जलवायु में आता बदलाव यूं तो हर किसी को किसी न किसी रूप में प्रभावित कर रहा है, लेकिन यह महिलाओं और बच्चियों के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी नई रिपोर्ट से पता चला है कि जलवायु में आता बदलाव 2050 तक 15.8 करोड़ महिलाओं और बच्चियों को गरीबी के भंवर में धकेल देगा।
रिपोर्ट की मानें तो यह आंकड़ा पुरुषों और लड़कों की तुलना में 1.6 करोड़ अधिक है। मतलब की जलवायु में आता बदलाव भी महिलाओं और बच्चियों की कहीं ज्यादा परीक्षा लेगा। इतना ही नहीं जलवायु में आते बदलावों से महिलाओं के लिए भोजन की कमी और खाद्य सुरक्षा की स्थिति कहीं ज्यादा बदतर हो जाएगी।
इसके बावजूद जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दुनिया की केवल 55 राष्ट्रीय योजनाओं में महिलाओं के लिए अनुकूलन से जुड़े विशिष्ट उपाय मौजूद हैं। वहीं केवल 23 राष्ट्रीय योजनाएं जलवायु परिवर्तन से लड़ने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करती हैं।
इसकी वजह से और 23.6 करोड़ महिलाओं और बच्चियों को पेट भर खाने के लिए संघर्ष करना पड़ सकता है। ऐसे में पर्याप्त भोजन और आर्थिक विकास सुनिश्चित करने के लिए, खाद्य और कृषि क्षेत्रों में भूमि और संसाधनों तक महिलाओं को बेहतर पहुंच प्रदान करके उन्हें सशक्त बनाना महत्वपूर्ण है।
यह जानकारी महिला सशक्तिकरण के लिए प्रयास कर रहे संगठन यूएन वीमेन द्वारा जारी नई रिपोर्ट, "प्रोग्रेस ऑन द सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स: द जेंडर स्नेपशूट 2023" में सामने आई है। यह पहली मौका है जब यूएन वीमेन ने अपनी रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अध्ययन करते समय पुरुषों और महिलाओं को अलग किया है।
दुनिया भर में हम भले ही कितनी भी समानता और महिला सशक्तिकरण की बात कर लें लेकिन सच यही है कि महिलाएं आज भी पुरुषों के बराबर दर्जा पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। महिला-पुरुष के बीच असमानता की यह खाई सतत विकास के लक्ष्यों में भी साफ देखी जा सकती है।
रिपोर्ट में सतत विकास के सभी 17 लक्ष्यों (एसडीजी) में लैंगिक समानता से जुड़े रुझानों और समस्याओं को उजागर किया है। साथ ही यह भी दर्शाया गया है कि 2030 तक इन लक्ष्यों को हासिल करने से हम कितनी दूर हैं।
क्या सिर्फ महज जुमले हैं सबको साथ लेकर चलने के वादे
इस बारे में यूएन वीमेन ने आगाह किया है कि दुनिया 2030 तक लैंगिक समानता को हासिल करने की राह में पिछड़ रही है। आंकड़ों के मुताबिक यदि ऐसा ही चलता रहा तो 2030 तक आठ फीसदी यानी 34 करोड़ से ज्यादा महिलाएं और बच्चियां बेहद गरीबी में जीवन बसर करने को मजबूर होंगी। वहीं करीब चार में से एक के पास खाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं होगा।
इतना ही नहीं रिपोर्ट ने आगाह किया है कि अगर चीजें न बदलीं, तो 2050 तक महिलाओं की अगली पीढ़ी पुरुषों की तुलना में बिना मजदूरी के देखभाल और घरेलू कामों पर हर दिन 2.3 घंटे अधिक खर्च करेगी।
रिपोर्ट ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि नेतृत्व और महत्वपूर्ण पदों के मामले में लैंगिक असमानता की खाई अभी भी बेहद गहरी है। आंकड़ों की मानें तो वैश्विक स्तर पर महिलाओं के पास संसद में केवल 26.7 फीसदी सीटें हैं। वहीं स्थानीय सरकार में इनकी हिस्सेदारी 35.5 फीसदी और कार्यक्षेत्र में केवल 28.2 फीसदी महिलाऐं ही प्रबंधन के कामकाज देख रही हैं।
इस साल रिपोर्ट में बुजुर्ग महिलाओं पर विशेष ध्यान दिया है। इससे पता चला है कि वृद्ध महिलाओं को वृद्ध पुरुषों की तुलना में कहीं ज्यादा गरीबी और हिंसा का सामना करना पड़ता है। जिन देशों के आंकड़े उपलब्ध हैं उनके मुताबिक 116 में से 28 देशों में आधे से भी कम बुजुर्ग महिलाओं को पेंशन मिलती है।
वहीं 12 देशों में 10 फीसदी से भी कम महिलाओं की पहुंच पेंशन तक है। देखा जाए तो हम सतत विकास के लिए 2030 के लिए निर्धारित लक्ष्यों का आधा सफर तय कर चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद सतत विकास के लैंगिक समानता के लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रगति जहां होनी चाहिए थी, उससे बेहद दूर है। रिपोर्ट स्पष्ट तौर पर दर्शाती है कि दुनिया महिलाओं और बच्चियों के समर्थन में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर रही है।
रिपोर्ट के अनुसार दुनिया का कोई भी देश पारिवारिक हिंसा को पूरी तरह रोकने के करीब नहीं पहुंचा है। अनुमान है कि हर साल करीब 24.5 करोड़ महिलाएं और लड़कियां अपने साथी द्वारा शारीरिक या यौन हिंसा का शिकार बनाई जाती हैं।
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार में पिछड़ती महिलाएं
वहीं केवल 27 देशों में लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण के लिए निगरानी और धन आबंटित करने की समुचित व्यवस्था है। कुछ ऐसी ही स्थिति शिक्षा क्षेत्र की भी है। रिपोर्ट की मानें तो शिक्षा के क्षेत्र में जिस तेजी से प्रगति हो रही है उसके चलते अनुमान है कि 2030 तक करीब 11 करोड़ बच्चियां शिक्षा से वंचित रह जाएंगी।
आज दुनिया में हर तीन शोधकर्ताओं में से केवल एक महिला है। इतना ही नहीं विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (एसटीईएम) से जुड़े क्षेत्र में महिलाओं के पास केवल 21 फीसदी नौकरियां हैं। इतना ही नहीं तकनीकों और नवाचार के क्षेत्र में लैंगिक असमानता एक बड़ी समस्या है, जो महिलाओं के लिए एसटीईएम से जुड़े क्षेत्रों में भविष्य को कठिन बना देती है। यह कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी नई प्रौद्योगिकियों में भी उनकी प्रगति को धीमा कर रही है।
कुछ ऐसा ही स्वास्थ्य के मामले में भी सामने आया है। भले ही 2000 से 2020 के बीच मातृ मृत्यु दर में एक तिहाई की गिरावट आई है, लेकिन इसके बाद 2015 से इस दिशा में हो रही प्रगति थम सी गई है। रोजगार के क्षेत्र में देखें तो महिलाओं की स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है।
आंकड़ों की मानें तो काम करने योग्य आयु की सभी महिलाओं में से केवल 61 फीसदी के पास ही रोजगार है, जबकि उसी आयु वर्ग के पुरुषों के लिए, यह आंकड़ा 91 फीसदी है। इसका न केवल आर्थिक विकास बल्कि सामाजिक प्रगति पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। यदि आय की बात करें तो 2019 में, पुरुषों द्वारा अपने काम के बदले अर्जित हर रुपए के मुकाबले महिलाओं ने केवल 51 पैसे ही कमाए थे।
रिपोर्ट की मानें तो 2050 तक, दुनिया की करीब 70 फीसदी महिलाएं शहरों में रह रही होंगी, जिनकी कुल संख्या करीब 330 करोड़ के आसपास होगी। लेकिन अफसोस की बात है, इनमें से करीब एक तिहाई महिलाएं और बच्चियां उस दौरान मुश्किल परिस्थितियों और झुग्गी-बस्तियों में रहने को मजबूर होंगी।
विकलांग महिलाओं के लिए जो महिलाओं के करीब 18 फीसदी हिस्से का प्रतिनिधित्व करती हैं उनके लिए समस्याएं कहीं ज्यादा बढ़ जाएंगी। 2022 में किए एक अध्ययन से पता चला है कि 190 देशों में से केवल 27 फीसदी में महिलाओं के अधिकारों को स्पष्ट तौर पर सुरक्षा दी गई है।
रिपोर्ट में साझा की गई जानकारी के मुताबिक यदि ऐसा ही चलता रहा तो 2030 तक करीब 34.1 करोड़ महिलाएं और बच्चियां के पास बिजली उपलब्ध नहीं होगी। देखा जाए तो यदि सभी को बिजली मिल सके तो इससे गरीबी और महिला स्वास्थ्य में सुधार लाने में काफी मदद मिल सकती है।
यह सही है कि आज पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा महिलाओं की सुरक्षित पेयजल तक पहुंच है। इसके बावजूद अभी भी 38 करोड़ महिलाएं और बच्चियां गंभीर जल संकट का सामना करने को मजबूर हैं। वहीं जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहे हैं उसके चलते 2050 तक यह आंकड़ा 67.4 करोड़ तक पहुंच सकता है।
ऐसे में जब हमारे पास सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने के केवल सात वर्ष ही बचे हैं तो हमें पहले की तुलना में कहीं ज्यादा प्रयास और निवेश करने की जरूरत है। यहां तक की हर छोटा कदम भी मायने रखता है क्योंकि वो हमें बेहतर भविष्य के एक कदम और करीब ले जाता है।
सभी देश एक-दूसरे को जो सहायता देते हैं, उसमें से केवल 4 फीसदी का उपयोग लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए किया जाता है। वहीं रिपोर्ट की मानें तो 2030 तक लैंगिक समानता के लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें हर साल और 36,000 करोड़ डॉलर के निवेश की जरूरत है।
पुरुषों के समान कानूनी अधिकारों से वंचित महिलाएं
विडम्बना देखिए कि आज की इस दुनिया में भी महिलाओं के पास पुरुषों के समान कानूनी अधिकार नहीं हैं। करीब 28 देशों में, विवाह और तलाक के मामले में महिलाओं को पुरुषों के समान कानूनी अधिकार नहीं मिले हैं। इसी तरह 67 देशों में महिलाओं के साथ होने वाले गलत व्यवहार के खिलाफ कोई कानून नहीं है। यहां तक कि उन जगहों पर जहां लैंगिक समानता के लिए कानून मौजूद हैं, वहां अभी भी यह सुनिश्चित करना एक समस्या है कि उन्हें व्यवहार में कैसे लाया जाए।
संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों से जुड़े विभाग, डीईएसए में नीति समन्वय की प्रमुख मारिया-फ्रांसेस्का स्पैटोलिसानो का कहना है कि, "2030 के लिए जारी एजेंडा में लैंगिक समानता सिर्फ एक लक्ष्य नहीं है, यह एक निष्पक्ष समाज की नींव है। यह एक ऐसा लक्ष्य है जिस पर अन्य सभी लक्ष्य निर्भर करते हैं। उनके मुताबिक ऐसे में जब हम उन बाधाओं को दूर करते हैं जो महिलाओं और बच्चियों को समाज में पूरी तरह से भाग लेने से रोकती हैं, तो हम उनकी छिपी क्षमताओं को उजागर करते हैं, जो हर किसी की प्रगति और समृद्धि लाने में मदद कर सकती हैं।
देखा जाए तो महिलाओं की डगर आसान नहीं है। उन्हें आज भी हर दिन गरीबी, खाद्य सुरक्षा, अशिक्षा, रोजगार, जलवायु परिवर्तन जैसी कई समस्याओं से रूबरू होना पड़ता है। इतना ही नहीं बाल विवाह और खतना जैसी कुप्रथाएं आज भी उनका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं। दुनिया में आज भी हर पांच में से एक युवा की शादी 18 साल से पहले हो जाती है।
यह स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि हमें महिलाओं के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। साथ ही ऐसे कानून बनाने की भी जरूरत है जो महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की रक्षा कर सके।