विकास

बढ़ती इंसानी महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ी 3 करोड़ वर्ग किलोमीटर भूमि, संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट

यूएनसीसीडी ने 27 अप्रैल 2022 को ग्लोबल लैंड आउटलुक: लैंड रेस्टोरेशन फॉर रिकवरी एंड रेसिलिएंस रिपोर्ट जारी की

Lalit Maurya

एक तरफ धरती जिसे हम अपनी मां का दर्जा देते हैं वहीं दूसरी तरफ हम अपनी बढ़ती महत्वाकांक्षा के चलते इसके शोषण से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं। आज यूएन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) द्वारा जारी नई रिपोर्ट ‘ग्लोबल लैंड आउटलुक: लैंड रेस्टोरेशन फॉर रिकवरी एंड रेसिलिएंस’ से पता चला है कि दुनिया में करीब 20 फीसदी यानी 3 करोड़ वर्ग किलोमीटर भूमि बढ़ती इंसानी महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ चुकी है।

जिसके लिए कहीं न कहीं भूमि उपयोग में आते बदलाव से प्राकृतिक वातावरण में आती गिरावट, मरुस्थलीकरण, कृषि क्षेत्रों का होता विस्तार, शहरीकरण के चलते मिट्टी की गुणवत्ता में आती गिरावट, और साथ ही घास के मैदानों से लेकर अन्य पारिस्थितिकी तंत्र में आती गिरावट वजह है। भूमि क्षरण की यह समस्या सूखे इलाकों के लिए कुछ ज्यादा ही गंभीर है, जोकि दुनिया की 45 फीसदी भूमि पर पसरे हैं और हर तीन में से एक इंसान का घर हैं।     

यह जमीन कितनी बड़ी है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसका कुल क्षेत्रफल पूरे अफ्रीकी महाद्वीप के बराबर है। इसमें कृषि भूमि का भी 50 फीसदी हिस्सा शामिल है। प्रकृति पर बढ़ते इंसानी हस्तक्षेप का ही नतीजा है जिसके चलते आज धरती की 70 फीसदी भूमि किसी न किसी रूप में प्रभावित हो चुकी है।

भूमि को होते इस नुकसान का असर न केवल जमीन पर पड़ रहा है साथ ही यह पानी, मिट्टी, जैवविविधता को भी प्रभावित कर रहा है। इसका सीधा असर हमारे प्राकृतिक परिवेश और खाद्य सुरक्षा पर भी देखा जा सकता है। अनुमान है कि हर साल दुनिया भर में 1.2 करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा भूमि सूखा, मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण की भेंट चढ़ जाती है।

यही नहीं जहां एक तरफ बड़े पैमाने पर कृषि और तेजी से फैलते शहरों के लिए भूमि उपयोग को बदला जा रहा है वो बड़े पैमाने पर प्राकृतिक वातावरण और भूमि की गुणवत्ता का नुकसान पहुंचा रहा है। अनुमान है कि दुनिया में करीब 200 करोड़ हेक्टेयर भूमि की गुणवत्ता आज पहले जैसी नहीं रह गई है, जिसमें गिरावट आ गई है।

आज हमने शहरों में कंक्रीट का जंगल इस तरह फैला दिया है जिसके चलते बारिश का पानी जमीन में सोख ही नहीं रहा। नतीजन एक तरफ जहां भूजल स्तर में गिरावट आ रही है वहीं दूसरी तरफ मिट्टी में घटती नमी से कृषि और उसके उपजाऊपन को नुकसान हो रहा है जिसकी भरपाई हम कीटनाशकों से कर रहे हैं, जो तेजी से जमीन को दूषित कर रहा है।

यदि मौजूदा नीतियों में बदलाव न किया गया उसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। अनुमान है कि जिस तरह से खाद्य पदार्थों की मांग बढ़ रही है उसके चलते सहारा अफ्रीका, मध्य और दक्षिण अमेरिका में करीब 30 करोड़ हेक्टेयर भूमि साफ कर दी जाएगी। नतीजन इससे जैवविविधता में 6 फीसदी की गिरावट आएगी और वातावरण में 32 गीगाटन कार्बन मुक्त होगी। इतना ही नहीं इससे मिट्टी की गुणवत्ता और उसके पानी धारण करने की क्षमता में भी गिरावट आएगी, जिससे बाढ़ और सूखे जैसे आपदाओं की सम्भावना बढ़ जाएगी।

अभी भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं आशाएं

यह सच है कि कोविड-19 महामारी ने लाखों लोगों की जान ली है साथ ही पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था का भारी नुकसान पहुंचाया है। लेकिन इसके साथ ही इस महामारी ने इंसानी सोच पर एक सकारात्मक प्रभाव भी डाला है। इसने आज फिर से प्रकृति और अपने बीच बिगड़ते रिश्तों के बारे में सोचने के लिए इंसान को मजबूर कर दिया है और यह दिखा दिया है कि प्रकृति और इंसान के बीच की यह जो कड़ी है वो कितनी नाजुक है।

कहते हैं यदि इंसान ठान ले तो वो क्या नहीं कर सकता। इसी इंसानी इच्छाशक्ति का नतीजा है जिसके चलते अंतराष्ट्रीय समुदाय ने 2030 तक खराब हो चुकी करीब 100 करोड़ हेक्टेयर भूमि की दोबारा बहाल करने का संकल्प लिया है। देखा जाए तो इस महत्वाकांक्षी योजना की मदद से धरती पर करीब 30 फीसदी से अधिक भूमि को बचाया जा सकता है। साथ ही जैव विविधता को होने वाले एक तिहाई नुकसान को कम किया जा सकता है।

इस रिपोर्ट में गुजरात की एक जल प्रबंधन प्रणाली 'होलियास' का भी जिक्र किया है जिसने जल संरक्षण और भूमि क्षरण को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह प्रणाली गुजरात के कई जिलों में उपयोग की जाती है।

यह तकनीक 1990 के दशक में किसानों के आपसी सहयोग से चलन में आई। इस प्रणाली में भारी बारिश और बाढ़ के दौरान होलियास फनल की मदद से वर्षा जल को भूमि की सतह के नीचे जमा किया जाता है, ताकि जब पानी की कमी हो तो सौर ऊर्जा से चलने वाले पम्पों की मदद से इस भूजल को दोबारा उपयोग किया जा सके।

यह प्रणाली कितनी प्रभावी है इसे इसी से समझा जा सकता है कि केवल 10 दिनों में यहां किसान इतना पानी संचय कर लेते हैं जिसकी मदद से अगले सात महीनों तक पानी की जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। देखा जाए तो यह अकेले ऐसी तकनीक नहीं है जो जल संचय और भूमि क्षरण को रोकने में मदद कर रही जल हजारों वर्षों से हमारे पूर्वज ऐसी तकनीकों की मदद से थार और धरती के कई दुर्गम रेगिस्तानी इलाकों में अपने अस्तित्व को बचाए रख पाए हैं।

भूमि की बहाली का मूल उद्देश्य अलग-अलग गतिविधियों के माध्यम से भूमि क्षरण के प्रभाव को उलटना है। इसमें मिट्टी को दोबारा दुरुस्त करने से, वाटरशेड और प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र को पुनर्जीवित करने तक सभी कुछ शामिल है। देखा जाए तो अब भूमि होते नुकसान को केवल रोकना ही काफी नहीं है। हमने जो खोया है उसे दोबारा पाने के लिए मिलकर निर्णायक कदम उठाने होंगे। रिपोर्ट के मुताबिक भारत उन स्थानों में शामिल है जहां इकोसिस्टम की बहाली की सबसे ज्यादा जरुरत है। 

यह बहाली हमें अनिश्चित भविष्य का सामना करने के लिए तैयार करेगी। एक तरफ जहां यह जलवायु परिवर्तन के असर को सीमित करने में मददगार होगी। वहीं साथ ही इसकी मदद से प्रकृति के साथ बिगड़ते हमारे रिश्तों में भी सुधार आएगा। इससे न केवल खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होगी। सूखे से निपटने में मदद मिलेगी। पर्यावरण अनुकूल रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। साथ ही कोरोना जैसी महामारियों से भी हमारी रक्षा करेगी। इससे हमारे स्वास्थ्य को भी लाभ होगा।

एक दिन में नहीं बदलेगी तस्वीर लेकिन बिना प्रयास के भी हासिल नहीं होंगे लक्ष्य

इस बारे में यूएन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) के कार्यकारी सचिव, इब्राहिम थियाव का कहना है कि हम आज जलवायु संकट, कल जैवविविधता को होती हानि और परसों बढ़ते भूमि क्षरण को नहीं रोक सकते। हमें इन सभी मुद्दों से मिलकर निपटने की जरुरत है। भूमि की बहाली रियो सम्मेलन और अन्य अंतरराष्ट्रीय समझौतों के तहत किए गए संयुक्त प्रयासों का एक अभिन्न हिस्सा है, जो सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में उठाया गया सार्थक कदम है।

इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हमें सभी के साथ की जरुरत होगी। वो मूल प्रजातियां ही हैं जिन्होंने हजारों वर्षों से हमारे जंगलों और प्राकृतिक वातावरण को बचाए रखा है। रिपोर्ट के मुताबिक यह स्थानीय मूल प्रजातियां वैश्विक आबादी का केवल 6 फीसद हिस्सा हैं। जो 87 देशों में 3.8 करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की रक्षा कर रही हैं। देखा जाए तो यह धरती का करीब 25 फीसदी हिस्सा है।

हमने बचपन से पढ़ा है कि भूमि एक सीमित संसाधन है। यदि हम इस आज बर्बाद कर देंगें तो अपनी आने वाली पीढ़ियों को विरासत में क्या देंगें। भले ही दुनिया के बड़े-बड़े नामी गिरामी लोग चांद और दूसरे ग्रहों पर घर बनाने का सपना देखते हो लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि वो सपना कुछ साधन संपन्न लोगों तक ही सीमित है।

यह धरती प्रकृति का मिला उपहार है जिसे हमारे पूर्वजों ने लाखों वर्षों से संजो का रखा है। इसके साथ ही यह उनकी धरोहर है जिसे हमें अगली पीढ़ी को सौंपना है। ऐसे में यह जरुरी है कि हम अपनी इस धरती को बचाने के लिए मिलकर प्रयास करें। हम अपनी जिम्मेवारी से भाग नहीं सकते। यह धरती हमारा घर है, इसे बचाना हमारी जिम्मेदारी है।