राजधानी दिल्ली के गांव की कहानी अजीब है। ये कहने को तो गांव हैं, लेकिन न तो यहां गांव जैसे हालात हैं और ना ही महानगर की कॉलोनियों जैसी सुविधा। आलम यह है कि आगामी पांच फरवरी को होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले ग्रामीण सभी राजनीतिक दलों को संदेश देना चाहते हैं कि गांवों की उपेक्षा उन्हें महंगी पड़ सकती है।
दिल्ली के ग्रामीणों के संगठन दिल्ली पंचायत संघ की ओर से एक फरवरी को बैठक (पंचायत) बुलाई गई है। पंचायत संघ के प्रमुख थान सिंह यादव ने कहा कि दिल्ली के गांवों की ओर से एक मांगपत्र तैयार किया गया है और 1 फरवरी की पंचायत में निर्णय लिया जाएगा कि जो भी राजनीतिक दल इन मांगों को पूरा करने की गारंटी देगा, उसे सामूहिक समर्थन और भारी मतदान दिया जाएगा।
खास बात यह है कि ग्रामीणों की मांग कोई नई नहीं हैं। उनकी मांगें देश के उन गांवों के जैसी ही हैं, जिन्हें बढ़ते शहरीकरण के कारण नगर निकायों में शामिल कर लिया जाता है। यादव बताते हैं कि जहां देश के अन्य हिस्सों में स्वामित्व योजना से किसानों और ग्रामीणों को अपनी भूमि का मालिकाना हक मिल रहा है, वहीं दिल्ली के गांवों को अभी तक लाल डोरा और विस्तारित लाल डोरा खत्म कर यह अधिकार नहीं दिया गया है।
इसके अलावा उनकी मांग है कि राजधानी में शामिल सभी गांवों को हाउस टैक्स, कन्वर्जन चार्ज और पार्किंग चार्ज से मुक्त किया जाए। साथ ही, गांवों को भवन उपनियमों से बाहर रखा जाए। पंचायत रहते गांव की शामलात भूमि (कॉमन लैंड) का फैसला ग्राम पंचायत करती है, लेकिन नगर निकाय में शामिल होने के बाद ग्रामीण अपना यह हक खो देते हैं। दिल्ली के ग्रामीणों को भी यह बात परेशान करती है।
यादव कहते हैं कि हमारी मांग है कि ग्राम सभा की भूमि का उपयोग गांवों के विकास के लिए किया जाए, जैसे कि पार्किंग स्थल, बारातघर खेलकूद परिसर, पशुओं के लिए चारागाह आदि। यादव के मुताबिक यह जमीन नगर निगम के अधीन है और नगर निगम अपने हितों का ध्यान रखते हुए जमीन का उपयोग कर रहा है।
वह कहते हैं कि वर्षों पहले अधिग्रहित कृषि भूमि, जो अभी तक खाली पड़ी है, किसानों को वापस दी जाए। साथ ही, ग्राम सभा की कृषि भूमि को अधिग्रहण से बाहर रखा जाना चाहिए। उनकी मांगों में गांवों के गरीबों व भूमिहीनों को मकान बना कर देना भी शामिल है।
दिल्ली पंचायत सघ की मांगों में ग्रामीण युवाओं को रोजगार के लिए गांवों को व्यवसायिक श्रेणी में अधिसूचित करने, कृषि भूमि का सर्कल रेट बढ़ाकर 10 करोड़ रुपए करने, गांवों को स्मार्ट शहरों की तर्ज पर स्मार्ट विलेज के रूप में विकसित करने, गांवों के मुख्य मार्ग और फिरनी की चौड़ाई 100 फुट करने, गांव की जमीन पर बने पब्लिक स्कूलों में 100 प्रतिशत दाखिला गांव के बच्चों के लिए आरक्षित करने, गांवों के युवाओं को सरकारी सेवाओं में 50 प्रतिशत आरक्षण की गारंटी शामिल है।
जनगणना 2011 के अनुसार, दिल्ली के कुल 1483 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में से 369.35 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र ग्रामीण तथा 1113.65 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र शहरी है। सम्पूर्ण ग्रामीण क्षेत्र को 5 सामुदायिक विकास खंडों में विभाजित किया गया है। 2011 की जनगणना के अनुसार ग्रामीण जनसंख्या 4.19 लाख थी। लेकिन दिल्ली में एक भी ग्राम पंचायत नहीं है।
दरअसल, साल 1911 में अंग्रेजों ने कलकत्ता की बजाय दिल्ली को अपनी राजधानी घोषित किया और नई दिल्ली बसाने के लिए 1915 में एक अधिसूचना जारी कर आसपास के 65 गांव, जो संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में स्थित थे को शहर में शामिल कर लिया गया। इस तरह दिल्ली में गांवों को शहर में तब्दील करने का सिलसिला शुरू हुआ।
देश की आजादी के बाद 1957 में दिल्ली नगर निगम अधिनियम लागू हुआ और इस अधिनियम की धारा 507 के तहत गांवों को शहरीकृत घोषित करने की प्रक्रिया शुरू हुई और धीरे–धीरे दिल्ली और आसपास के लगभग 357 गांवों को नगर निगम में शामिल कर लिया गया और ग्राम पंचायतें भंग कर दी गई।
1993 में भारत में संविधान के 73वें संशोधन के जरिए पंचायतों को मजबूती प्रदान करने के लिए प्रावधान किए गए, इससे वंचित होने के कारण दिल्ली के ग्रामीणों ने सरकारों पर दबाव बनाया तो 2004 में तत्कालीन सरकार ने दिल्ली ग्रामीण विकास बोर्ड बना कर ग्रामीणों को आश्वासन दिया कि गांवों की हितों की सुरक्षा और विकास का पूरा ध्यान ग्रामीण विकास बोर्ड रखेगा, लेकिन थान सिंह यादव कहते हैं कि यह विकास बोर्ड छलावा साबित हुआ और इसका कोई फायदा ग्रामीणों को नहीं मिला।
ऐसे मे देखना यह है कि अपना अस्तित्व बचाने के लिए दिल्ली के गांव इस विधानसभा चुनाव में अपना कोई ठोस संदेश सरकारों तक पहुंचा पाते हैं या नहीं।