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उत्तराखंड: कोरोना काल में भी इस भुतहा गांव में नहीं लौटे लोग

Raju Sajwan

कोरोनावायरस संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए पूरे देश में लॉकडाउन के बाद सबसे अधिक असर बड़े शहरों में रह रहे प्रवासियों पर पड़ा और जब शहरों में काम नहीं रहा तो वे अपने घर-गांव लौट गए। उत्तराखंड में लगभग तीन लाख लोग अपने गांव-घर लौटे हैं और इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन अभी भी कई गांव वीरान हैं। इनमें से एक गांव है बलूणी, जो राज्य के भुतहा गांवों में शामिल है।

उत्तराखंड के पौड़ी जिले के कल्जीखाल ब्लॉक का यह गांव बलूणी लगभग ढाई साल पहले तब चर्चा में आया था, जब यहां रह रहे आखिरी व्यक्ति श्यामा प्रसाद भी गांव छोड़ कर चले गए थे। 2011 की जनगणना के मुताबिक बलूणी गांव की आबादी 32 थी, लेकिन एक-एक कर यहां से लोग जाते रहे और जनवरी 2018 में श्यामा प्रसाद को भी यहां से जाना पड़ा। श्यामा प्रसाद की उम्र उस समय 66 साल थी और यहां अपनी खेती की वजह से रुके हुए थे। लेकिन कुछ समय से तबियत खराब रहने के कारण वे गांव से कोटद्वार चले गए।

कोटद्वार, पौड़ी गढ़वाल का प्रवेश द्वार माना जाता है और उत्तराखंड का आठवां बड़ा शहर है। लॉकडाउन के बाद उत्तराखंड के भुतहा गांव की स्थिति जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने ग्राम पंचायत सैनार से संबंद्ध बलूणी गांव का जायजा लिया। कोटद्वार से लगभग 70 किलोमीटर दूर बसे इस गांव तक पहुंचने के लिए सड़क बनी हुई है, लेकिन आवाजाही न होने के कारण सड़क पर ही झाड़ियां उग आई हैं। मुख्य सड़क से लगभग तीन किलोमीटर दूर पैदल ही गांव तक पहुंचना आसान न था।

गांव में लगभग एक दर्जन घर सुनसान पड़े हैं। ज्यादातर टूट चुके हैं। कुछ घरों में लगे ताले बताते हैं कि कुछ साल पहले तक वहां लोगों को आना-जाना था। लेकिन आंगन में उग आई झाड़ियां बताती हैं कि अगर कोरोनावायरस संक्रमण के इस दौर में कोई शहर छोड़कर यहां रहने आ भी जाए तो उसे कम से कम दो दिन अपने आसपास की झाड़ियां हटाने में लग जाएंगे।

श्यामा प्रसाद के गांव छोड़ने की खबर प्रकाशित करने वाले पत्रकार गणेश काला बताते हैं कि जब श्यामा प्रसाद गांव छोड़ कर गए थे, ठीक उन्हीं दिनों तक गांव तक सड़क भी पहुंच गई। लोगों द्वारा गांव छोड़ने की वजह के बारे में काला कहते हैं कि कुछ लोगों ने जीवन की बेहतरी के लिए गांव छोड़ा तो कुछ लोग शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए गांव छोड़ गए।

हालांकि इस गांव के लोगों की खास बात यह है कि वे अपने गांव से जुड़े रहने के लिए हर साल जून में दो तीन दिन तक एक धार्मिक कार्यक्रम करते हैं। इसके लिए वहां मंदिर के निर्माण के अलावा साथ ही एक सामुदायिक भवन बनाया गया है। पास के गांव के एक बुजुर्ग ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों से बलूणी गांव के लोग जून में मंदिर में जुटते हैं और साथ बने एक हॉल में ही रहते हैं। तीन दिन गांव में मेले जैसा माहौल होता है और उसके बाद बाद लोग शहर निकल जाते हैं, लेकिन इस बार शायद लॉकडाउन की वजह से लोग गांव नहीं आ पाए।