जलवायु

जलवायु परिवर्तन का आपातकाल बहुत हद तक विकसित देशों की देन है : कैथरीन रोवेट

लोग उन चीजों के लिए मतदान करते रहे, जिनके बारे में हम सबको पता है कि हकीकत में वे किसी भी तरह से मूल्यवान नहीं हैं

Rajat Ghai

कैथरीन रोवेट हाल ही में यूरोपीय संसद के लिए चुनी गई हैं। वह ब्रिटेन की ग्रीन पार्टी और इसके विस्तृत महाद्वीप गठबंधन से जुड़ी हुई हैं, जिसने चुनाव में आश्चर्यजनक प्रदर्शन करते हुए 69 सीटें हासिल की हैं। यह पार्टी अब यूरोप की नीतियों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। ग्रीन पार्टी और इसके मुद्दों को लेकर कैथरीन रोवेट ने रजत घई से बात की

यूरोपीय संघ (ईयू) के संसदीय चुनावों में ग्रीन पार्टी की सफलता के पीछे क्या कारण हैं?

यह सफलता बुरे लोकलुभावन आंदोलनों के उभार की प्रतिक्रिया है। आज हमारा बीमार ग्रह उबल रहा है और कुछ लोग अमीर होते जा रहे हैं। ऐसे हालात में यह चीजों को उनके ही हाल पर छोड़ देने की चाहत रखने वाले नवउदारवादी प्रतिक्रियावादियों के आलस भरे रवैये को जवाब है। जिस तरह से हमें तेजी से बढ़ती नफरत, राष्ट्रवाद और समावेशिता का विरोध दिखाई दे रहा है, वह भयावह है। वहीं, दूसरी तरफ यथास्थिति बनाए रखने वाले पुराने दल भी मौजूद हैं, जो यह मानते हैं कि समाज या पर्यावरण की समस्याओं के लिए वे किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं। यह हालात भी बहुत डरावने हैं। मुझे लगता है कि लोगों ने न सिर्फ पर्यावरण के विनाश, बल्कि पश्चिमी दुनिया में सामाजिक-आर्थिक नीतियों की विफलता के चलते व्यवस्था में तत्काल परिवर्तन की जरूरत जताई है। ग्रीन पार्टी को मिले वोट इसी की अभिव्यक्ति है। वास्तव में पर्यावरण और सामाजिक-आर्थिक नीतियां, ये दोनों मुद्दे गहराई से जुड़े हुए हैं।

फिर भी आपको लगता है कि पर्यावरण की रक्षा के लिए मिले जनमत के चलते ही ग्रीन पार्टी की जीत हुई है?

हां भी और नहीं भी। पर्यावरण को अब तक हुए नुकसान और इसकी वजह से पारिस्थितिकी तंत्र, जैव विविधता, कीटों की आबादी और मानव स्वास्थ्य पर पड़े प्रभाव को लेकर जागरुकता बढ़ रही है। यह जनमत सामाजिक और राजनीतिक बुराइयों की एक लंबी शृंखला के खिलाफ है। इसमें धन के असमान बंटवारे से लेकर जीवाश्म ईंधन लॉबी व ऐसे दूसरे समूहों, उपभोक्तावादी व्यवस्था के हितैषियों की वजह से मानव जीवन में पैदा हुईं समस्याओं और साइबर क्राइम व डिजिटल युग के साथ बढ़तीं ऐसी दूसरी दिक्कतें तक शामिल हैं।

क्या आपको मिला जनसमर्थन यूरोप की नई पीढ़ी का विद्रोह है?

यह स्पष्ट है कि युवाओं को अच्छे-बुरे की पर्याप्त समझ है। उन्हें पता है कि क्या अच्छा हो रहा है और क्या गलत। और, इनमें से कई ने अपने अभिभावकों से आर्थिक लाभ की जगह ग्रीन पॉलिसी के लिए मतदान करने का आग्रह किया। लेकिन, पुरानी पीढ़ी में भी ऐसे बहुत से लोग हैं (मुझे लगता है कि उनमें से एक मैं भी हूं), जो 1970 के दशक से परमाणु हथियारों के खिलाफ सभी विरोध-प्रदर्शनों में शामिल रहे हैं। इराक युद्ध, कठोर नियमों और ऐसी ही दूसरे मुद्दों पर लगातार संघर्ष करते रहे हैं। ग्रीन पार्टी लगातार संघर्ष कर रहे ऐसे प्रदर्शनकारियों से भरी पड़ी है, जो वर्षों से ऐसे मुद्दों को उठाते आ रहे हैं। हममें से कई बदलाव लाने के लिए चुनावों में शामिल होते रहे हैं और असफल भी होते रहे हैं। हमारे साथ युवा भी हैं और बुजुर्ग भी, लेकिन हमारा एक साझा मिशन है। और, इसका वैसा ही असर दिख रहा है, जैसा होना चाहिए था।

विज्ञापनों और बेहतरी के फर्जी आर्थिक उपायों के जरिए साल-दर-साल लोगों को बरगलाया जाता रहा है। लोग उन चीजों के लिए मतदान करते रहे, जिनके बारे में हम सबको पता है कि हकीकत में वे किसी भी तरह से मूल्यवान नहीं हैं। हमेशा से यही होता आ रहा है। अब लोगों के भ्रम दूर हो रहे हैं। बच्चों की आवाजें भी सुनी जा रही हैं। ग्रेटा थुनबर्ग अपनी अपील, अपने विचारों से लोगों को प्रभावित कर रही हैं। मुट्ठीभर विद्रोहियों ने लोगों को रुक कर, उनके आसपास की चीजों को देखने-समझने के लिए मजबूर कर दिया है कि आखिर अब तक वे क्या करते आ रहे थे। लोग अब जाग गए हैं और उन्हें समझ आ रहा है कि तथाकथित “अच्छी सरकार” बरसों से उनसे कैसे दावे व वादे कर रही थी और हकीकत में क्या दे रही थी।

क्या यह मतदान पूरे यूरोप में फैलती जा रही विदेशी लोगों के प्रति नफरत (जेनोफोबिया) की राजनीति के खिलाफ भी है या फिर महज प्रतिक्रियावादी राजनीति के एक विकल्प को लोगों ने चुना है?

मैं थोड़ा हैरान हूं। स्पष्ट तौर पर लोगों ने लोकप्रिय दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी, दोनों तरह की राजनीति के खिलाफ मतदान किया है। हम जो कर रहे हैं, वह एक अलग तरह की राजनीति है। बेशक, पर्यावरण के मुद्दे को चुनने का मतलब है कि लोगों ने जेनोफोबिया की प्रवृत्ति को नकारा है, क्योंकि हमें विदेशियों ने नहीं, बल्कि उन मूर्खतापूर्ण चीजों से डरने की जरूरत है, जो हम खुद के साथ कर रहे हैं। बल्कि, यह जेनोफोबिया की मूल वजहों को समझने-समझाने और उनसे निपटने की राह भी दिखाती है कि जिन बुराइयों के लिए दूसरों को दोष देने की प्रवृत्ति दिख रही है, उनकी असली वजह हमारे अपने शासनिक-प्रशासनिक तौर-तरीके हैं।

जेनोफोबिया के पीछे बहुत-सी वजहें हैं। भारी संख्या में लोग अपने घर छोड़कर शरण लेने यूरोप पहुंच रहे हैं। शरणार्थियों की ऐसी बाढ़ हमने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शायद ही देखी हो। इन परिस्थितियों की वजह हमारी मांग के चलते पारिस्थितिकी तंत्र को पहुंच रहा नुकसान है, जिसके कारण यूरोप से बाहर सूखे, युद्ध और अकाल जैसे हालात पैदा हो रहे हैं। दुनिया भर के संवेदनशील क्षेत्रों में जीवाश्म ईंधन संसाधनों और अन्य कीमती खनिजों की तलाश पर पश्चिमी देश नियंत्रण पाने में नाकाम साबित हो रहे हैं। यूरोपीय संघ और दूसरी जगहों पर भी बहुत-सी प्रतिक्रियावादी सरकारों की असफलता की एक और वजह उनके यहां के लोगों के बीच धन, अवसरों, स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक समृद्धि में भारी असमानता है।

क्या ग्रीन पार्टी की सफलता यूरोप की उत्सर्जन नीतियों में ऐतिहासिक बदलाव लाएगी?

हकीकत में, यूरोपीय संसद में ग्रीन ग्रुप के बढ़े समूह के बूते हम कम से कम मौजूदा तौर-तरीकों में पर्याप्त सुधार कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, हमें जीवाश्म ईंधन के लिए हर तरह की सब्सिडी को खत्म कर देना चाहिए, विमानन सेवाओं के लिए कर राहतें बंद कर देनी चाहिए, यूरोप में खेती के मौजूदा तौर-तरीकों से छुटकारा पाना चाहिए, क्योंकि कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों की वजह से धरती की जैव विविधता को खतरा पैदा हो गया है, यात्रा एवं अन्य परिवहन सेवाओं के लिए रेल और ऐसी दूसरे माध्यमों को अपनाना चाहिए। यह चीजें तो बस एक शुरुआत हैं। हम यूरोपीय संघ की ताकत का इस्तेमाल बाहर के व्यापारिक साझेदारों पर दबाव डालने के लिए कर सकते हैं कि वर्षावनों की सुरक्षा करने के लिए वे भी समान मानक अपनाएं और ताड़ के तेल के इस्तेमाल के लिए उन्हें दंडित भी कर सकते हैं।

क्या आपको लगता है कि आने वाले समय में अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे पश्चिमी देशों में भी पर्यावरण हितैषियों को ऐसी सफलता मिलेगी?

आप बिल्कुल इसकी उम्मीद कर सकते हैं। हालांकि, हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में हुए चुनाव इस संबंध में निराशाजनक रहे हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका उस स्थिति का उचित उदाहरण है, जहां एक मतदाता समूह, जो विज्ञान को समझने या उसके मूल्यों के बारे में गंभीर चिंतन कर सकने के लिए उपयुक्त रूप से शिक्षित नहीं है। वह अपनी नैतिक समझ खोकर सोचने-समझने के उन तरीकों की तरफ लौट सकता है, जिन्हें हम बीसवीं सदी में ही छोड़ आए हैं। मुझे लगता है कि एक ऐसा दौर आया जब राजनेताओं ने पाया कि ऐसे नागरिक उनके लिए ज्यादा सुविधाजनक हैं, जो कुछ भी सोच-समझ न सकें, विकृत हो चुकी मीडिया की बयानबाजी का विरोध न कर सकें। इसके दुष्परिणामों को आसानी से दूर नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अब लोग लंबे समय तक जीवित रहते हैं और एक बार मन में जम गए पूर्वग्रहों को हटाना बहुत कठिन होता है।

मुझे लगता है कि किसी भी देश के लिए सबसे जरूरी चीज अपने नागरिकों और अपनी प्रतिष्ठा का खयाल रखना है। हर किसी को ऐसी उच्च शिक्षा उपलब्ध करानी जरूरी है, जिससे वे परिपक्व आलोचनात्मक विचार-विमर्श की प्रक्रिया में शामिल हो सकें। और उच्च शिक्षा हासिल कर रहे प्रत्येक व्यक्ति को दर्शनशास्त्र के कुछ पाठ्यक्रमों को भी लेना चाहिए।

भारत सहित जलवायु परिवर्तन की वजह से भयंकर नुकसान झेल रहे कई विकासशील देशों में ग्रीन पार्टी नहीं है, अब क्या आपको इसमें बदलाव की उम्मीद दिखती है?

यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये आपातकाल, जिसका सामना करने को हम मजबूर हैं, बहुत हद तक विकसित देशों की देन है। भारत जैसे देशों के महत्वपूर्ण सहयोगी बनने से पहले ही कई शताब्दियों तक हमने तेजी से जीवाश्म ईंधन जला डाले। मेरे खयाल से अब यह पश्चिमी देशों का दायित्व है कि वो विकासशील देशों के साथ मिलकर ऐसी तकनीकी और प्रणालियां विकसित करें, जिससे हमारी पृथ्वी पर बोझ बढ़ाए बिना ही अन्य लोगों को भी एक हद तक सामान जीवनशैली का आनंद मिल पाए।

मैंने सुना है कि कंजर्वेटिव पार्टी के नेता मानते हैं कि इस देश में उत्सर्जन कम करने के लिए हम पहले ही काफी कुछ कर चुके हैं। जबकि, देखा जाए तो हकीकत में हमने अपने कारखानों को बंद करने और माल आयात करने के अलावा कुछ नहीं किया है। वे कहते हैं कि चीन जैसी जगहों में बढ़ रहे उत्सर्जन के स्तर पर ध्यान देने की आवश्यकता है और उनके यहां बढ़ रहे उत्सर्जन के स्तर में हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है। लेकिन, अगर हम अपने सभी उत्पादक उद्योग विकासशील देशों में ले जाते हैं, जो हो भी रहा है, तो निश्चित तौर पर हमारा उत्सर्जन कम होगा और उनका बढ़ेगा। और, वह भी बस इसलिए क्योंकि अब वो अपने अलावा परोक्ष रूप से हमारी अर्थव्यवस्था के लिए भी काम कर रहे हैं।

इसके बावजूद हमें यह नहीं कहना चाहिए कि यह तो उन पर निर्भर है कि पश्चिमी बाजारों के लिए माल तैयार करने के अनुबंधों को मना करना शुरू कर दें। बल्कि, यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम इस बात पर जोर दें कि उन देशों में हमारे लिए ऐसी वस्तुओं का उत्पादन, सम्मानजनक कामकाज की परिस्थितियों या पर्यावरण की कीमत पर न हो। फिलहाल विकासशील देशों में हो रहा भयावह वायु प्रदूषण, दूषित होते जल स्रोत और भू-क्षरण हमारे हिसाब के दायरे से बाहर है। ऐसे में बेशक हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि अंत में ये परिस्थितियां उन देशों में राजनीतिक स्तर पर विरोधों और बदलावों को भी प्रोत्साहन देंगी।

लेकिन, इन सबसे पहले हमें अपने व्यापारिक समझौतों के जरिए जोर देना चाहिए कि उन गैर-यूरोपीय देशों में श्रमिकों और पर्यावरण के लिए समान सुरक्षा व्यवस्था अपनाई जाए, ताकि लोगों की सुरक्षा की जा सके। साथ ही पालतू पशुओं, समद्रों व नदियों, हवा की गुणवत्ता और मिट्टी की सुरक्षा की जा सके। इन मानकों को यूरोपीय संघ से व्यापार करने की शर्त बनाया जा सकता है। विकासशील देशों को बाजार के अनैतिक दबाव से बचाने में यूरोपीय संघ जैसे गुट इस प्रकार की शक्ति का इस्तेमाल कर सकते हैं।