विकास

अर्थव्यवस्था को पढ़ना होगा पर्यावरण का पाठ

अगर हम ढांचागत स्तर पर देखें तो एसडीजी को लेकर साफ नजरिया तो दूर की बात है, अभी हमारी कोई समझ ही विकसित नहीं हुई है।

Amitabh Behar

मेरी समझ से आज जो सहिष्णुता का सवाल उठा है उस पर बहस करनी ही होगी। बिना सहिष्णुता के कुछ भी नहीं है। जब भारत आजाद हुआ तो उसमें बहुत सी बुनियादी बातें थी जिसमें सबसे अहम था आजादी। यह आजादी कई स्तरों पर थी। आज यह आजादी साफ तौर पर खतरे में दिख रही है। अब आगे जो भी सरकार आए उसे लोगों को मुकम्मल आजादी का भरोसा दिलाना होगा। सहिष्णुता और आजादी के सवाल पर पूरे देश को भरोसे में लेना होगा कि कोई खौफ में न जिए। हमें विकास के अर्थ को समझना होगा। मैं मानता हूं कि सुरक्षा बहुत अहम है लेकिन वह भारत जैसे गरीब देश में राजनीतिक विमर्श नहीं बन सकता। हमारे देश में जहां इतनी समस्याएं हैं, तरह-तरह का शोषण है, भयानक गरीबी है वहां बाहर से दुश्मन न खोजे जाएं, इन बुराइयों को हराना हमारी पहली जरूरत है। ये समस्याएं सतत विकास का पूरा ढांचा खड़ा करती हैं। मैं अमर्त्य सेन की बहुत इज्जत करता हूं। लेकिन उनके नजरिए में सिर्फ मानव विकास है। लेकिन पर्यावरण को दरकिनार कर कैसा मानव विकास होगा। आज भी पर्यावरण के मुद्दों को न तो हम उठाते हैं और न उस पर बात करने की जरूरत महसूस करते हैं। एसडीजी एक ऐसा ढांचा है जिसमें आर्थिक और सामाजिक के साथ पारिस्थितिकी को भी शामिल किया गया है। इसलिए यह सतत विकास का मुकम्मल ढांचा है।

इस मामले में हम बुनियादी स्तर पर ही बहुत पिछड़े हुए तो आगे के लिए हमें बहुत कुछ करना पड़ेगा। अगर हम ढांचागत स्तर पर देखें तो एसडीजी को लेकर साफ नजरिया तो दूर की बात अभी कोई समझ ही विकसित नहीं हुई है। फिलहाल इसे लेकर तीन मुख्य बिंदु -टारगेट, गोल और इंडीकेटर। संयुक्त राष्ट्र ने गोल और टारगेट तो तय कर दिया था। इंटीकेटर को देशों को अपने हिसाब से तय करना था। तो हालत यह है कि आज भी हमारे पास कैबिनेट से मंजूर किए इंडीकेटर की सूची नहीं है। यह तब है जबकि प्रधानमंत्री ने सितंबर, 2015 में न्यूयार्क में घोषणा की थी कि भारत पूरी ताकत से एसडीजी के लिए जुटेगा। उनके भाषण में इतना जोश था कि लगा देश अब इसे समझेगा। लेकिन तब से लेकर आज तक हमारे पास इंडीकेटर ही नहीं हैं।

मजेदार तथ्य यह है कि इंडीकेटर के लिए नीति आयोग को जिम्मेदारी दी गई । अब नीति आयोग इस मसले को सिर्फ संयोजित करेगा, यानी कोआर्डिनेशन करेगा। लेकिन इसे ढंग से लागू करवाना है तो अंतरमंत्रालयों को इसमें शामिल करना होगा, जो कभी ईमानदारी से इसमें शामिल नहीं हुए। वे अपनी अलग धुन में चल रहे हैं। इतनी अहम चीज को कितने गैरजिम्मेदाराना तरीके से लिया जा रहा, उसका एक उदाहरण बताता हूं।

एसडीजी में जो पहला दस्तावेज नीति आयोग ने बनाया उसमें जल व्यवस्था में सतत विकास की बात कही गई और इसमें इंटरलिंकिग आफ रिवर्स की बात रखी गई। अब जो लोग थोड़ा-बहुत भी पर्यावरण समझते हैं वे आज के दौर में इंटरबेसिन की तो बात ही नहीं कर रहे हैं। चलिए इंट्राबेसिन तो बोल भी देते हैं लेकिन इंटरलिंकिंग नहीं। यह तो एसडीजी की बुनियादी सोच को ही खत्म कर रहा है। अब कोड-16 गृह मंत्रालय को दिया गया है जो मानवाधिकारों से जुड़ा मुद्दा है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि यही मंत्रालय मानवाधिकारों का सबसे ज्यादा उल्लंघन करता है। इसमें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी शामिल किया जा सकता था। सबसे बड़ी समस्या यह है कि बिना सोचे-समझे सिर्फ कागजी कार्रवाई कर दी गई है। एक तथ्य और अहम है कि मैं एसडीजी पर राज्य सरकारों के साथ काम करता रहा हूं। मैं कम से कम 15 राज्यों के मुख्य सचिवों से मिला। लेकिन एसडीजी की बात करते ही वे सबसे पहले पूछते हैं कि यह क्या है। कम से कम बारह राज्यों के मुख्य सचिवों ने सीधे-सीधे कहा कि इसमें हमारे लिए क्या है? यह सब देख-सुनकर बहुत अजीब लगता है। राज्य के स्तर पर जिम्मेदारी और अगुआई का कोई भाव ही नहीं बन पाया है। यह स्थिति बहुत दुखद है। वैश्विक स्तर पर हमने हल्ला कर दिया लेकिन राज्य सरकार के मुख्य सचिवों के काम करने का जो ढांचा बना है आप उसका आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं। उनके बयान होते हैं-अच्छा करेंगे, कर लेंगे।

चलो योजना सचिव को बुलाओ। यह समस्या राजनीतिक दलों की नहीं है। 2009 तक हमारे यहां सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) नहीं जानते थे। हम कहते थे कि इसे लोकप्रिय करना होगा। एसडीजी इतनी बड़ी चीज बन गई है। यह दुनिया को बदलने की बात कर रही है, दुनिया की सोच को बदलने की बात कर रही है। इतने अहम मसले पर कितने लेख लिखे गए और कितनी बहसें हुई? जब भी इसका आकलन होता है कि हमने क्या किया, वह केवल खानापूर्ति ही होता है। दुखद हालत यह है कि भारत में अंतरराष्ट्रीय समझौतों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है।

इल्जाम तो राजनीतिक व्यवस्था को लगाना होगा। हमारे प्रधानमंत्री ने जब न्यूयार्क में भाषण दिया तो लगा कि पूरा भारत एसडीजी के आंदोलन में जुड़ जाएगा। मैं कुछ समय पहले सांसद शशि थरूर से मिला। थरूर का संयुक्त राष्ट्र में काम करने का लंबा अनुभव रहा है। वे विदेश मामलों के स्टैडिंग कमेटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने कहा कि हमें इसके लिए सम्मिलित नहीं किया गया है। अब अगर सांसदों को ही इसमें नहीं शामिल किया गया तो हमें इन हालातों को समझना होगा। एक बहुत बड़ा संकट है भारत के आम लोगों, राजनेताओं, बुद्धिजीवियों का अंतर्राष्ट्रीय समझौतों से दूर रहना। जो चर्चा हो रही थी उसे विदेश मंत्रालय कर रहा था। इतनी बड़ी समस्या को सिर्फ विदेश मंत्रालय को करना था या सबके साथ मिलकर करना था। मैं पहले कह चुका हूं कि इसमें सांसदों तक को नहीं जोड़ा, हम राज्य सरकारों पर रुक गए। इस मसले पर काम करने के दौरान कई स्थानीय समूहों से मिला। सरपंच, जिला अध्यक्ष को इसके बारे में कुछ नहीं पता है। मुझे बुलाया गया प्रशिक्षण के लिए। नई विधानसभा छत्तीसगढ़ में बनी। वहां के विधानसभा अध्यक्ष ने मुझे इन विधायकों से बात करने के लिए आमंत्रित किया। उस परिचर्चा में 60 विधायक आए और उन्हें कुछ भी नहीं पता था, बस एसडीजी का नाम सुना था।

आने वाली सरकार को इसके लिए आंदोलन करना होगा, संपूर्ण साक्षरता मिशन जैसा जनआंदोलन करना होगा। दुर्भाग्यवश आज हमारा समाज इतने तरह से बंटा हुआ है कि ऐसा कोई आंदोलन बहुत आसान नहीं होगा। लेकिन सहिष्णुता को बढ़ाने के लिए यह जरूरी है। आज विभिन्न विमर्शों में इस बात पर जोर दिया गया है कि अब उत्पादन ही नहीं उपभोग को भी कम करना होगा। उत्पादन से ज्यादा मुश्किल उपभोग का सवाल है। उपभोग के पैटर्न को बदलना आसान नहीं है। हरित तकनीक से आप उत्पादन को बदल देंगे। लेकिन बिना किसी जनांदोलन के उपभोग का ढांचा नहीं बदल पाए। एसडीजी को सिर्फ नीतिगत चौखटे में नहीं देखें। यह वो दस्तावेज है जो हमारे समाज को संगठित करने का रास्ता दिखाता है। यह सोच का मामला है। मैंने इसलिए दोनों शब्द का इस्तेमाल किया। मैंने पल्स पोलियो मिशन नहीं संपूर्ण साक्षरता मिशन का उदाहरण दिया क्योंकि यह समाज की तरफ से भी हुआ था। यह नहीं है कि हम पल्स पोलियो से नहीं सीख सकते। यह एक मुद्दा नहीं है, सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। बुनियादी बात यह है कि अर्थव्यवस्था को पर्यावरण और सामाजिक विकास का भी पाठ पढ़ना होगा।

सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार को इस मसले पर पूरी सकारात्मकता दिखानी चाहिए। अगर इसके लिए अलग से पैसे की व्यवस्था नहीं की जाएगी तो इस मुद्दे पर बात कैसे होगी, काम कैसे होगा, आगे कैसे बढ़ेंगे। खाद्य सुरक्षा एक मुद्दा है जिसका ब्लू प्रिंट तैयार है। वितरण की दिक्कत है कुछ इलाकों में। लोगों की निगरानी बेहतर है। हम इसी को लागू करने के लिए पूरी मेहनत करें। अब दिक्कत है कि आपका आधार कार्ड और अंगूठे का निशान नहीं मिला तो आप इस योजना से वंचित रह जाएंगे। मैं जमीनी हकीकत बताता हूं। एक गांव में एक खास जगह पर ही मोबाइल नेटवर्क आता है। लोग वहां इंतजार करते हैं। निखिल डे ने वैसी जगह का जिक्र किया है जहां नेटवर्क सिर्फ एक पेड़ के ऊपर आता है। हमारे अधिकार देकर सरकार हम पर अहसान नहीं कर रही है। फिर बुनियादी अधिकार को लेने के लिए गैरजरूरी चीजों को क्यों शामिल किया। अभी जब हंगर इंडेक्स जारी होता है तो भारत दुनिया के 120 देशों में 100 नंबर के आस-पास रहता है। सोचिए यह कितना दुखद है कि ऐसे देश जहां भूख का संकट सबसे ज्यादा है, उनमें भारत शीर्ष पर है। यही हमारी चुनौती है, यही हमारी जंग है। इसी मुद्दे से सारा मुद्दा जुड़ा होना चाहिए।

(लेखक दिल्ली स्थित ऑक्सफेम इंडिया में मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं)