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लुटता हिमालय: सिर्फ प्रशासनिक और सिविल इंजीनियरिंग उपायों से नहीं थमेंगी आपदाएं

संभावित जोखिम और खतरों की गणना करने के लिए सभी पहाड़ी क्षेत्र की निर्माण गतिविधियों की भूगर्भीय जांच की आवश्यकता है

DTE Staff

उत्तराखंड के जोशीमठ में भूधंसाव की घटनाओं ने हिमालय के प्रति चिंता को बढ़ा दिया है। साथ ही, हिमालयी राज्यों में विकास के मॉडल को लेकर हमारी समझ पर सवाल खड़े किए है। मासिक पत्रिका डाउन टू अर्थ, हिंदी का फरवरी 2023 का विशेषांक इसी मुद्दे पर है। इस अंक की अलग-अलग स्टोरीज को वेब पर प्रकाशित किया जा रहा है। सबसे पहले आपने पढ़ा, जोशीमठ से उठते सवालों पर बात करता डाउन टू अर्थ की संपादक सुनीता नारायण का लेख। जोशीमठ और आसपास हो रही घटनाओं की ग्राउंड रिपोर्ट आपने पढ़ी। आज पढ़ें, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक मनोज कुमार का आलेख 

प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और उनकी भयावहता के सन्दर्भ में देखें तो पिछले दो दशक काफी महत्वपूर्ण रहे हैं। जैसे, साल 2000 और 2005 के बीच सतलुज नदी बेसिन में लैंडस्लाइड लेक आउटबर्स्ट फ्लड (एलएलओएफ: भूस्खलन के कारण नदी में एक झील का बनना और इस वजह से बाढ़ आना), 2005 का मुजफ्फराबाद भूकंप, हिमाचल प्रदेश की पार्वती घाटी में 2003 की ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ), केदारनाथ में 2013 की अचानक आई बाढ़, 2014 में लद्दाख की आकस्मिक बाढ़, 2014 में ऋषि गंगा नदी में जीएलओएफ, साल 2016 का नेपाल का 7.8 तीव्रता वाला भूकंप, उत्तराखंड में 2019 और 2020 की भारी मॉनसूनी बारिश, 2021 में उत्तराखंड के चमोली में बड़े पैमाने पर ग्लेशियर का फटना आदि।

इसके अलावा और भी सैकड़ों अन्य आपदाएं आईं जो मीडिया में सुर्खियां नहीं बंटोर सकीं। प्रकृति की यह असामान्य तबाही दुनिया के अन्य हिस्सों में भी देखी गई। कहीं सुनामी के रूप में समुद्री तबाही आई तो कहीं बवंडर और चक्रवात के रूप में हवा ने अपना रौद्र रूप दिखाया। ठंडे क्षेत्रों में गर्म हवाएं चलीं तो गर्म क्षेत्रों में बर्फबारी देखी गई। कई इलाकों ने अभूतपूर्व बाढ़ का सामना किया। ये सभी आपदाएं बड़े पैमाने की थी। मानव जाति के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं देखा-सुना गया था। इन आपदाओं ने इलाके और देश के सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र पर एक गहरी छाप छोड़ी। उत्तराखंड के जोशीमठ में जारी भूस्खलन का संकट हमें प्रकृति की निरंतर अशांति की याद दिला रहा है।

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अनुसंधान आधारित भूवैज्ञानिक विचार बताते हैं कि यह जलवायु, पृथ्वी के भू-गतिशील विकास और अतिरिक्त खगोलीय घटनाओं का नतीजा है। हालांकि, अब यह गलत होता मालूम होता है। विभिन्न वैज्ञानिक शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि जलवायु परिवर्तन इस सबमें प्रमुख भूमिका निभा रहा है। पृथ्वी की जलवायु अपने पूरे इतिहास में गर्मी और ठंड के चक्रों से गुजरी है। ऐसा शायद सौर विकिरण और ज्वालामुखी गतिविधि में परिवर्तन जैसे प्राकृतिक कारकों की प्रतिक्रिया में हुआ है।

पेलियोसीन-इओसीन थर्मल मैक्सिमम (पीईटीएम) की घटना लगभग 56 मिलियन साल पहले हुई थी जब औसत वैश्विक तापमान में लगभग 5 से 8 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई थी। इस वजह से व्यापक रूप से पौधों और जानवरों में परिवर्तन शुरू हो गए थे। 950 और 1250 ईस्वीं के बीच का समय गर्म रहा जबकि 16वीं और 19वीं शताब्दी के बीच की अवधि बर्फ से घिरी रही। यह सौर विकिरण और ज्वालामुखीय गतिविधि में परिवर्तन के कारण माना जाता है। हालांकि, मौजूदा रुझान मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों से प्रेरित है, जो पिछले वार्मिंग से अलग है।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्थापित जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की पांचवीं आकलन रिपोर्ट (असेसमेंट रिपोर्ट 5), 2014 में कई सबूत दर्ज किए गए हैं। मसलन, 19वीं शताब्दी के अंत के बाद से पृथ्वी की औसत सतह का तापमान लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। पिछले कुछ दशकों में ही अधिकांश वार्मिंग की घटनाएं हुई हैं, जैसे बर्फ पिघल रही है, समुद्र के स्तर में वृद्धि हुई है, ग्रीनहाउस गैस सांद्रता में वृद्धि हुई है, खासकर कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर, जो पिछले 8,00,000 वर्षों में नहीं देखा गया।

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पूरे महासागर का गर्म होना एक बड़ी घटना रही। 1971-2010 की अवधि में ऊपरी महासागर (0-700 मीटर) हर एक दशक में 0.11 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हुआ। 20वीं शताब्दी के मध्य से आर्कटिक समुद्री बर्फ, ग्लेशियर और बर्फ की चादरें वैश्विक औसत के मुकाबले काफी तेती से गर्म हो रही हैं, वहीं मानव प्रभाव के कारण जलवायु प्रणाली भी गर्म होती जा रही है। भारतीय परिदृश्य में देखे तो जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने हिमालय पर कई अध्ययन किए वहीं स्कूल ऑफ द एनवायरमेंटल साइंस, जेएनयू और वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी ने हिमाचल और उत्तराखंड के ग्लेशियर्स पर कई सारे अध्ययन किए, जो वार्मिंग के रुझान बताते हैं।

हिमालय में जलवायु परिवर्तन का हिमाच्छादित और गैर हिमाच्छादित इलाकों के बीच मध्यवर्ती क्षेत्रों में अधिकतम प्रभाव पड़ रहा है, यानी ऐसा क्षेत्र जहां पर्याप्त हिमपात और बारिश होती है। ऐसे क्षेत्र में जीएलओएफ, एलएलओएफ, बादल फटने और भूस्खलन जैसी अधिकांश विनाशकारी आपदाएं आती हैं। जोशीमठ ऐसा ही एक इलाका है। इस तरह के मध्यवर्ती जलवायु क्षेत्र पर्यटन के लिहाज से काफी आकर्षक और सुगम्य होते है और इस वजह से वहां विकास कार्य की संभावनाएं भी बढ़ जाती है। स्थलाकृति में अचानक परिवर्तन और पानी के बारहमासी स्रोतों की उपलब्धता से ऐसे स्थान नदी घाटी परियोजनाओं के विकास के लिए सर्वोत्तम माने जाते हैं। हालांकि संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र निरंतर कटाव और मौसमी प्रक्रियाओं की वजह से अपरिपक्व स्थलाकृति के कारण नाजुक माना जाता है। हिमनदों और नदी के बीच परस्पर क्रिया के कारण मध्यवर्ती क्षेत्रों को सबसे नाजुक और अस्थिर बेल्ट माना जा सकता है।

मानवजनित गतिविधियों खासकर शहरी और बुनियादी ढांचे के विकास कार्यों की वजह से इन इलाकों की नाजुकता और भी बढ़ जाती है। जोशीमठ संकट को भी प्राकृतिक और मानवजनित गतिविधियों के प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है। जोशीमठ की तरह ही हिमालय के अधिकांश क्षेत्रों में इंसानी बस्तियां उत्तर से पूर्व की ओर जा रही ढलानों पर स्थित हैं, जहां सूर्य की गर्मी कम मिलती है। इन्हें धूप-छाया ढलान कहा जाता है। इस तरह की ढलानें नरम, चिकनी और आमतौर पर मोटी फ्लुविओग्लेशियल (हिमनदों के पिघले पानी के कारण होने वाले कटाव और जमाव (कंकड़-पत्थर) मलबे बनाती हैं। मलबे में बड़े बोल्डर होते हैं, जो मिट्टी और कंकड़ के मिश्रण से बने एक व्यवस्थित मैट्रिक्स में सेट होते हैं।

आमतौर पर बारिश और बर्फ के पिघलने से नम होने वाली जमीन के कारण धूप-छाया ढलानों को खतरा होता है। अवैज्ञानिक लोडिंग, ढलान में छेड़छाड़ और खराब सीवेज प्रणाली के कारण जमीन की नमी बढ़ने, कटाव आदि से ढलान की अपने मूल स्वरुप में बने रहने की क्षमता में कमी आती है। इस वजह से ये ढलान एक डूबने वाले क्षेत्र या स्खलित होते मलबे में बदल जाते हैं। हिमाचल प्रदेश के भी कई क्षेत्र, जैसे मनाली के पास कोठी, ब्यास घाटी में बजौरा के पास पराशर झील, रारी गांव और किन्नौर जिले में रिकांगपिओ, उरनी और शिमला के उत्तरी-दक्षिणी ढलान इसी श्रेणी के अंतर्गत आते हैं।

पिछले अनुभवों से पता चलता है कि सिर्फ प्रशासनिक और सिविल इंजीनियरिंग उपायों से कोई महत्वपूर्ण नतीजा नहीं मिलने वाला है। ग्लोबल वार्मिंग के व्यापक प्रभाव को देखते हुए किसी इलाके की विशिष्ट जलवायु परिस्थितियों पर विचार करने की आवश्यकता होती है। पहाड़ी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर शहरी और बुनियादी ढांचे के विकास ने खतरनाक जटिलताएं पैदा की हैं, जिनका समय रहते सही तरीके से पुनर्मूल्यांकन किए जाने की जरूरत है, वह भी ऐतिहासिक और मौजूदा भूवैज्ञानिक, भू-आकृति विज्ञान और जलवायु विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए। संभावित जोखिम और खतरों की गणना करने के लिए सभी पहाड़ी क्षेत्र की निर्माण गतिविधियों की भूगर्भीय जांच की आवश्यकता है। इन क्षेत्रों में भवन निर्माण के लिए लागू मौजूदा नियम-कानून और तौर-तरीकों को सही करने का यही वक्त है।

किसी भी ढलान की स्थिरता और सुरक्षा के लिए सतह और उपसतह पर मौजूद जल-प्रबंधन की जरूरत होती है। साथ ही, आधार की सतह का ज्ञान और आंतरिक संरचनात्मक विन्यास, ढलान के मलबे की मोटाई और भूगर्भिक प्रकृति, ढलान बनाने वाली भौगोलिक इकाई की पहचान जरूरी है। इसके जलवायु क्षेत्र का ज्ञान और इसके अनुसार सतही भार को बांटने की योजना और सुरक्षा के दीर्घकालिक उपाय की भी जरूरत होती है। हिमाचल में हाल ही में हुई बोई (कांगड़ा) और बटसेरी (किन्नौर) भूस्खलन जैसी घातक घटनाओं से बचने के लिए भूस्खलन और हिमस्खलन या मलबे के प्रवाह और उनके उतार-चढ़ाव वाले क्षेत्रों की जांच किए जाने की आवश्यकता है।

बादल फटने, जीएलओएफ या एलएलओएफ के कारण आने वाले विनाशकारी बाढ़ के प्रभावों के लिए डाउनस्लोप या घाटी में हुए निर्माण गतिविधियों की जांच की जानी चाहिए। किसी भी प्रस्तावित या मौजूदा बस्तियों और सिविल और संचार परियोजनाओं के पूर्व-निर्माण, निर्माण चरण और निर्माण के बाद की निगरानी के दौरान भूगर्भीय इनपुट को अनिवार्य करने वाली नीति बनाने का सही समय यही है।

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