विकास

800 करोड़ आशाएं: समस्याओं के बीच अनंत संभावनाओं से भरी दुनिया

आज दुनिया की आबादी 800 करोड़ हो जाएगी। देखा जाए तो यह 800 करोड़ सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है यह वो 800 करोड़ सपने और आशाएं भी हैं जिनपर पृथ्वी का भविष्य टिका है

Lalit Maurya

आज 15 नवंबर 2022 के दिन धरती पर मानव जाति के 800 करोड़ सदस्य हो जाएंगें। देखा जाए तो यह 800 करोड़ सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है यह 800 करोड़ सपने और आशाएं भी हैं जिनपर पृथ्वी का भविष्य टिका है। पिछले कुछ दशकों से दुनिया की आबादी बड़ी तेजी से बढ़ रही है।

देखा जाए तो आज दुनिया की आबादी बीसवीं शताब्दी के मध्य की तुलना में तीन गुना अधिक है। जहां 1950 में वैश्विक आबाद 250 करोड़ थी वो अगले 37 वर्षों यानी 11 जुलाई 1987 में दोगुनी होकर 500 करोड़ पर पहुंच गई थी। इसके बाद 31 अक्टूबर 2011 में यह आंकड़ा 700 करोड़ पहुंच गया था और अब करीब 11 वर्षों के बाद यह बढ़कर 800 करोड़ पर पहुंचने वाला है।

वहीं संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि यह बढ़ती आबादी 2037 में 100 करोड़ और बढ़ जाएगी। वहीं 2050 तक इसके 970 करोड़ और 2058 तक 1000 करोड़ के आंकड़े को पार कर जाने की सम्भावना जताई गई है। देखा जाए तो 1950 से 2050 के बीच पिछले सौ वर्षों में वैश्विक जनसंख्या में 1962 से 1965 के बीच सबसे ज्यादा तेजी से वृद्धि हुई थी, जब यह हर साल औसतन 2.1 फीसदी की दर से बढ़ रही थी। इसके बाद इसकी गति में उल्लेखनीय कमी आई है।  2020 में इसकी वृद्धि दर एक फीसदी से भी कम रह गई थी। अनुमान है कि सदी के अंत तक भी इसके धीमी गति से बढ़ने की सम्भावना है।

देखा जाए तो वैश्विक आबादी में होती इस वृद्धि में दुनिया के दो देशों भारत और चीन का सबसे बड़ा हाथ है। भले ही आज चीन दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है लेकिन आंकड़े दर्शाते हैं कि 2023 में भारत चीन को पीछे छोड़ पहले स्थान पर पहुंच जाएगा। वहीं यदि 2058 की बात करें जब वैश्विक आबादी एक हजार करोड़ के पार चली जाएगी तो उसमें 16.9 फीसदी भारतीय और 12.3 फीसदी चीनी नागरिक शामिल होंगें।

कठिन, लेकिन मुमकिन है शाश्वत विकास की राह पर चलना

इस बढ़ती आबादी के बीच एक सबसे बड़ा प्रश्न जो पूरी मानव जाति को आतंकित करता है कि क्या हमारी पृथ्वी इतने लोगों की जरूरतें पूरी कर सकती है? यह एक ऐसा सवाल है जो पिछले कई दशकों से हमारे सामने खड़ा है। यह प्रश्न 1960 में तब भी सामने आया था जब यह कहा गया था कि हमारी आबादी कहीं ज्यादा बढ़ गई है।

इसका उत्तर भी हमारे इतिहास में छुपा है। हां पृथ्वी इतने लोगों का पेट भर सकती है और उनकी जरूरतों को पूरा कर सकती है। देखा जाए तो 1970 के बाद से वैश्विक जनसंख्या में होती वृद्धिदर घट रह है जो 2020 में एक फीसदी से भी कम रह गई है। वहीं अनुमान है कि 2080 में अपने चरम पर पहुंचने के बाद इसमें कमी आना शुरू हो जाएगी। आंकड़ों की मानें तो 2050 तक वैश्विक आबादी में होने वाली आधी से ज्यादा वृद्धि केवल आठ देशों भारत, पाकिस्तान, कांगो, मिस्र, इथियोपिया, नाइजीरिया, फिलीपींस और तंजानिया में केंद्रित होगी।

भले ही हम जलवायु परिवर्तन, संघर्ष, घटती जैव विविधता और कोरोना जैसी अनगिनत मुसीबतों से जूझ रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि हमने इन समस्याओं का सामना किया है और एकजुट होकर इनसे जीते भी हैं। स्वास्थ्य, पोषण, साफ पानी, स्वच्छता जैसे क्षेत्रों में किए प्रयासों का ही नतीजा है जिसकी बदौलत एक औसत व्यक्ति की जीवन प्रत्याशा 1950 में 46.6 वर्षों से बढ़कर 2019 में 72.8 वर्षों पर पहुंच गई थी। वहीं इसके 77.2 वर्षों पर पहुंचने की सम्भावना जताई जा रही है।

देखा जाए तो यह हमारी चेतना, ज्ञान और विज्ञान का ही नतीजा है कि जिनके बल पर हमने अनगिनत उपलब्धियों को हासिल किया है। कोरोना के दौर में जब पूरी दुनिया उससे जूझ रही थी तो हमने एकजुट होकर उस समस्या का सामना किया और यह दिखा दिया कि मानव जाति एकजुट होकर क्या कुछ नहीं कर सकती।

विकास और विनाश हम पर ही है निर्भर

लेकिन साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि जहां प्रकृति ने हमें अनंत संभावनाएं दी हैं तो इसकी अपनी कुछ सीमाएं भी हैं। यदि हम स्वयं ही प्रकृति का विनाश करना शुरू कर देंगें तो वो हमारी रक्षा नहीं कर पाएगी। विकास और विनाश यह दोनों ही रास्ते हमारी चेतना और चयन पर निर्भर करते हैं।

आज मनुष्य विकास की दौड़ में इतना अंधा हो गया है उसे विनाश और विकास के रास्ते में अंतर समझ नहीं आ रहा। उदाहरण के लिए कृषि को ही ले लीजिए जो हमें भोजन देती है। हमारे पास इतने साधन मौजूद हैं जो धरती की कुल आबादी से भी ज्यादा लोगों का पेट भर सकते हैं लेकिन इसके बावजूद 82.8 करोड़ लोग आहार की कमी के कारण खाली पेट सोने को मजबूर हैं, वहीं खाद्य पदार्थों का करीब 14 फीसदी हिस्सा जरूरतमंदों तक पहुंचने से पहले ही खराब हो जाता है और उससे भी कहीं ज्यादा हम हर रोज बर्बाद कर देते हैं।

यही स्थिति पानी, हवा, जंगलों, जैवविविधता और अन्य संसाधनों की भी है जिसका हम तेजी से दोहन कर रहे हैं। देखा जाए तो कुछ लोगों की बढ़ते लालच और महत्वाकांक्षा का खामियाजा पूरी मानव जाति को उठाना पड़ रहा है। ऐसे में हमें एकजुट होना होगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम अमीर हैं या गरीब, शहरों में रहते हैं या गांवों में, बुजुर्ग हैं या बच्चे।

जब बात मानवता के विकास और विनाश की आती है तो हमारा एक सम्बन्ध है कि हम सब इस मानव जाति के सदस्य हैं और यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम भविष्य की इन 800 करोड़ आशाओं और उम्मीदों को जीवित रखें, क्योंकि इन्हीं में अपार संभावनाएं मौजूद हैं।