जलवायु

परिवर्तन की पीड़ा

Sunita Narain

पर्यावरण के बिना हमारा अस्तित्व संभव नहीं है। विश्व पर्यावरण दिवस हमें इसके बारे में सोचने और समझने का मौका देता है। लेकिन पर्यावरण के बारे में एक दिन नहीं बल्कि रोज सोचे जाने की जरूरत है क्योंकि हालात बेहद खराब हैं। अगर साल 2017 और इस साल के पांच महीने को देखते हुए “पर्सन ऑफ ईयर” का खिताब देना पड़े तो निश्चित रूप से मैं यह खिताब मौसम को दूंगी और मेरे लिए साल का “फेस” होगा किसान। दरअसल, देश में किसान ही है जो असामान्य बारिश से लेकर सूखे तक मौसम के तमाम उतार-चढ़ाव का सबसे बड़ा पीड़ित है। हम उस दौर से गुजर रहे हैं जब बाढ़ के समय सूखा और सूखे में बाढ़ के हालात पैदा हो रहे हैं। यह निराशाओं का दौर है। अब वक्त आ गया है कि हम इसे मान्यता दें ताकि तेजी से बेहतर समाधान पेश किया जा सके।

मौसम की सुर्खियां अक्सर खबरों की भीड़ में गुम हो जाती हैं। मौसम की खबरों से वंचित रहने के तीन कारण हैं। पहला यह कि बदलाव को अब तक मान्यता नहीं मिली है। मौसम का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक अपने चारों तरफ की दुनिया से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। अनिश्चितता के कारण वे जोखिम नहीं लेना चाहते। दूसरा, हमारे पास उन आवाजों को सुनने का कोई माध्यम नहीं है जो विज्ञान द्वारा स्थापित नहीं हैं। इस वजह से परिवर्तन के सबसे बड़े पीड़ित किसानों की अनदेखी हो रही है। यह भी तथ्य है कि जलवायु परिवर्तन जैसे शब्दों से वे अनजान हैं। साधारण शब्दों में कहें तो उनके लिए मौसम बदल रहा है और उन पर इसकी मार पड़ रही है। तीसरा, मौसम की सुर्खियां अक्सर इसलिए भी सुनाई नहीं देती क्योंकि इसका शोर तभी मचता है जब मध्यम वर्ग और शहर इससे प्रभावित होते हैं। खबरों में आने के लिए किसानों को या तो मरना पड़ता है या कुछ गंभीर कदम उठाने पड़ते हैं। इस तरह के घटनाक्रम रोजमर्रा का हिस्सा हैं लेकिन ये खबरें दूरदराज के क्षेत्रों और लोगों से जुड़ी होती हैं इसलिए उनकी खबरें, हमारी खबरें नहीं बन पातीं।

लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। इसलिए मेरी नजर में साल 2017 की सबसे प्रमुख सुर्खी हमारे शहरों की जहरीली और प्रदूषित हवा नहीं है। यह बुरी खबर जरूर है। लेकिन यह मौसम में हो रहे विनाशकारी बदलाव की आधी भी नहीं है। यह बदलाव भारत के ग्रामीण इलाकों में व्यापक स्तर पर असंतोष और तकलीफ के लिए जिम्मेदार है।

मध्य प्रदेश में 6 जून 2017 को जब छह किसान बेहतर न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शन के दौरान मारे गए, तब जाकर यह राष्ट्रीय खबर बनी। हाल ही में देशभर में चली धूलभरी आंधी, बिजली गिरने और तूफान की घटनाएं इसलिए खबर बनीं क्योंकि करीब 450 लोगों की मौत हो गई। मरने वालों में अधिकांश किसान हैं। ऐसे में खबर को दरकिनार करना बहुत मुश्किल हो गया। जिस वक्त यह लेख लिखा जा रहा उससे दो दिन पहले ही आंधी-तूफान ने यूपी, बिहार और ओडिशा में कहर बरपाया था। गुजरात में पिछले साल जब किसानों ने सत्ताधारी दल के खिलाफ मतदान किया, तब यह तथ्य सामने आया कि किसानों के लिए गंभीर हालात पैदा हो गए हैं। कुल मिलाकर इस तरह की खबरें गिनी-चुनी ही हैं। दरअसल यह गंभीर और खतरनाक बीमारी के लक्षण हैं। इसे अब तक मान्यता नहीं मिली है और न ही इसे समझा गया है।

यह समय है कि नीतियों में इसे मान्यता दी जाए और पीड़ा को समझा जाए। यह एक नई चुनौती है जहां प्रकृति मनुष्य के खिलाफ हो गई है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि हमने प्रकृति का दोहन किया है और जीवाश्म ईंधन जलाए हैं ताकि अर्थव्यवस्था और खुद को संपन्न कर सकें। इनसे हुए उत्सर्जन ने आज मौसम को विनाशकारी बना दिया है।

2017 और इस साल के पांच महीने विरोधाभासों से भरे हैं। 2018 तो और कष्टदायक होने वाला है। गौर करने वाला सवाल यह है कि बंपर उत्पादन के बाद भी कृषि संकट का सामना क्यों करना पड़ रहा है? अब भी किसान परेशान क्यों हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें अपने उत्पाद का मूल्य नहीं मिल रहा है। गौरतलब है कि किसानों को बंपर उपज कई बुरे मौसम और नुकसान के बाद मिली है। कायदे से उनके घाटे की भरपाई इस बंपर उत्पादन से हो जानी चाहिए थी और उनका कर्ज चुक जाना चाहिए था लेकिन सच्चाई इससे उलट है। देश के ज्यादातर हिस्सों में हालात बुरे ही हैं। किसान खेती के लिए कर्ज लेता है, बुआई करता है, श्रम में निवेश करता है लेकिन खराब मौसम उनकी फसल तबाह कर देता है। यह खराब मौसम अत्यधिक बारिश, बहुत कम बारिश, बहुत ठंड, बहुत गर्मी, अचानक ओलावृष्टि के रूप में आता है और जानलेवा साबित होता है। इस तरह की घटनाएं अनिमियत नहीं हैं बल्कि ये अब नियमित हो चुकी हैं।

ऐसे तमाम मुद्दे हैं। हमें इस बदलाव को मान्यता देनी होगी तभी हम पूर्वानुमान को व्यवस्था में जगह दे पाएंगे और सूचनाओं का वितरण होगा। इस वक्त हम पर्याप्त कदम नहीं उठा रहे हैं और देर भी कर रहे हैं। किसी खास मौसमी घटना पर हमारा ध्यान भी जाता है तो कई वैज्ञानिक नजरिए से ओझल हो जाती हैं। हमें मौसम के अतिरिक्त खतरे से निपटने के लिए काफी कुछ करना होगा, साथ ही भोजन पैदा करने की लागत को भी कम करना होगा। आज खाद्यान्न की कीमत अनियमित है। सरकार भरसक कोशिश करती है कि इसकी कीमत कम रहे क्योंकि इसकी बढ़ी कीमतें उपभोक्ताओं को नाराज कर सकती हैं। सरकार खाद्यान्न की सबसे बड़ी खरीदार भी है। भारत का खाद्यान्न खरीद कार्यक्रम व्यापक और महत्वपूर्ण भी है। यह अकाल को दूर रखने में मददगार है। सरकार जन वितरण प्रणाली के माध्यम से खाद्यान्न का वितरण करती है। लेकिन क्या इसका यह मतलब निकाला जाए कि खरीद की कम कीमत रखना उचित है?

दूसरी ओर किसान हैं जिन्हें न केवल लाभकारी मूल्य चाहिए बल्कि उन्हें फसलों के नुकसान की भरपाई की भी दरकार है। यह नुकसान उनकी गलतियों से नहीं होता बल्कि मौसम की मार से होता है। देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में सुधार की जरूरत है ताकि इसमें केवल इनपुट लागत को ही शामिल न किया जा सके बल्कि मौसम से होने वाले नुकसान की भरपाई का भी प्रावधान हो।



शाकाहार बनाम मांसाहार

साल 2017 में मांसाहार पर चर्चाएं बहस के केंद्र में रहीं। तर्क दिए गए कि पवित्र समझे जाने वाले बोवाइन जैसे गोवंश को मांसाहार के लिए बूचड़खानों में नहीं भेजना चाहिए। यह मुद्दा बहुत भावानात्मक और असहनशीलता से जुड़ा है। किसानों की पहले से डगमगा रही अर्थव्यवस्था से इसे जोड़कर नहीं देखा गया। भारत में मवेशियों पर स्वामित्व भूमि के स्वामित्व से बड़ा है। कहने का मतलब यह है कि अर्थव्यवस्था में कृषि से अधिक योगदान मवेशियों का है। फसलों को खोने की स्थिति में मवेशी ही उनके जीवनयापन का सहारा होते हैं। ये आर्थिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। इन्हें गरीबों का बीमा भी कहा जा सकता है। हम पशुओं का मूल्य किसानों से नहीं छीन सकते। इनसे उन्हें दूध, खाद, मांस और चमड़ा मिलता है। अगर आप उनसे ये चीजें छीन लेंगे तो आप उन्हें संपत्ति से वंचित कर देंगे। लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि मांस का उत्पादन पर्यावरण के लिहाज से अच्छा है। आंकड़े दूसरी ही तस्वीर पेश करते हैं। वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कृषि का योगदान 15 प्रतिशत है और इसका आधा मांस उत्पादन से आता है। जमीन और पानी के उपभोग में भी इसकी बड़ी हिस्सेदारी है। एक अनुमान के मुताबिक विश्व की 30 प्रतिशत भूमि (बर्फ से गैर आच्छादित) मनुष्यों के लिए नहीं बल्कि पशुओं के लिए भोजन उगाने में प्रयोग की जाती है। 2014 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की ओर से किए गए अध्ययन में पाया गया कि प्रति व्यक्ति 10 ग्राम मांस खाने से प्रतिदिन 7.2 किलो कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। शाकाहार से यह उत्सर्जन 2.9 किलो था।

इस मुद्दे पर चल रही बहस के दोनों पहलुओं को देखने की जरूरत है। हमें विलासिता और अस्तित्व के लिए जरूरी मांस के उपभोग में अंतर स्पष्ट करना होगा। यह चर्चा की जानी चाहिए कि कितने मांस का उत्पादन किया जाए और कितना उपभोग किया जाए। मांस उत्पादन का पर्यावरण की बर्बादी से घनिष्ठ संबंध है। मांस के उत्पादन के लिए भूमि के बड़े हिस्से का उपयोग होता है, वन नष्ट होते हैं ताकि पशुओं के चरने की जगह उपलब्ध हो सके और रसायनों का भी इस्तेमाल होता है। इस पर निश्चित रूप से बहस होनी चाहिए।

मांस के उपभोग को भी निर्धारित करने की आवश्यकता है। यह भी तथ्य है कि मांस लोगों के लिए प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। पोषण की दृष्टि से यह अहम है। लेकिन यह भी तथ्य है कि आज मांस खासकर लाल मांस विश्व में स्वास्थ्य में असंतुलन की एक बड़ी वजह है। ऐसा एंटीबायोटिक की मौजूदगी के कारण है। एक वैश्विक आकलन में पाया गया है कि एक अमेरिकी प्रतिवर्ष 122 किलो मांस का उपभोग करता है। यह प्रोटीन की जरूरतों का पूरा करने के लिए आवश्यक मांस से औसतन 1.5 गुणा अधिक उपभोग है। इसे बहस के केंद्र में होना चाहिए।

हमें नहीं पता कि भारतीय कितना मांस खाते हैं। असल आंकड़े उपलब्ध ही नहीं है। एक सरकारी गणना के अनुसार, 70 प्रतिशत गैर शाकाहारी हैं लेकिन इसका सैंपल साइज बहुत छोटा है। सबसे अहम बात यह भी कि गैर शाकाहारी की परिभाषा में अंडे भी शामिल हैं। भारत में मध्यम वर्ग के विस्तार के साथ उनकी खाद्य संस्कृति में संपन्न भोजन शामिल होगा। इससे उद्योगों को गति मिलेगी लेकिन यह पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होगा। इसलिए अब जरूरी है कि शाकाहार और मांस खाने की मात्रा पर चर्चा की जाए। जरूरी है कि हम ऑर्गेनिक और स्वस्थ भोजन के फायदों को सीखें। हमें भोजन परंपरा की विभिन्नता को समझने की जरूरत है। साथ ही यह भी कि जैविक भिन्नताओं के बीच कैसे इसका विकास हुआ और पोषण के लिए यह कितना जरूरी है। 2018 और उसके बाद इस पर चर्चा होनी चाहिए लेकिन बिना हिंसा और तोड़फोड़ किए।



शहरी-ग्रामीण विभेद

यह कहना गलत होगा कि शहरी भारत मौसम में बदलाव या प्रदूषण से बराबर प्रभावित नहीं है। इस मामले में ग्रामीण और शहरों में कोई भेद नहीं है। लेकिन एक बात साफ है कि आवास, जल, सीवेज, कचरा और प्रदूषण जैसे शहरी संकट ग्रामीण क्षेत्रों में दिक्कतें पैदा करेंगे। मौसम की मार से परेशान ग्रामीण रोजगार के लिए शहरों का रुख करेंगे। भारत की शहरी आबादी पिछले दशकों में बेतहाशा बढ़ी है। शहर और गांव एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। शहर भी मौसम में बदलावों से उतने ही प्रभावित हैं। चंडीगढ़ में 21 अगस्त 2017 तक कम बारिश हुई थी लेकिन इसके बाद 12 घंटों में ही रिकॉर्डतोड़ 115 एमएम बारिश हो गई। दूसरे शब्दों में कहें तो चंद घंटों में ही वार्षिक मानसूनी बारिश का 15 प्रतिशत पानी बरस गया। बेंगलुरू में भी पहले पानी नहीं बरसा लेकिन जब बरसा तो इतना बरसा कि शहर डूब गया। यहां एक दिन में 150 एमएम बारिश हो गई जो वार्षिक मानसूनी बारिश का करीब 30 प्रतिशत था। माउंट आबू में दो दिन में ही आधे मानसून से अधिक बारिश हो गई। 2017 में हैदराबाद से चेन्नई तक यही कहानी रही।

इससे कई परेशानियां पैदा हुईं। हमारा जल प्रबंधन दोषपूर्ण है। हम बाढ़ प्रभावित जमीनों पर निर्माण कर रहे हैं, अपने जलस्रोत नष्ट कर रहे हैं और जलमार्गों को अवरुद्ध कर रहे हैं। खराब मौसम के बीच इन हालातों ने मुश्किलें बढ़ा दी हैं। हमें पता है कि क्या करना चाहिए। देरी का कोई कारण नहीं है। समय के साथ जलवायु परिवर्तन में तेजी ही आएगी। मौसम और बारिश की अनिश्चितताएं और बढ़ेंगी, नतीजतन बर्बादियों के दायरे का विस्तार ही होगा। 2018 की चुनौती छोटे-छोटे जवाबों से आगे बढ़ने की है। यह प्रत्यक्ष है कि वायु प्रदूषण शहरों में हमारा दम घोंट रहा है। यह स्पष्ट तौर पर समझ लेने की जरूरत है कि वायु प्रदूषण अकेले दिल्ली की समस्या नहीं है। समुद्री क्षेत्रों से दूर स्थित ज्यादातर शहरों में ऐसे हालात हैं। दिल्ली और उत्तर भारत के शहर ठंड के कारण प्रदूषित हैं क्योंकि इस मौसम में नमी प्रदूषकों को अपनी जद में ले लेती है। दिल्ली इसलिए भी प्रदूषित है क्योंकि कोई निगरानी तंत्र नहीं है जो बता सके कि हवा कितनी जहरीली है। एक-दो जगहों को छोड़ दिया जाए तो दूसरे शहर भी प्रदूषण की निगरानी नहीं करते। ये शहर निगरानी नहीं करते, इसका मतलब यह नहीं है कि वे प्रदूषित नहीं हैं।

स्पष्ट है कि वायु प्रदूषण का हिचकिचाहट भरे छोटे उपायों से मुकाबला नहीं हो सकता। इसके लिए क्रांतिकारी उपाय करने होंगे। इसके लिए जरूरी है कि भारत स्वच्छ ईंधन की दिशा में आगे बढ़े, चाहे वह स्वच्छता के साथ उत्पादित बिजली हो या प्राकृतिक गैस। भारतीय शहरों को गतिशीलता में बदलाव करना होगा ताकि हम लोगों को चला सकें, कारों को नहीं। छोटे-मोटे परिवर्तनों की नहीं बल्कि आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। 2018 की यही चुनौती है।

सतत विकास लक्ष्य

एसडीजी की प्रतिबद्धता

गरीबी खत्म करने, लैंगिक समानता, वायु प्रदूषण कम करने और साफ पानी उपलब्ध कराने में काफी खराब प्रदर्शन

नीति आयोग ने घोषणा की थी कि वह आगामी जून, 2018 को भारत की सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) का सूचकांक जारी करेगा। एक वैश्विक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में यदि वर्तमान गति से विकास कार्यक्रम चलते हैं तो वह किसी भी एसडीजी के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाएगा।

यह रिपोर्ट पहली बार 2016 में और दूसरी बार 2017 में फिर से प्रकाशित हुई। रिपोर्ट बताती है कि एसडीजी के 17 लक्ष्यों में भारत का प्रदर्शन लगातार गिरा है। इनमें शहरी इलाकों में पीएम 2.5, तपेदिक की घटनाएं, स्कूली शिक्षा के लिए बिताए गए वर्ष और महिला मजदूरों की भागीदारी शामिल है। इस मामले में भारत की स्थिति संयुक्त राष्ट्र के 157 देशों में 116वें स्थान पर है। वह अपने पड़ोसी मुल्क श्रीलंका (81), भूटान (83) और नेपाल(115) से भी पीछे है।

हाल ही में नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने कहा कि वास्तव में एसडीजी के लक्ष्यों को प्राप्त करने में अति पिछड़े राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान सबसे बड़ा रोड़ा बने हुए हैं। ये राज्य सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में राष्ट्रीय औसत के मुकाबले बहुत पिछड़े हुए हैं। भारत में दुनिया की कुल आबादी में 17 प्रतिशत हिस्सा है। और इन पांच राज्यों में देश की कुल आबादी का 42 फीसदी हिस्सा निवास करता है। इन राज्यों में निवास करने वाला हर चौथा व्यक्ति गरीब है।

भारत का प्रदर्शन गरीबी खत्म करने, लैंगिक समानता, उद्याेग, जानकारी एवं मूलभूत ढांचा, वायु प्रदूषण कम करने और साफ पानी उपलब्ध कराने में काफी खराब रहा है। वास्तव में एसडीजी राज्य सरकारों को सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय मानकों पर उनके प्रदर्शन का मूल्यांकन करने में मदद कर सकता है। भारत ने जुलाई 2017 में सतत विकास लक्ष्यों के क्रियान्वयन की राष्ट्रीय समीक्षा रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र में प्रस्तुत की थी। रिपोर्ट में उन कार्यक्रमों और उपायों का जिक्र किया गया जो पूरे भारत में लागू किए जा रहे हैं ताकि लक्ष्यों को हासिल किया जा सके।

भारतीय राज्य

विषमता की खाई

भारत में खनिज और जंगलों जैसे प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न क्षेत्रों में सबसे गरीब आबादी बसती हैं

भारत स्वास्थ्य व विकास के सूचकांक पर कैसा प्रदर्शन करता है, यह काफी हद तक राज्यों के प्रदर्शन पर निर्भर है। हाल ही में नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत अपने बयान से उस वक्त सुर्खियों में आ गए जब उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के सामाजिक संकेतकों में पिछड़ने के कारण भारत अल्पविकसित है। भले ही उन्हें अपने बयान के कारण आलोचनाओं का सामना करना पड़ा हो लेकिन उनकी बात पूरी तरह गलत भी नहीं है।

यदि आप भारत का मानचित्र गौर से देखेंगे तो पता चलेगा कि खनिज और जंगलों जैसे प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न क्षेत्रों में सबसे गरीब आबादी बसती है। मध्य प्रदेश व ओडिशा में देश की गरीब आबादी का बड़ा हिस्सा बसता है। यहां बच्चों में कुपोषण, मातृ व शिशु मृत्युदर ऊंची है। डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट में बताया जा चुका है कि जंगलों के इर्दगिर्द रहने वाले आदिवासी समुदाय पोषक भोजन के नजदीक रहने के बावजूद सर्वाधिक कुपोषित हैं। भारत के राज्यों में आर्थिक विषमता दुनिया में सबसे अधिक है। 1960 में पश्चिम बंगाल में एक व्यक्ति औसतन 390 रुपए प्रति वर्ष अर्जित कर रहा था जबकि तमिलनाडु में यह राशि 330 रुपए थी। लेकिन 2014 में एक बंगाली सालाना औसतन 80 हजार रुपए अर्जित कर रहा था जबकि तमिलनाडु में रहने वाले व्यक्ति ने साल में 1 लाख 36 हजार रुपए अर्जित किए।

1960 में तमिलनाडु चौथा सबसे गरीब राज्य था लेकिन 2014 में यह दूसरा सबसे धनी राज्य बन गया। दक्षिण भारतीय राज्य तेजी से ऊपर उठे हैं जबकि पश्चिम बंगाल और राजस्थान पिछड़ते गए हैं। 1960 में चोटी के तीन राज्य के मुकाबले निचले पायदान के तीन राज्य 1.7 गुणा अधिक संपन्न थे। 2014 में यह अंतर लगभग दोगुना हो गया। अब चोटी के तीन राज्य निचले पायदान पर स्थित तीन राज्यों से 3 गुणा अधिक संपन्न हैं। 1960 में महाराष्ट्र उस वक्त सबसे निचले पायदान पर स्थित बिहार से दोगुना संपन्न था। 2014 में केरल, बिहार से 4 गुणा अधिक संपन्न था। आर्थिक सिद्धांत सुझाव देते हैं कि गरीब क्षेत्रों का तेजी से विकास करना चाहिए ताकि वे अमीर राज्यों के समकक्ष आ सकें लेकिन भारत में इस विषमता के बढ़ने का ही चलन है।



खेती का हाल

घाटे का सौदा

2001-2011 के बीच 16 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के किसानों की आय में ऋणात्मक वृद्धि दर्ज की गई

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक महत्वपूर्ण वादा है- 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करना। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने 2018-19 के बजट में इसे शामिल किया। साथ ही एक अन्य घोषणा की कि खरीफ की फसलों के लिए उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया जाएगा। लेकिन क्या यह संभव है?

किसानों की आय दोगुनी करने के संबंध में केंद्र सरकार द्वारा गठित दलवई समिति के अनुसार, किसानों की आमदनी नगण्य दर से बढ़ रही है। राष्ट्रीय स्तर पर 2002-12 के दशक में खेती से आमदनी औसतन 3.8 प्रतिशत बढ़ी। इस अवधि में कृषि क्षेत्र की समग्र वार्षिक विकास दर 3 प्रतिशत थी। हैरानी की बात यह है कि 2001 से 2011 के बीच देश में किसानों की संख्या 8.5 मिलियन कम हो गई है। वहीं, कृषि श्रमिकों की संख्या 37.5 मिलियन बढ़ी। इस अवधि में 16 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के किसानों की आय में ऋणात्मक वृद्धि हुई। 2012-13 के दौरान दिल्ली में एक किसान ने 14,079 रुपए अर्जित किए। 2002-03 के मुकाबले यह आमदनी 12.6 प्रतिशत कम है। खेती से आमदनी में यह गिरावट 13 राज्यों के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल (4.2 प्रतिशत), बिहार (1.4 प्रतिशत) और उत्तराखंड (3.4 प्रतिशत) में दर्ज की गई। इसका क्या मतलब निकाला जाए?

अब नजर डालते हैं किसानों की आमदनी दोगुनी करने की लागत पर। कृषि एक निजी उद्यम है जिसे सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों से मदद मिलती है। समिति के अनुसार, 2015-16 की कृषि की विकास दर 2022 तक स्थिर रहेगी और किसानों की आमदनी में प्रतिवर्ष 9.23 प्रतिशत का इजाफा होगा। इसके लिए किसानों को 46,299 करोड़ रुपए (2005-06 के मूल्य पर) के निवेश की जरूरत है। 2015-16 में किसानों ने 29,559 करोड़ रुपए का निवेश किया था। सरकार को 1,02,269 करोड़ रुपए के निवेश की जरूरत है जो 2015-16 में 64,022 करोड़ रुपए था। धनराशि में निवेश की यह जरूरत सवाल खड़े करती है कि क्या किसान इस स्थिति में हैं कि वे कृषि में बिना लाभ के इतना निवेश कर सकें? सार्वजनिक निवेश की बड़ी राशि सिंचाई परियोजनाओं पर व्यय होती है। ये परियोजनाएं भी कारगर नहीं हैं। प्रस्तावित निवेश से किसानों के कर्ज में ही वृद्धि होगी। कायदे से किसानों की आमदनी दोगुनी करने की शुरुआत उन्हें कर्ज मुक्त करके होनी चाहिए। केंद्र सरकार यह जिम्मेदारी राज्यों को सौंपकर पल्ला झाड़ना चाहती है।


जमीन

बंजर जमीन मूल चुनौती

भारत में जमीन व्यापक स्तर पर अपनी उर्वराशक्ति खोती जा रही है

मध्य प्रदेश में पिछले साल प्रदर्शन के दौरान फायरिंग से 6 किसानों की मौत और महाराष्ट्र में कर्जमाफी के लिए आंदोलन दो बड़ी घटनाएं थीं। ये घटनाएं भारत की कृषि को प्रभावित कर रहे गंभीर संकट के बड़े लक्षण हैं। भारत में भूमि का बंजर होना या मरुस्थलीकरण कृषि की मूलभूत चुनौती है।

सरकारी अनुमान के मुताबिक, 30 प्रतिशत भारत बंजर हो गया है या बंजर होने के कगार पर है। भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र 328.72 मिलियन हेक्टेयर (एमएचए) है, इसमें से 96.4 एमएचए बंजर होने के करीब है। आठ राज्यों- राजस्थान, दिल्ली, गोवा, महाराष्ट्र, झारखंड, नागालैंड, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश में करीब 40 से 70 प्रतिशत भूमि बंजर होने की स्थिति में है। इसके अलावा 29 में से 26 राज्यों में पिछले दस वर्षों में जमीन के बंजर होने की दर में बढ़ोतरी हुई है।

जमीन को बंजर उस स्थिति में कहा जाता है जब क्षरण से भूमि क्षेत्र लगातार सूखता जाता है और अपने जलस्रोत खो देता है। साथ ही साथ अपनी वनस्पति और वन्यजीव भी गंवा देता है। कम बारिश और भूमिगत जल के नीचे जाने से मुख्यत: जमीन बंजर होती है। 10.98 प्रतिशत भूमि के बंजर होने के पीछे यह कारण जिम्मेदार है। जल क्षरण ठंडे और गर्म रेगिस्तानी इलाकों में देखा जा रहा है। अगला बड़ा कारण वायु क्षरण है।

डबलिंग फार्मर्स इनकम समिति की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कृषि भूमि का बड़ा भाग नई टाउनशिप और औद्योगिक इकाइयों को दिया जा रहा है। रिपोर्ट में चिंता जाहिर की गई है कि उजाड़ और गैर कृषि योग्य भूमि को खेती के दायरे में लाया जा रहा है। इससे कृषि की उत्पादकता और आय सुरक्षा पर असर पड़ा है।

1970-71 से गैर कृषि योग्य भूमि में 10 एमएचए तक का इजाफा हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि उत्पादक कृषि भूमि का उपयोग अन्य कार्यों के लिए हुआ है। इस अवधि (1971-2011-12) के दौरान बंजर और बिना जोत की भूमि 28.16 एमएचए से गिरकर 17.23 एमएचए हो गई है। यह एक एमएचए से अधिक है।



जल

साफ पानी का सपना

कई राज्यों के भूमिगत जल में 10 ऐसे नए प्रदूषक मिले हैं जो स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित करते हैं

गैर लाभकारी अंतरराष्ट्रीय संगठन वाटरऐड के अनुसार, भारत उन देशों की सूची में पहले स्थान पर है जहां लोगों के घरों के पास साफ पानी की व्यवस्था सबसे कम है। इथियोपिया और नाइजीरिया ने हमसे बेहतर प्रदर्शन किया है। यह हालात तब हैं जब भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जिसने लोगों तक पानी पहुंचाने में काफी सुधार किया है।

भारत भूमिगत जलस्तर के नीचे जाने, सूखे, कृषि और उद्योग की ओर से पानी की मांग, प्रदूषण और गलत जल प्रबंधन जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है। यह चुनौती जलवायु परिवर्तन के कारण अतिशय मौसम की घटनाओं से और बढ़ेगी। नवंबर 2017 को भारत सरकार ने अपने ग्रामीण जल कार्यक्रम को संशोधित किया था ताकि 90 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों तक 2022 तक पाइपलाइन के जरिए पानी पहुंचाया जा सके। लेकिन अगर पिछले अनुभव पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि यह लक्ष्य हासिल करना बेहद मुश्किल है।

भारत में करीब 47.4 मिलियन ग्रामीण आबादी साफ पानी से वंचित है। कुछ समय पहले तक भूमिगत जल में मिलने वाले प्रदूषक मसलन, फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन, हेवी मेटल, खारापन और नाइट्रेट स्वास्थ्य को चुनौती पेश कर रहे थे। लेकिन अब खतरा और बढ़ गया है क्योंकि भूमिगत जल में 10 ऐसे नए प्रदूषक मिले हैं जो स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। इन प्रदूषकों में मैगनीज, कॉपर, एल्यूमिनियम, मरकरी, यूरेनियम, लेड, कैडमियम, क्रोमियम, िसलेनियम और जिंक शामिल हैं। ज्यादातर प्रदूषक पंजाब के भूमिगत जल में मौजूद हैं।

ग्रामीण रिहाइश जो प्रदूषकों से सबसे अधिक प्रभावित है, उनमें असम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल शामिल हैं। राजस्थान की 19,657 रिहाइश में प्रदूषक पाए गए हैं। पश्चिम बंगाल की 17,650, असम की 11,019, पंजाब की 3,526 रिहाइश में फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन, खारापन, नाइट्रेट और हेवी मेटल्स मिले हैं। साफ पानी का विकल्प न होने के कारण लोग प्रदूषित जल पीने को अभिशप्त हैं।



नदियों का हाल

प्रदूषण की मार

भारत की नदियों में क्रोिमयम, कॉपर, िनकल,लेड और आयरन की मात्रा तय मानकों से कई गुणा अधिक पाई गई है

भारत में प्रतिदिन 61,948 मिलियन लीटर शहरी सीवेज उत्पन्न होता है। यह बात केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2015 की अपनी रिपोर्ट में कही है। लेकिन शहरों में बने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) की क्षमता कुल उत्पन्न होने वाले सीवेज का 38 फीसदी ही है। इसका अर्थ है कि इसके बाद का सीवेज बिना उपचार के ही नदियों या अन्य जल निकायों में बहा दिया जाता है । इसमें ग्रामीण क्षेत्र का सीवेज शामिल नहीं है। हाल ही में केंद्रीय जल आयोग के अध्ययन में बताया गया है कि देश की 42 नदियों में कम से कम दो विषैली भारी धातुओं की मात्राएं अपनी तय सीमा से अधिक पाई गईं।

अध्ययन के दौरान देश की 16 नदी घाटियों के पानी का परीक्षण किया, इन नदियों से पानी का नमूना शरद, ग्रीष्म और वर्षा तीनों मौसम के दौरान लिया गया। 69 नदियों में सीमा से अधिक लेड पाया गया और 137 नदियों में आयरन सीमा से अधिक था। देश की सबसे पवित्र और राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्राप्त गंगा में क्रोमियम, कॉपर, निकल, लेड और आयरन पाया गया है। आयोग द्वारा देशभर की नदियों के 414 स्टेशनों से पानी के नमूने एकत्र किए गए थे। परीक्षण के बाद इनमें से 136 स्थानों का पानी उपयोग लायक पाया गया जबकि 168 स्थानों के पानी में आयरन की मात्रा अधिक मिलने के कारण वह पीने योग्य नहीं था। भारत की नदियों में अभी भी प्रदूषण स्तर में सुधार का कोई संकेत नहीं दिख रहा है। यमुना नदी की सफाई 19193 से चल रही है लेेिकन अब तक इसके पानी में किसी प्रकार का सुधार नहीं हुआ है। 2017 में भी इसका पानी नहाने लायक नहीं हो पाया था।

देश के पांच राज्यों (महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल और असम) की नदियों में अधिकमत प्रदूषण की स्थिति विद्यमान है। ऐसी नदियों की लंबाई लगभग 12,363 किलोमीटर आंकी गई है। अकेले बड़ी संख्या में सीवेज प्रोजेक्ट के निर्माण से ही नदियां प्रदूषण मुक्त नहीं होंगी। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने एक अध्ययन में में कहा है कि अर्द्धनिर्मित सीवेज नेटवर्क और बिना किसी विशिष्ट योजना के डिजाइन किए गए सीवेज से नदियों को प्रदूषण से मुक्त नहीं कराया जा सकता।


जंगल

घटते वन

देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 21 प्रतिशत से कुछ अधिक क्षेत्र पर वनाच्छादित है। इसे 33 प्रतिशत होना चाहिए

मार्च 2018 में जारी नेशनल फॉरेस्ट पॉलिसी के ड्राफ्ट के अनुसार, वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों की पारिस्थितिकी और आजीविका सुरक्षा के लिए देश में वनों के तहत कम से कम 33 प्रतिशत भूमि होनी चाहिए। हालांकि, आज देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 21 प्रतिशत से कुछ अधिक क्षेत्र पर वनाच्छादित है। परन्तु वास्तविकता यह है कि देश के 18 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के कुल क्षेत्रफल में वन भूमि की हिस्सेदारी 33 फीसदी से भी कम है।

प्रस्तुत ड्राफ्ट पॉलिसी 30 साल पहले जारी की गई मौजूदा नीति को प्रतिस्थापित करेगी। इसके अनुसार मृदा-क्षरण और भू विकृतिकरण को रोकने के लिए पहाड़ी इलाकों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का कम से कम 66 प्रतिशत हिस्सा वनाच्छादित होना चाहिए, जिससे इस नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता और सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। लेकिन देश के 16 पहाड़ी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में फैले 127 पहाड़ी जिलों में कुल क्षेत्रफल के केवल 40 प्रतिशत हिस्से पर वनाच्छादित हैं। इनमें जम्मू-कश्मीर (15.79 प्रतिशत), महाराष्ट्र (22.34 प्रतिशत) और हिमाचल प्रदेश (27.12 प्रतिशत) के पहाड़ी जिलों का सबसे कम हिस्सा वनाच्छादित है।

हालांकि, इंडियन स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2017 भले ही 2015 से 2017 के बीच कुल वन क्षेत्र में 0.2 फीसदी की मामूली वृद्धि को दर्शाती है। लेकिन हाल ही में प्रकाशित कई रिपोर्टों से पता चला है कि यह वृद्धि प्राकृतिक वन क्षेत्र के बढ़ने के कारण न होकर वाणिज्यिक बागानों के बढ़ने के कारण हुई है जो कि ओपन फॉरेस्ट कैटिगरी में आते हैं।

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, महाराष्ट्र में अधिकतम जंगल है। इन राज्यों में पिछले तीन सालों में जंगल कम हुए हैं। मध्य प्रदेश में 12 वर्ग किलोमीटर जंगल कम हुए हैं। कृषि भूमि में वृद्धि, विकास कार्य में तेजी, डूब क्षेत्र का इजाफा और राज्य में खनन प्रक्रिया में तेजी इसके कारण रहे। इन्हीं कारणों से छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में भी जंगल कम हुए हैं।



पर्यावरणीय अपराध

अपराध का विस्तार

उच्च मुनाफा और पकड़े जाने की कम संभावना के कारण पर्यावरण से जुड़े अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं

भारत में वन्यजीव अपराधों की दर में तेजी से वृद्धि हो रही है। आज पर्यावरणीय अपराधों के मामले इतने अधिक हो गए हैं कि इन मामलों की सुनवाई के लिए आठ साल (2010) पहले राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) का गठन किया गया। देश के 15 राज्यों में 2015-16 वर्ष के दौरान पर्यावरणीय अपराधों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। अकेले 2016 में 4,732 पर्यावरणीय संबंधी अपराध के मामले पंजीकृत किए गए। इनमें से 1,413 मामलों में पुलिस जांच बाकी है। इस समय देश में कुल 21,145 पर्यावरणीय अपराध के मामले विचाराधीन हैं।

ध्यान रहे कि स्वतंत्रता के बाद वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए सर्वप्रथम कानून 1972 में एनवायरमेंट एक्ट व वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट लागू किया गया। स्वतंत्रता पूर्व 1927 से ही वन्य अधिनियम है। 1974 में वाटर एक्ट और 1981 में एयर एक्ट लागू किया गया। वन्य अधिनियम कानून 1927 से लागू है और इस कानून का उल्लंघन करने के मामले में पहले नंबर पर राजस्थान, दूसरे पर उत्तर प्रदेश और तीसरे स्थान पर हिमाचल प्रदेश आता है। राजस्थान में इस कानून के उल्लंघन के 1,191 मामले दर्ज हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में 1,815 और हिमाचल प्रदेश में 157 मामले दर्ज हैं। 2016 में औसतन प्रतिदिन 9.3 मुकदमें निपटाए गए। इसलिए प्रतिदिन 58 मुकदमें निपटाए जाने की जरूरत है ताकि लंबित मामलों को खत्म किया जा सके। अन्यथा यदि अदालत इसी दर से मुकदमें निपटाती रही तो वर्तमान में लंबित मुकदमों को निपटाने में 6 साल लगेंगे।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा संसद में जानकारी दी गई है कि पिछले 4 सालों में 274 बाघों की मौत हो चुकी है। इनमें से प्राकृतिक कारणों से केवल 82 बाघों की मृत्यु हुई है। शेष 70 प्रतिशत से अधिक बाघ की मौत शिकार या अन्य कोई कारण से हुई है यह अभी तक वन विभाग नहीं बता पाया है। 2014 में नेरोबी में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा(यूएनईए) की पहली बैठक में 100 से अधिक पर्यावरण मंत्री एकत्रित हुए। संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि पर्यावरण से जुड़े अपराधों में उच्च मुनाफा और इस अपराध के बाद पकड़े जाने की कम संभावना ने इसके तेजी से बढ़ने का मुख्य कारण है।



स्वच्छ भारत मिशन

स्वच्छता की कसौटी

ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ भारत मिशन अक्टूबर 2019 लक्ष्य प्राप्त कर लेगा लेकिन शहरी क्षेत्र इससे अभी काफी दूर हैं

भारत को अक्टूबर 2019 तक खुले शौच से मुक्त करना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा राजनीतिक वादा था। इस वादे के बाद स्वच्छ भारत मिशन सरकार का सबसे बड़ा कार्यक्रम बनकर उभरा है। सवाल है कि क्या इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है?

ग्रामीण भारत के हर घर में जल्द एक शौचालय होगा, भले ही शौचालय की स्थिति बहस का मुद्दा हो। 2 अक्टूबर 2019 की समयसीमा से पहले 100 प्रतिशत लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा। अप्रैल 2018 तक महज 27.8 मिलियन घर शौचालय से वंचित हैं। मार्च 2019 तक इन घरों में शौचालय बन जाएगा। प्रधानमंत्री द्वारा अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत के बाद शौचालय बनाने की गति में बेहद तेजी आई है। महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर लक्ष्य को हासिल करना है।

2014-15 के मुकाबले 2015-16 में शौचालय निर्माण की गति में 2.2 गुणा बढ़ोतरी हुई है। अगले वित्त वर्ष में यह रफ्तार 1.7 गुणा बढ़ गई और 2016-17 यह 1.4 गुणा हो गई। अगर 2018-19 में कम से कम 1.4 गुणा की रफ्तार चालू रहती है तो ग्रामीण भारत के सभी घरों में दिसंबर 2018 तक शौचालय का निर्माण हो जाएगा। 2015-16 में शौचालय कवरेज करीब 50 प्रतिशत था जो 2016-17 में 14 प्रतिशत और 2017-18 में 19 प्रतिशत बढ़ गया। जून 2017 में शौचालय कवरेज 62 प्रतिशत था जो अप्रैल 2018 में बढ़कर 83 प्रतिशत पहुंच चुका है।

हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय बनाने में बिहार, ओडिशा और उत्तर प्रदेश सबसे पीछे हैं जबकि आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम आदि राज्यों में 100 प्रतिशत शौचालय कवरेज हासिल कर लिया गया है। ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरी क्षेत्रों में शौचालय निर्माण की गति धीमी है। अब तक किसी भी राज्य में लक्ष्य हासिल नहीं किया गया है। यहां भी बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा काफी पीछे हैं। दूसरी तरफ अरुणाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गुजरात, झारखंड, सिक्किम और पंजाब लक्ष्य से बहुत दूर नहीं हैं।



वायु प्रदूषण

हवा में जहर

लखनऊ में नवंबर और दिसंबर 2017 के पूरे 61 दिनों तक हवा की गुणवत्ता गंभीर और निम्न दर्जे की थी

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने अपने रीयल टाइम मॉनिटरिंग स्टेशनों की संख्या बढ़ा दी है। 2010 में जहां 10 शहरों में ऐसे स्टेशन थे, वहीं ये अब बढ़कर 50 से अधिक हो गए हैं। इन स्टेशनों से शहरों में हवा की गुणवत्ता की जो तस्वीर उभरकर सामने आ रही है, वह बेहद चिंताजनक है। सीपीसीबी 10 बड़े शहरों का एयर क्वालिटी इंडेक्स रिपोर्ट प्रतिदिन जारी करता है।

इस रिपोर्ट पर नजर डालने पर विभिन्न प्रदूषकों का चिंताजनक स्तर देखा जा सकता है। पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5 और पीएम 10 में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड के मिलने से गर्मियों (अप्रैल से 27 मई 2018) में चुनौती मिलती है। गर्मियों और सर्दियों में सबसे खराब हवा की गुणवत्ता लखनऊ में दर्ज की गई। यहां नवंबर और दिसंबर 2017 के पूरे 61 दिनों तक हवा की गुणवत्ता गंभीर और निम्न दर्जे की थी। गर्मियों में 57 में से 31 दिन (अप्रैल से 27 मई 2018) हवा की गुणवत्ता का स्तर निम्न और बेहद निम्न था। बेंगलुरू जैसे शहरों में भी कुछ दिन ही संतोषजनक और औसत दर्ज किए गए। हालांकि ये दिन भी सांस संबंधी बीमारियों के लिए माकूल हैं।

हवा की गुणवत्ता की मॉनिटरिंग करने वाले 54 शहरों की सूची में शामिल कोलकाता में ठंड के महीनों-नवंबर और दिसंबर का कोई आंकड़ा मौजूद नहीं था। गर्मियों के दिनों की वायु में प्राथमिक प्रदूषकों के तौर पीएम 10, पीएम 2.5, O3, NO2 और CO पाया गया है। पटना के वायु प्रदूषण की निगरानी में ठंड के 15 दिनों के आंकड़े प्राप्त नहीं हो पाए जबकि गर्मियों में ऐसे दिनों की संख्या 6 थी। मुंबई में गर्मी के 16 दिनों और ठंड के एक दिन का आंकड़ा हासिल नहीं हो पाया। कोलकाता में अधिकांश दिनों के आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण वायु प्रदूषण की गुणवत्ता का विश्लेषण नहीं किया जा सका। मुंबई और बिहार में भी आंकड़ों की विसंगतियां देखी गईं। आंकड़ों की कमी हाल ही में लॉन्च किए गए राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम को प्रभावित कर सकता है। इस कार्यक्रम के तहत शहरों को शहर आधारित एक्शन प्लान बनाने को कहा गया है।