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कोरोना आपदा: 21वें साल में क्या उत्तराखंड लिखने जा रहा है नई इबारत

पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 71 फीसदी प्रवासियों ने उत्तराखंड में अपनी आजीविका के साधन ढूंढ़ लिए हैं

Raju Sajwan

हिमालयी राज्य उत्तराखंड 21वें साल में प्रवेश कर गया है। 9 नवंबर 2000 को मैदानी राज्यों झारखंड, छत्तीसगढ़ के साथ ही उत्तराखंड का भी गठन हुआ था। 20 साल गुजर चुके हैं। इन 20 सालों में उत्तराखंड के लोगों ने कुछ हासिल होने से ज्यादा खोया है।

खासकर पलायन रोकने की दृष्टि से राज्य बुरी तरह से विफल रहा है, परंतु कोविड-19 वैश्विक आपदा ने राज्य को एक मौका दिया और हाल ही में आई उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग की रिपोर्ट ने एक उम्मीद भी दिखाई है। आइए, जानते हैं इस रिपोर्ट के मायने और साथ ही इस रिपोर्ट पर उठते सवालों की भी बात करते हैं।

अक्टूबर के आखिरी सप्ताह में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को सौंपी रिपोर्ट में पलायन आयोग ने कहा है कि कोरोना काल में राज्य में लौटे प्रवासियों की संख्या 3,57,536 थी, लेकिन सितंबर के अंत तक इनमें से 1,04,849 लोग पुन पलायन कर गए। यानी कि 2,52,687 (लगभग 71 फीसदी) लोग अभी भी उत्तराखंड में हैं। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इन लोगों ने अपने गांव-कस्बों में ही आजीविका का इंतजाम कर लिया है।

इन प्रवासियों के वर्तमान आजीविका का मुख्य स्त्रोत इस प्रकार है। लगभग 33 प्रतिशत लोग कृषि, बागवानी, पशुपालन आदि का काम कर रहे हैं, जबकि 38 फीसदी मनरेगा, 12 प्रतिशत स्वरोजगार और 17 फीसदी अन्य माध्यम से आजीविका चला रहे हैं।

पलायन आयोग की यह रिपोर्ट उम्मीद इसलिए जगाती है, क्योंकि इससे पहले तक यह कहा जा रहा था कि लॉकडाउन खुलने के बाद ज्यादातर प्रवासी लौट जाएंगे। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने डाउन टू अर्थ को बताया था कि लगभग 45 फीसदी प्रवासी ही राज्य में रुकेंगे। जबकि विशेषज्ञों का कहना था कि 10 फीसदी से कम प्रवासी ही रुकेंगे।

हालांकि पलायन आयोग की यह रिपोर्ट चूंकि सितंबर तक के अध्ययन पर आधारित हैं, इसलिए अभी से यह कह देना कि आने वाले दिनों में ये प्रवासी राज्य में बड़ी भूमिका अदा करने वाले हैं। बल्कि आयोग की इसी रिपोर्ट पर सवाल उठने लगे हैं।

राज्य में पलायन के मुद्दे पर काम कर रही संस्था पलायन एक चिंतन के संयोजक रतन सिंह असवाल कहते हैं कि पता नहीं कैसे आयोग यह दावा कर रहा है कि 71 फीसदी प्रवासियों ने अपनी आजीविका का इंतजाम कर लिया है, क्योंकि जमीन पर ऐसा कुछ नहीं दिखता। ज्यादातर लोग लौट चुके हैं और जो लोग अभी भी राज्य में हैं, उनमें ज्यादातर खाली हैं।

असवाल कहते हैं कि प्रवासियों के लिए राज्य सरकार ने कई योजनाएं शुरू की, लेकिन स्थानीय कर्मचारियों और अधिकारियों ने इन योजनाओं को लागू करने में कोई उत्साह नहीं दिखाया। यदि अभी भी इस दिशा में ठोस काम किया जाए तो जो लोग राज्य में ही रुके हुए हैं, उन्हें काम मिल जाएगा और वे राज्य में रुक जाएंगे।

आयोग की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रवासियों की आजीविका का सबसे बड़ा साधन महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) बना है। जो 71 फीसदी प्रवासियों ने दोबारा पलायन नहीं किया है, उनमें से 38 फीसदी प्रवासी मनरेगा पर निर्भर हैं। हरिद्वार में 75 फीसदी, पौड़ी में 53 फीसदी, टिहरी में 51 फीसदी और चमोली में 43 फीसदी प्रवासी मनरेगा पर निर्भर हैं।

उल्लेखनीय है कि कोरोना काल में केवल दो ही सरकारी योजनाएं गरीबों, मजदूरों और प्रवासियों के काम आई। इनमें से एक सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और दूसरी मनरेगा।

मनरेगा पर सबसे ज्यादा निर्भर

उत्तराखंड में भी मनरेगा को लेकर सरकार ने बड़े स्तर पर काम कराए और प्रवासियों के काफी काम भी आई, लेकिन क्या लगभग 96 हजार प्रवासियों के लिए मनरेगा राज्य में ही रुकने की वजह बन चुकी है? इन आंकड़ों पर भी सवाल उठ रहे हैं।

पौड़ी जिले के मनरेगा लोकपाल रह चुके राजेंद्र कुकसाल कहते हैं कि मनरेगा के वर्तमान स्वरूप ऐसा नहीं है कि केवल इसके भरोसे रहा जा सके। अभी एक परिवार को साल में 100 दिन का काम करने की गारंटी दी जाती है, लेकिन पिछले रिकॉर्ड बताते हैं कि काम की मांग करने वाले परिवारों को साल में 40 दिन से अधिक काम नहीं मिल पाता। इस साल मनरेगा की दिहाड़ी 200 रुपए प्रति दिन की गई है। यानी कि औसतन एक परिवार को साल भर में 8,000 रुपए ही मिल सकते हैं तो क्या 8,000 रुपए से पूरा परिवार पल सकता है।

कुकसाल भी पलायन आयोग की रिपोर्ट पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि यह कहना गलत होगा कि 71 फीसदी प्रवासियों ने अपनी आजीविका का इंतजाम कर लिया है, बल्कि अब तक 70 फीसदी से अधिक प्रवासी दोबारा पलायन कर चुके हैं और जो प्रवासी अब तक टिके हुए हैं, उसकी एक बड़ी वजह यह है कि केंद्र सरकार की ओर से मुफ्त राशन दिया जा रहा है।

मनरेगा के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में जुलाई में सबसे अधिक परिवारों ने काम की मांग की, जिसके बाद काम मांगने वाले परिवारों की संख्या लगातार घट रही है। जून में जहां 2,24,415 परिवारों ने काम मांगा था, वहीं जुलाई में 240130 परिवारों ने काम मांगा, लेकिन अगस्त में 216296 परिवारों ने काम मांगा और अक्टूबर में 183740 परिवारों ने ही काम मांगा। लेकिन 1 अप्रैल 2020 से लेकर 8 नवंबर 2020 के बीच केवल 9529 परिवारों ने ही 100 दिन का काम किया है।

कुकसाल कहते हैं कि उत्तराखंड जैसे राज्यों, जहां लोगों की जरूरतें कम हैं, मनरेगा आजीविका का स्थायी साधन हो सकता है, लेकिन इसके लिए सही दिशा में काम करना होगा। जैसे कि, मनरेगा में 100 की बजाय 200 दिन काम की गारंटी देनी होगी और दिहाड़ी भी बढ़ानी होगी। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि ज्यादा से ज्यादा परिवारों को 200 दिन का काम दिया जाए।

क्या स्वरोजगार योजनाएं आई काम?

उत्तराखंड में जब बड़ी संख्या में प्रवासी लौटने लगे तो राज्य सरकार ने इसे गंभीरता से लिया। मुख्यमंत्री ने प्रवासियों को राज्य में ही रुकने का आह्वान किया। मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना शुरू की गई। लेकिन क्या यह योजना काम आई? पलायन आयोग की रिपोर्ट बताती है कि जो 2.52 लाख लोग राज्य में ही रुके हुए हैं, उनमें से 12 प्रतिशत लोगों ने स्वरोजगार शुरू कर दिया है। रतन सिंह असवाल कहते हैं कि मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना जैसी अच्छी पहल बैंकों और स्थानीय कर्मचारियों की वजह से सिरे नहीं चढ़ पाई। राजेंद्र कुकसाल भी रतन सिंह की बात सहमत हैं। 

वहीं, पौड़ी जिले के कल्जीखाल ब्लॉक के सक्रिय समाजसेवी जगमोहन सिंह डांगी ने डाउन टू अर्थ को बताया कि कोरोना कॉल के दौरान बेड़गांव लौटे दो युवकों ने पिता की प्रेरणा से बकरी पालन और उद्यान लगाने का निर्णय लिया। पिता मनोरथ सिंह ने पांच माह पहले पॉली हाउस के लिए 12,190 रुपए उद्यान विभाग में जमा कराए, ताकि विभाग की ओर से सब्सिडी जारी हो सके। लेकिन सब्सिडी जारी नहीं हुई और न पॉली हाउस लग पाया। आखिरकार दोनों युवक उम्मीद छोड़ कर फिर से पलायन कर गए। डांगी कहते हैं कि उनके ही ब्लॉक में कई ऐसे उदाहरण हैं, जिन्होंने काफी प्रयास किया कि उनकी आजीविका का इंतजाम हो जाएगा, लेकिन थक हार कर वे भी फिर से पलायन कर चुके हैं। 

कुल मिलाकर अभी यह कहना जल्दबाजी होगा कि उत्तराखंड के लिए उसके निर्माण के 21वें साल में 2 लाख से अधिक प्रवासी नई इबारत लिख सकते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत बता रही है कि सरकार के प्रयास नाकाफी रहे।