहीं कर सकते। तो पहली बात यह है कि केंद्रीय भू अधिग्रहण व पुनर्वास नीति के मानक बाध्यकारी हैं।
मध्य प्रदेश की पुनर्वास नीति को ज्यादा न्यायसंगत माना जा रहा था। मध्य प्रदेश की पुनर्वास नीति लागू क्यों नहीं हो पाई?
अब मैं एक बार फिर इसी बिंदु पर आता हूं कि मध्य प्रदेश की पुनर्वास नीति को केंद्र की अधिकतम सीमा का ध्यान रखना होगा। यह केंद्र के तय पैमाने से आगे जा सकती है लेकिन उससे कम नहीं हो सकती है। मध्य प्रदेश की नीति 2002 में आई थी तब मैंने उसका विश्लेषण किया था। नई भूमि अधिग्रहण नीति में एक अहम घटक जो राज्यो को दिया गया है, वह है भूमि मुआवजा दर निर्धारण। इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में संभावित विकास को देखते हुए बाजार मूल्य को एक कारक से गुणा किया जा सकता है। सरकार ने प्रशासनिक व्यवहार्यता को देखते हुए इस गुणा करने वाले कारक को 1 और 2 के बीच छोड़ दिया है पर यह वैज्ञानिक रूप से तार्किक था। मैं भी इससे जुड़ा था तो मैं जानता हूं कि हमने “स्केल” का निर्धारण क्यों किया था। इसका कारण यह है कि हर भौगौलिक स्थिति की अपनी खासियत होती है। एक गांव इंदौर के पास भी हो सकता है, भोपाल के पास भी हो सकता है और एक ग्रामीण क्षेत्र सीधी और सिंगरौली में भी हो सकता है। ये दोनों ग्रामीण क्षेत्र हैं, लेकिन दोनों के सर्किल रेट में बहुत फर्क होगा। तो आप सिर्फ ग्रामीण बोल करके कहीं की जमीन की दर का निर्धारण नहीं कर सकते हैं। इसलिए 2011 जुलाई में बीएन युगंदर की समिति में कहा गया था कि एक स्केलिंग यानी कि पैमाना होना चाहिए।
क्या निजी क्षेत्रों द्वारा बनाई गई नीति से विस्थापितों को पुनर्वास के लिए बेहतर मुआवजा मिल पाया?
यह एक रोचक पहलू है क्योंकि सिंगरौली में 2008 के बाद जो भूमि अधिग्रहण हुए हैं उसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी ज्यादा है। इसमें एनटीपीसी, एनसीएल के हैं मगर उतने नहीं हैं जितने निजी क्षेत्रों के हैं। 2008 में इसकी नीति बनाते वक्त मेरी भी भागीदारी थी तो मैं इस पर बेहतर तरीके से बात कर सकता हूं। उस समय जिला स्तर पर एक नीति बनाई गई जिसका ढांचा हमने “सब्सिस्टेंस अलाउंस” के नाम पर तैयार किया। इसमें सबसे अहम यह था कि अगर कोई परियोजना किसी परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी नहीं दे पाती है या कोई वैकल्पिक रोजगार नहीं दे पाती है तो उसे “सबसिस्टेंस अलाउंस” दिया जाएगा। इसे हिंदी में नाम दिया गया, “जीवन निर्वाह भत्ता”। भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास के संदर्भ में यह कदम मील का पत्थर साबित हुआ। आप इसकी अहमियत देखिए कि यह रिलायंस से शुरू हुआ, फिर हिंडाल्को में भी गया। यह जीवन निर्वाहन भत्ता निजी क्षेत्र से शुरू हुआ। यह निजी क्षेत्र की अच्छी पहल थी जो सार्वजनिक उपक्रमों में नहीं हुआ।
एनटीपीसी की पुनर्वास नीति विश्व बैंक के दिए कर्ज से निर्धारित होती आई है। ऐसे में क्या मोरवा विस्थापितों को बेहतर पुनर्वास पैकेज मिलेगा?
सिंगरौली में विरोध-प्रदर्शन जैसी चीजें नई नहीं हैं। यह यहां की व्यवस्था का हिस्सा बन चुका है। मैं इतना कहूंगा कि विश्व बैंक के कर्जों का इन परियोजनाओं पर निश्चित रूप से सकारात्मक असर पड़ा है। विश्व बैंक की सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की जो नीति है बुनियादी तौर पर वो इन परियोजनाओं का हिस्सा नहीं थी। इसकी वजह है कि इन परियोजनाओं की बुनियाद औपनिवेशिक भारत के समय रखी गई थी और उस समय के प्रशासन का उद्देश्य सिर्फ औपनिवेशिक संसाधनों का दोहन था। उस वक्त कोई भी नीति पारदर्शिता और सामाजिक जिम्मेदारी के हिसाब से नहीं बनाई गई थी। इसलिए जब इन सार्वजनिक उपक्रमों में विश्व बैंक का निवेश हुआ तो इनकी नीतियों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। विश्व बैंक के दबाव के कारण इन परियोजनाओं में सामाजिक सुरक्षा की अवधारणा पर भी ध्यान दिया गया। एनटीपीसी विंध्याचल में ही मुआवजे का स्तर बहुत बेहतर हुआ है। अब सवाल है मोरवा का। वहां प्रदर्शन हो रहे हैं। वहां का मुआवजा सक्रिय सिविल सोसायटी से तय होगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि सिंगरौली में योग्य व भरोसेमंद सिविल सोसायटी का ऐसा कोई समूह नहीं है जो वहां के नागरिकों के हित में विमर्श तैयार कर सके। अभी तक मैं ऐसे किसी संगठन के संपर्क में नहीं आया हूं जो व्यावसायिक तरीके से सरकार या सार्वजनिक उपक्रमों से बात कर लोगों के हित में दिशा-निर्देश तय करवाए। यहां पर इसकी कमी है। जनता की जरूरतों के लिए नीति तय करने में जनता की भागीदारी और जनता का प्रतिनिधित्व बहुत मायने रखता है।