विकास

मनरेगा के बंद होने से रोजगार की तलाश में खाली हो रहे पश्चिम बंगाल के ‘भुतहा’ गांव

रोजगार के अवसरों में कमी के चलते पश्चिम बंगाल के ग्रामीण परिवार स्थाई तौर पर अपने घरों को छोड़ पलायन करने को मजबूर हैं

Himanshu Nitnaware, Lalit Maurya

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में मौजूद जलांगी, कभी 70 घरों वाला एक भरा-पूरा गांव था। लेकिन आज इस गांव में सन्नाटा है, यह एक भुतहा गांव में तब्दील हो चुका है, यहां 50 से ज्यादा घर खाली पड़े हैं। पश्चिम बंगाल में यह अकेला ऐसा गांव नहीं, जो इस समस्या से जूझ रहा है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा के अचानक से बंद होने के बाद से पश्चिम बंगाल में कई ऐसे गांव है जहां इस तरह के भयावह बदलाव सामने आए हैं।

करीब दो साल पहले राज्य के कई गांवों में मनरेगा को अचानक से बंद कर दिया गया। डाउन टू अर्थ (डीटीई) ने इसके प्रभावों का आंकलन करने के लिए इन क्षेत्रों का दौरा किया और पाया कि रोजगार के अवसरों की कमी ने पहले ही चुनौतियों से जूझती आर्थिक स्थिति को बद से बदतर बना दिया है। इसकी वजह से वहां रहने वाले लोगों को अनिश्चितता और निराशा से जूझना पड़ रहा है।

21 दिसंबर, 2021 को, केंद्र सरकार ने अचानक से महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम की धारा 27 को लागू कर दिया था, जिससे योजना के लिए धन को रोक दिया गया था। इसके बाद से 2022 में अधिनियम के तहत कोई नया कार्य शुरू नहीं किया गया। न ही तब से, पश्चिम बंगाल के लिए इस योजना के तहत 2023-24 और 2024-25 के लिए कोई श्रम बजट स्वीकृत किया गया है।

गौरतलब है कि मनरेगा एक सरकारी योजना है, जिसका उद्देश्य भारत में ग्रामीण परिवारों को मजदूरी के साथ 100 दिनों के लिए रोजगार देना है। यह योजना लम्बे समय से पश्चिम बंगाल के लाखों कमजोर परिवारों के लिए जीवन रेखा रही है। ग्रामीणों से बात करने पर पता चला कि सरकार द्वारा बनाए गए पक्के घरों में रहने वाले लोगों ने भी अपने परिवारों के साथ पलायन का विकल्प चुना है।

अब ये लोग जरूरत पड़ने पर या अधूरे रह गए अपने कार्यों को पूरा करने के लिए दो से तीन साल में अपने गांव वापस आते हैं। वे कुछ महीनों तक या जब तक उनके पैसे खत्म नहीं हो जाते तब तक रुकते हैं, उसके बाद फिर काम की तलाश में दूसरे राज्यों में चले जाते हैं।

बाकी घरों में केवल महिलाएं, बच्चे या बुजुर्ग ही बचे हैं, वहां मुट्ठी भर पुरुषों को छोड़कर अधिकांश रोजगार की तलाश में घर छोड़ चुके हैं।

बिदुपुर कॉलोनी में रहने वाले 31 वर्षीय सुसान मोंडल का कहना है कि, "ज्यादातर लोग रमजान के महीने में अस्थाई रूप से लौटे हैं।" उन्होंने बताया कि उनकी कॉलोनी और आसपास में कोई भी पुरुष गांव में रहकर काम नहीं कर रहा।

मोंडल ने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए बताया कि, "पहले बढ़ई का काम करते समय मेरे पैर में चोट लग गई थी, इसलिए मैं ठीक होने के लिए घर वापस आ गया। अन्यथा में बिना किसी काम के यहां रहना नहीं चुनता।"

जलांगी के शेष घरों में केवल महिलाएं, बच्चे या बुजुर्ग बचे हैं। मुट्ठी भर पुरुषों को छोड़कर, सभी रोजगार के अवसरों की तलाश में बाहर चले गए हैं। फोटो: केए श्रेया/डीटीई

गांवों पर पड़ रहा मनरेगा के बंद होने का गंभीर असर

मोंडल का कहना है कि जो लोग काम कर सकते हैं वो केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गोवा, राजस्थान और दिल्ली जैसे राज्यों को पलायन कर जाते हैं। जो वहां निर्माण, ईंट भट्टों, कृषि मजदूर, या कैब ड्राइवर के अलावा अन्य लोगों के यहां छोटे-मोटे काम करते हैं। उन्होंने बताया कि, "जहां भी काम होता है हम वहां जाते हैं। जब कोई ठेकेदार काम की पेशकश करता है, तो हम पसंद को ध्यान में रखते हुए सबसे अच्छे विकल्प का चुनाव करते हैं।"

मनरेगा के बंद होने का असर विशेष रूप से गांवों पर पड़ रहा है। चूंकि इन क्षेत्रों में बहुत ज्यादा उद्योग या अच्छी विकास नहीं हुआ है, इसलिए क्षेत्र में काम के अवसर भी मौजूद नहीं हैं। ऐसे में योजना से होने वाली अतिरिक्त आय के बिना, जो लोग खेतों में काम करते थे वे उज्जवल भविष्य को लेकर संघर्ष कर रहे हैं।

इस बारे में 50 साल के नाजिमुद्दीन मोंडल ने बताया, "हम गेहूं, तिल और सरसों की खेती करते थे। जब खेती का मौसम नहीं होता था, तो हम मनरेगा के तहत रोजगार की तलाश करते थे।"

उनका कहना है कि मुर्शिदाबाद में श्रमिकों को पिछले पांच वर्षों से भुगतान नहीं किया गया है। उन्होंने बताया कि, "दिसंबर 2021 में पूरे राज्य का भुगतान बंद हो गया और उसके बाद से केंद्र ने मार्च 2022 से काम देना बंद कर दिया।" कम पैदावार और कम मजदूरी के कारण खेतिहर मजदूर के रूप में काम करना भी जीविका चलाने के लिए काफी नहीं है।

उनके मुताबिक मनरेगा के बंद होने से पहले, मजदूरों को 100 दिन काम मिल जाता था, जिसके लिए उन्हें हर दिन के हिसाब से 200 रुपए मिलते थे। यह उनकी लगी बंधी कमाई थी। लेकिन अब वे ऐसे रोजगार के लिए संघर्ष करते हैं जिससे उन्हें हर दिन 250 से 300 की कमाई हो जाए। हालांकि ऐसा कभी कभार ही होता है। कभी-कभी तो उन्हें ऐसे अवसरों की तलाश में उन्हें सप्ताह या पखवाड़े तक का इंतजार करना पड़ता है।

डीटीई को अन्य गांवों और आसपास के क्षेत्रों में भी ऐसी ही स्थिति का पता चला है।

32 वर्षीय ग्रामीण सलीम शेख का कहना है कि, सरकारपुरा के 1,200 ग्रामीणों में से करीब 90 फीसदी गांव छोड़ चुके हैं। "केरल या दिल्ली जैसी जगहों पर काम करने से हमें हर दिन 700 से 800 रुपए मिलते हैं, जो हमारे और हमारे परिवारों का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त है। उन्होंने समझाया चूंकि ठेकेदार या नियोक्ता जीवन-यापन का खर्च वहन करते हैं। ऐसे में हम हर दिन कम से कम 200 रुपए बचा लेते हैं।"

ये परिवार हमेशा काम के लिए लगातार घूमते रहते हैं और उनके पास अपने गांवों की तरह कोई स्थाई घर नहीं होता। "हमें जहां भी काम होता है वहां अलग-अलग राज्यों में जाना पड़ता है। लेकिन हमारे लिए जीविका कमाने का यही एकमात्र तरीका है। उन्होंने सवाल था कि हम काम और आय के बिना कैसे जीवित रह सकते हैं?"