विकास

कुपोषित बच्चों के शिशु गृहों ने घटाई कृषि मजदूरों की चिंता, डीएमएफ फंड से बदल सकती है तस्वीर: सीएसई

क्योंझर (उड़ीसा) और अनूपपुर (मध्य प्रदेश) में बनाए गए शिशुगृह स्थानीय लोगों के सहयोग से कुपोषित और आंगनवाड़ी से पहले के बच्चों को लक्ष्य करने का बेहतरीन प्रयास कर रहे हैं

DTE Staff

खनन प्रभावित क्षेत्रों में रहने वालों के हितों की रक्षा के लिए जिला खनिज फाउंडेशन (डीएमएफ) ट्रस्ट स्थापित किए गए। डीएमएफ में अब तक लगभग 36,000 करोड़ रुपए एकत्र किए गए हैं। डीएमएफ ट्रस्ट देश भर के 21 राज्यों के 571 जिलों में स्थापित किए गए हैं।  क्या डीएमएफ का पैसा सही से खर्च किया जा रहा है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने इसकी पड़ताल की, इस पड़ताल के आधार पर डाउन टू अर्थ ने रिपोर्ट्स की एक सीरीज शुरू की। इसकी पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि डीएमएफ से दूर होगी खनन प्रभाावितों की गरीबी । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, क्या डीएमएफ की राशि का इस्तेमाल सही दिशा में हो रहा है? । तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा, पानी पर डीएमएफ फंड खर्च करने से आया सकारात्मक बदलाव : सीएसई । पढ़ें, आखिरी कड़ी-

ओडिशा के क्योंझर जिले में बंसपाल ब्लॉक में रहने वाली बसंती महतो और उनके पति को जब भी काम पर जाना होता तो उनके लिए अपने नवजात बच्चे को संभालना एक बड़ी मशक्कत और चिंता का सबब बन जाता है।  बसंती खेत में काम करने वाली मजदूर हैं जो बच्चे को संभालने के लिए अपना काम अब-तब छोड़ती रहती हैं, जिससे उनके घर का खर्च प्रभावित होता रहता। हालांकि, कुछ ही वर्ष पहले 2018 में उनकी सबसे बड़ी चिंता का निदान मिल गया। दरअसल उनके गांव में तीन वर्ष से कम उम्र के बच्चों की देखभाल के लिए एक शिशुगृह खोला गया था। उड़ीसा में क्योंझर लौह अयस्क (आयरन ओर) खनन का जिला है, बसंती काम पर जाने से पहले अपने बच्चे को शिशुगृह में छोड़ जाती थीं। एक ही वर्ष में उन्होंने पाया कि उनके बच्चे की सामान्य सेहत में भी काफी बदलाव हो गया है। 
तालकेनसारी गांव में खोला गया यह शिशुगृह जिले के उन 60 शिशु गृहों का हिस्सा है जिन्हें जिला खनन फाउंडेशन (डीएमएफ) फंड के जरिए शुरू किया गया है। इसका मकसद छोटे कुपोषित बच्चों को संभालना है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक कनझोर (उड़ीसा) और अनूपपुर (मध्य प्रदेश) में बनाए गए शिशुगृह स्थानीय लोगों के सहयोग से कुपोषित और आंगनवाड़ी से पहले के बच्चों को लक्ष्य करने का बेहतरीन प्रयास कर रहे हैं। यह पहल नियमित एकीकृत शिशु विकास सेवा (आईसीडीएस) कार्यक्रम से इतर है। 
ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में बच्चों का पोषण एक बड़ी चिंता का विषय है। खनन वाले जिले अपवाद नहीं हैं। हालांकि, डीएमएफ फंड खनन वाले जिलों में पोषण सबंधी परेशानियों का समाधान करने और उसमें सुधार व पोषण को प्रोत्साहित करने की बड़ी क्षमता रखती है।  सभी जिलों में यह एक बड़ी प्राथमिकता वाला क्षेत्र है, इसके बावजूद डीएमएफ नियमों में महिलाएं और बच्चों का विकास उपेक्षित ही है। यदि किसी तरह का निवेश होता भी है तो वह आंगनवाड़ी केंद्रों तक ही संकुचित हो गया है। 
क्योंझर और अनूपपुर जिलों ने कामचलाऊ सोच से आगे निकलकर आंगनवाड़ी केंद्रों में जाने से पहले ही बच्चों में पोषण संबंधी परेशानियों का समाधान करने की कोशिश की। बच्चों की शुरुआती तीन वर्ष की उम्र उनकी लंबी सेहत के लिए बेहद अहम होती है। इस उम्र तक के बच्चों के लिए पोषण कार्यक्रम नहीं हैं। इन दोनों स्वतंत्र कामों में  एक्सपर्ट, स्थानीय गैर सरकारी संस्था, सामुदायिक भागीदारी और शिशु गृह के लिए स्थानीय कामकाजी महिला की नियुक्ति और 0 से 3 वर्ष उम्र तक आयु समूह वाले बच्चों की देखभाल जैसी बातें एकसमान हैं। 
क्योंझर लौह अयस्क का सबसे बड़ा उत्पादक है। पूरे देश में सबसे ज्यादा डीएमएफ का उपभोग करता है। ग्रामीण बहुल इस जिले में 45 फीसदी आदिवासी हैं। बच्चों में पोषण की काफी कमी है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस) का आकलन यह दर्शाता है कि पांच वर्ष से कम उम्र के 44 फीसदी बच्चे बौने और अंडरवेट हैं। वहीं, सालाना स्वास्थ्य सर्वे, 2012 के मुताबिक पांच वर्ष से कम उम्र बच्चों की मृत्यु दर 70 है। क्योंझर भारत का पहला जिला है जिसने डीएमएफ के जरिए शिशुगृह में निवेश किया है। 2018 में जिले ने झारखंड और उड़ीसा में बाल पोषण पर काम करने वाले संगठन एकजुट से करार किया था। शिशुगृृह बच्चों को खाना और पोषण में सहयोग देता है। साथ ही स्वच्छ आदतों को बनाने में और बच्चों के मानसिक विकास प्रक्रिया को तेज करने में भी मदद करता है। 
अनुमान के मुताबिक शिशुगृह में मिलने वाले खाद्य उत्पाद बच्चों में 70 फीसदी पोषण की जरूरत को पूरा कर देते हैं। एक साल तक 30 शिशुगृह चलाने के बाद इनकी संख्या दोगुनी हो गई है जो कि खनन प्रभावित क्षेत्रों जैसे जोडा, बंसपाल और हरिचंदपुर में फैली हुई है।  60 शिशुगृह की कुल लागत 2.5 करोड़ प्रति वर्ष आती है।  एकजुट संस्था के शिबानंद रथ ने कहा कि इस विचार से समुदाय में स्वामित्व का भाव भी पैदा होता है। इसलिए हम स्थानीय समुदायों के साथ लगातार बैठक करते हैं। शिशुगृहों के अच्छी तरह से संचालन में मदद करते हैं।  हर शिशुगृह में देख-रेख करने वालो दो महिलाओं को जिम्मेदारी सौंपी गई है। यह महिलाएं उसी गांव की हैं। एकजुट के प्रबंधक और निगरानीकर्ता शिशुगृहों की निगरानी करते हैं। जिलाधिकारी अनिवार्य रूप से प्रतिमाह रिपोर्ट लेते हैं और इस मामले में बैठक करते हैं।      
एमपी की फुलवारी ने घटाई चिंता 
 
मध्य प्रदेश कुपोषण सूचकों में देश के सबसे खराब राज्यों में से एक है। अनूपपुर में भी स्थितियां अलग नहीं हैं। जिले में 40 फीसदी बच्चे अंडरवेट हैं 33 फीसदी बच्चे कमजोर हैं। यहां बेहतरी के लिए जिले के डीएमएफ ने गैर सरकारी जन स्वास्थ्य सहयोग से करार कर फुलवारी की नींव रखी है। यह 0-3 वर्ष आयु वाले बच्चों के लिए शिशुगृह है। वहीं, जन स्वास्थ्य सहयोग जिला प्रशासन को नेशनल हेल्थ मिशन को लागू करने में सहयोग देता है। अनूपपुर में फुलवारी को सर्वाधिक आदिवासी बहुल पुष्पराजगढ ब्लॉक में पायलट योजना के तहत शुरू किया गया। यह खादानो के आसपास स्थित नहीं है लेकिन यहां कुपोषित बच्चों की संख्या 80 फीसदी तक है। इसलिए इसे डीएमएफ के तहत फुलवारी के लिए चुना गया। इस वक्त कुल 56 फुलवारी हैं जो बच्चों के विकास के लिए पोषण की जरूरतों को पूरा कर रही हैं। बच्चों की देखरेख के लिए गांव से ही महिलाओं का चयन होता है। कुछ फुलवारी घरों से भी संचालित हो रही हैं। इनकी निगरानी जेएसएस के सुपरवाइजर और प्रोजेक्ट मॉनीटर करते हैं। इस पहल को डीएमएफ और एनएचएम के संयुक्त सहयोग से शुरू किया गया। सभी फुलवारी को सालाना एक लाख रुपये दिए जाते हैं। चमेली देवी को अब यह राहत महसूस होती है कि वह अपनी 18 महीने की बच्ची को फुलवारी में छोड़कर बिना चिंता खेतों में काम करने के लिए जा सकती हैं।