विकास

दिलीप कुमार: अपनी कला से नया दौर का पैगाम छोड़ने वाले एक अनूठा सितारा

विकास की राजनीति को हमेशा विकास से संबंधित एक लोकप्रिय कहानी की आवश्यकता होती है। दिलीप कुमार ने अपनी स्टार पावर का इस्तेमाल ऐसी ही कहानी बनाने में किया

Joyjeet Das

7 जुलाई, 2021 को दिलीप कुमार का निधन हो गया। वह इस दिसंबर में 99 वर्ष के हो जाते। बहुत कम लोग इतने लंबे समय तक जीते हैं - लगभग एक सदी। और यह कितनी शानदार सदी रही है। अरबों लोगों से भरी दुनिया में दिलीप कुमार जैसी शख्सियत का होना, इससे शानदार और क्या हो सकता था।

भारत के लिए यह आत्म-साक्षात्कार की सदी रही है। स्वतंत्रता के बाद के लक्ष्य पाने के लिए प्रयास करना और प्राप्त करना, सांप्रदायिकता जैसी त्रासदियों से प्रभावित होना, अपनी मौजूदगी दुनिया में बनाना। फिर भी हम समाज के हर तबके को एक ही पायदान पर रखने में असफल रहे। लगातार वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद का हम मुकाबला करते रहे।

इस सब के बीच में, दिलीप कुमार ने आधुनिक कलाकार को परिभाषित किया और बताया कि वह कैसे अपने अभिनय में एक साथ संदेश और सौंदर्य को शामिल कर सकते है।

दिलीप कुमार का जन्म डीडब्ल्यू ग्रिफ़िथ की द बर्थ ऑफ ए नेशन की रिलीज के सात साल बाद हुआ था। यह मूक फिल्म थी, जिसकी नस्लवादी निर्माण के लिए तीखी आलोचना हुई, लेकिन इसने सिनेमा की संभावनाओं को प्रदर्शित किया। नए माध्यम में पहले से ही दुनिया जिज्ञासु थी। कुछ ही समय में, यह मनोरंजन का नया रूप बन गया, दृश्य और श्रवण संकेतों को मिलाने वाली एक रोमांचक कला के साथ-साथ विचारों को साझा करने और एजेंडा चलाने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण बन गया।

जब वह अपनी किशोरावस्था में थे, भारत में पौराणिक कथाओं, रोमांस और सामाजिक नाटक को प्रदर्शित करने वाली विभिन्न भाषाओं में टॉकीज़ की भरमार थी। दर्शकों ने 'सितारों' को पहचानना शुरू कर दिया था। जब 20 साल का यूसुफ खान बॉम्बे टॉकीज के स्टूडियो गया, तब तक कई फिल्म निर्माता सिनेमा के लिए गंभीर हो चुके थे।

अप्रशिक्षित, लेकिन विद्वान और चौकस दिलीप कुमार को साथी राज कपूर और देव आनंद के साथ, जल्द ही सफलता मिली। जिन युवकों को उन्होंने स्क्रीन पर चित्रित किया, वे एक बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। वे सभी वर्गों से आते थे। ज्वार भाटा (1944) में अपनी शुरुआत के बाद, कुमार की शुरुआती सफलताओं में मिलन (1946), जुगनू (1947), मेला (1948), शहीद (1948), अंदाज़ (1949) आदि शामिल थे।

नए स्वतंत्र देश में फिल्मी चलन काफी हद तक तेज हो गया था और कई सितारे चमकने लगे थे। जिस चीज ने दिलीप कुमार को सबसे अलग बनाया, वह था अभिनय के शिल्प को समझना और उसमें निखार लाने का प्रयास।

एक युवा मार्लन ब्रैंडो ने हॉलीवुड में मेथड एक्टिंग को दिशा दी। एलिया कज़ान के साथ उनका सहयोग मील का पत्थर बन गया। ए स्ट्रीटकार नेम्ड डिज़ायर (1951), विवा ज़ापाटा (1952) और ऑन द वाटरफ्रंट (1954) से उन्होंने इसे साबित किया।

दिलीप कुमार ने अपनी अलग 'विधि' (मेथड) विकसित की। अशोक कुमार ने उन्हें सलाह दी, “यह बहुत आसान है। आप बस वही करें जो आप उस स्थिति में करेंगे यदि आप वास्तव में उसी स्थिति में होते।” इस सलाह ने स्क्रीन पर यथार्थवाद को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

दूसरा, सामाजिक रूप से लोगों के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने को ले कर वे प्रतिबद्ध थे। उन्होंने अपने स्टारडम के साथ-साथ एक अभिनेता के रूप में अपने कौशल में निवेश किया। जितना अधिक वह अनुभवी थे, अपने अभिनय की गहराई में वे उतने ही अधिक उतरते चले गए।

हम आज विकास की राजनीति की बात करते हैं। इस 'उदारीकृत' भारत में अपने अरबों हाथों से 4जी फोन चलाते हुए हमारा दिमाग 24x7 निष्क्रियता में डूबता जा रहा है। तब ये सोचना कि कैसे पुराने समय में लोगों ने स्क्रीन का इस्तेमाल जन समस्याओं को उभारने में किया, आश्चर्य पैदा करता है। 

तमिल फिल्म उद्योग ने भी ऐसा किया। पराशक्ति (1952, भविष्य के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि द्वारा लिखित) ने लोगों की समस्याओं को सामने लाया। बॉम्बे उद्योग में भी प्रयास किए गए, जिनमें इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़े लोग भी शामिल थे। चेतन आनंद के नीचा नगर (1946) ने कान्स में प्रतिष्ठित 'ग्रां प्री' जीता।

हालांकि, व्यावसायिक सफलता अधिक कठिन थी। इधर, राज कपूर-दिलीप कुमार-देव आनंद की दिग्गज तिकड़ी की स्टार पावर बचाव में आई। कपूर ने इप्टा के दिग्गज ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ मिलकर आवारा (1951) और श्री 420 (1955) जैसी शानदार हिट दी। अपनी खुद की फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया। दूसरी ओर, आनंद को उनके भाई चेतन और विजय सहित कई निर्देशकों द्वारा संघर्ष-ग्रस्त पात्रों (काला पानी, 1958; गाइड, 1965) को प्रभावी ढंग से चित्रित करने के लिए प्रेरित किया।

कपूर और आनंद के उलट, दिलीप कुमार आमतौर पर निर्देशन और निर्माण से दूर रहे। उन्होंने इसके लिए विषयों का चयन भर किया और मजबूती के साथ फिल्मों में सावधानीपूर्वक शोध और पूर्वाभ्यास किया।

फुटपाथ (1953) में उनके मोनोलॉग को देख कर उनके अभिनय की पराकाष्ठा को समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने एक कालाबाजारी की भूमिका निभाई थी, जो खाद्यान्न और दवाओं की जमाखोरी करके गरीब से अमीर बनता है। जब महामारी फैलती है तो नायक समाज और अपने प्रियजनों को हुए नुकसान से व्यथित होता है।

फुटपाथ, कपूर की आवारा और देव आनंद-स्टारर बाजी (1951, गुरु दत्त) जैसी फिल्में भारत के लिए शुरुआती अलार्म बेल (खतरे की घंटी) थी। नई प्राप्त स्वतंत्रता के साथ, आगे की राह बिल्कुल भी आसान नहीं थी। उस पीढ़ी के लिए और अधिक, जिस पर देश राष्ट्र निर्माण के लिए भरोसा कर रहा था। बॉक्स ऑफिस पर बड़ी संख्या में लोग आए। ऐसी फिल्मों ने जनता को शिक्षित करने का एक उत्कृष्ट काम किया। यह एक ऐसा गुण था, जिसे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गौर से देखा था।

महात्मा गांधी ने कहा था, "भारत की आत्मा गांवों में बसती है।" जीविका के स्त्रोत को नई पश्चिमी तकनीक से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। उत्पादक लागत पर उत्पादन की दर बढ़ने लगी। स्वतंत्र भारत ने अपना पहला दशक पूरा करते ही बीआर चोपड़ा की नया दौर स्क्रीन पर हिट करा दी। भाईचारा, प्रतिद्वंद्विता और रोमांस की इसकी मनोरंजक मेल ने बताया कि कैसे मशीनीकरण लोगों की आजीविका को खा जाता है।

यह एक ब्लॉकबस्टर थी, जिसने भारत के औद्योगीकरण को चेतावनी दी थी कि निजी पूंजी-संचालित आधुनिकीकरण धन और उत्पादन के साधनों को कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित करेगा, सामाजिक असमानताओं को तेज करेगा। इसने एक रास्ता निकाला: जनता के बीच एकता और सहयोग।

इस तरह का विषय आसानी से हिट हो सकता था, लेकिन चोपड़ा और दिलीप कुमार ने एक नया रास्ता तलाशा। शंकर जो तांगा चलाता है, एक बस से रेस लगा कर उसे हरा देता है और एक नया रास्ता बना देता है। ।

इस विषय ने पूरे देश में लोगों को प्रभावित किया। फिल्म को तमिल में डब किया गया था। 1957 में रिलीज़ हुई केवल एक हिंदी फिल्म नया दौर से बड़ी हिट थी। वह फिल्म थी, महबूब खान की मदर इंडिया, जो ग्रामीण भारत और सामंती उत्पीड़न का एक मौलिक चित्रण था। 

गंगा जमुना में सामंती अत्याचार का विषय स्वयं दिलीप कुमार ने उठाया था। उन्होंने दो भाइयों की कहानी और पटकथा लिखी। एक देश के कानून को बनाए रखने वाला और दूसरा दुष्ट जमींदार, अमीर और शक्तिशाली से लड़ने वाला विद्रोही।

उन्होंने अपनी आत्मकथा दिलीप कुमार द सबस्टेंस एंड द शैडो में लिखा है:

“जितना अधिक मुझे लगा कि यह मेरे लिए एक ऐसी पिक्चर बनाने का समय है, जो ग्रामीण भारत के लोगों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाए। उन लोगों के बारे में, जिन्हें स्वतंत्रता के बाद भी बहुत कम हासिल हुआ। उत्पीड़ित किसान और खेत जोतने वाले गुलामी का जीवन जी रहे थे और जमींदारों के गुर्गों द्वारा उनका शोषण और ठगी की जा रही थी।“ 

कुमार ने डाकू की भूमिका निभाई। अभिनेता के मिस्टर गुडी कैरेक्टर के उलट। फिल्म को हिंदी भाषी क्षेत्र में स्थापित करने के व्यापक प्रयास किए गए थे। नितिन बोस ने यूनाइटेड किंगडम के प्रसिद्ध पाइनवुड स्टूडियो में संसाधित तकनीक से शानदार प्रोड्क्शन किया। इसने विदेशों में आयोजित  फेस्टिवल सर्किट में काफी धूम मचाई, जो हिंदी फिल्मों के लिए दुर्लभ है। अनुमान है कि करीब 84 मिलियन लोगों ने इसे देखा होगा, जिनमें से 32 मिलियन लोग तत्कालीन सोवियत संघ के थे।

बीच में पैगाम (1959) था, जिसमें कुमार ने एक ऐसे युवक का किरदार निभाया था, जो यह पता लगाने के बाद कि मालिक मजदूरों को धोखा दे रहा है, मिल में अपने सहयोगियों को संगठित करने की कोशिश करता है। इस विषय को 1970 के दशक में बहुत अधिक प्रशंसा मिली, जब देश भर के श्रमिक बेहतर डील की मांग कर रहे थे।

1970 में दिलीप कुमार की एकमात्र पूर्ण बांग्ला फिल्म सगीना महतो रिलीज़ हुई। इसे तपन सिन्हा ने बनाया था। गौर किशोर घोष की कहानी पर आधारित, यह श्रम, समुदाय, ट्रेड यूनियन आंदोलन और उसके नुकसान का पूर्ण अध्ययन था। यह 1942-43 के दौरान चाय की अर्थव्यवस्था के बीच दार्जिलिंग पहाड़ियों में स्थापित था। यह ऐसा समय था, जब लोग फासीवाद और साम्राज्यवाद से लड़ रहे थे। जिस समय फिल्म की परिकल्पना की जा रही थी, उस समय उस क्षेत्र में नक्सल आंदोलन फैल गया था। मॉस्को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में इसे 'सर्वश्रेष्ठ एफ्रो-एशियाई फिल्म' भी चुना गया था।

दिलीप कुमार अभिनेता या स्टार से बढ़कर साबित हुए। वह एक ऐसी पीढ़ी के प्रतिनिधि थे, जिसने एक समावेशी भारत के निर्माण के लिए जोश से काम किया।

आज 2021 है। हम अपने पूर्वाग्रहों और सामाजिक विभाजनों के बीच सदी की भयानक महामारी से लड़ रहे हैं। कार्यबल पहले से भी अधिक परेशान है। अपनी 2014 की आत्मकथा में, इस सितारे ने लिखा: “मदर इंडिया और गंगा जमुना, जिसने किसानों के शोषण का पर्दाफाश किया, उसके आधी सदी बाद भी आज स्थिति बहुत ज्यादा नहीं बदली है।“ 

जब इस महान अभिनेता ने अंतिम सांस ली, तब राष्ट्रीय राजधानी में किसान कृषि 'सुधारों' का विरोध करने के लिए महीनों से धरना दे रहे हैं।