राजस्थान का मरुस्थली इलाका असामान्य बारिश से जूझ रहा है। बाढ़ न केवल नियमित होती जा रही है बल्कि विनाशकारी रूप भी धर रही है। कहीं राजस्थान जलवायु परिवर्तन की कीमत तो नहीं चुका रहा? अनिल अश्विनी शर्मा ने बाढ़ग्रस्त इलाकों विशेषकर पाली, सिरोही,जालौर, बाड़मेर और जैसलमेर के तीन दर्जन से अधिक गांवों का दौरा कर प्रभावितों और विशेषज्ञों से बात की और इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश की
पाली जिले का डोला गांव एक तरह से टापू बन गया है। जुलाई, 2017 के आखिरी हफ्ते में आई बाढ़ का पानी अब उतार पर है। ग्रामीण गांव के अंदर ही ऊंचे घरों की छतों व गांव के ऊपरी स्थान से नीचे उतर अपने क्षतिग्रस्त हो चुके घरों को संभालते व नुकसान का अनुमान लगाते नजर आ रहे हैं। गांव के लोग बाट जोह रहे हैं कि सरकार कब उनकी सुध लेने आएगी (बारिश बंद हुए 14 दिन बीत चुके हैं)। इसी गांव के पूर्व सरपंच पाबू सिंह रानावत की मानें तो पिछले 17 साल में पहली बार गांव का तालाब लबालब भरा है। वे कहते हैं, “देखकर मन खुश होता है लेकिन यह देखकर दुख हो रहा है कि इस बार तो पूरा गांव ही तालाब बन गया।” इसी तालाब की मेड़ पर लंबा घूंघट निकाले और हाथों में पकड़ी लाठी के सहारे खड़ी 75 साल की देवासी समुदाय (पाली जिले के हर गांव में 15 से 20 घर इसी समुदाय के हैं) की झुम्मी देवी आसमान में तेजी से घुमड़ रहे बादलों की ओर टकटकी लगाए हुए है।
कुरेदने पर फट पड़ती हैं। ऊपर वाले को कोसते हुए कहती हैं, “अब तक तो जिंदगी भर सूरज देव का कहर ढाए और अब पिछले बीसेक साल से यह काम इंद्र देवता कर रहे हैं। हर बार(2006 व 2015-16-17) बाढ़ में मेरे 50 से 60 मवेशी (बकरी और भेड़) बह या मर जाते हैं।” कारण पूछने पर कहती हैं, “हमारी आबोहवा गर्मी झेल सकती है लेकिन बारिश नहीं। पता नहीं पिछले डेढ़ दशक से हमसे ऐसी क्या खता हो गई कि ऊपर वाला हमसे मुंह ही मोड़ रखा है।”
अनपढ़ झुम्मी देवी जलवायु परिवर्तन जैसे बड़े शब्दों से वाकिफ नहीं है लेकिन वह अपनी पकी उम्र के आधार अपनी ही भाषा में इलाके पर तेजी से जलवायु परिवर्तन के असर की ओर इशारा करती नजर आती हैं। झुम्मी देवी की अनगढ़ बातों को थोड़ा तार्किक दृष्टिकोण देते हुए पाली जिले के पर्यावरणीय मामलों पर आधा दर्जन से अधिक जनहित याचिका दायर करने वाले वकील प्रेम सिंह राठौर कहते हैं, “राजस्थान के पश्चिमी भाग में जलवायु परिवर्तन का असर पिछले डेढ़ दशक से दिख रहा है। इसी के नतीजतन यहां बारिश के स्वरूप में बदलाव आया है। एक दिन में होने वाली बारिश का औसत बढ़ा है।
पिछले 15 सालों से यहां बारिश 15 फीसदी की दर से बढ़ रही है। लेकिन पिछले साल (2016 में 849.2 मिमी) तो यहां औसत से 300 फीसदी अधिक बारिश हुई। इस साल भी औसत से 200 फीसदी से अधिक बारिश रिकॉर्ड की गई है। इसका कारण है हवा के स्वरूप (विंड पैटर्न) में तेजी से बदलाव। यह क्षेत्र समुद्र से बहुत अधिक दूरी (यह दूरी लगभग 350 सौ किलोमीटर) पर नहीं है। इसके कारण वातावरण में तेजी से आर्द्रता आ रही है। मानसून का स्वरूप अब पश्चिम की ओर हो रहा है। इसकी वजह से इस पश्चिमी भाग में बहुत ज्यादा तूफान आ रहे हैं। यही नहीं इस इलाके के तापमान में भी तेजी से इजाफा हो रहा है।”
इस वर्ष राजस्थान व गुजरात के शुष्क क्षेत्र में जून में भारी बारिश हुई। अगले माह जून में राजस्थान में दो दौर में अतिवृष्टि हुई। जयपुर आपदा और राहत विभाग के सचिव हेमंत गेरा ने कहा कि इस साल पश्चिमी राजस्थान के पाली, सिरोही, जालौर, बाड़मेर सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित जिले हैं। अकेले पाली जिले में ही बाढ़ से 621 गांव प्रभावित हुए हैं। राज्य के अन्य बाढ़ प्रभावित जिलों जैसे जालोर, सिरोही और बाड़मेर में क्रमश: 269, 348 और 61 गांव बाढ़ प्रभावित हैं। उन्होंने बताया कि राज्य सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर इन चार जिलों के कुल 1290 गांवों को बाढ़ प्रभावित घोषित किया है। राठौर ने बताया, “हालांकि यह सरकारी आंकड़ा है और इसमें और बढ़ोतरी संभव है। इस संबंध में राज्य सरकार का जयपुर स्थित आपदा व राहत विभाग अब तक बाढ़ के नुकसान का प्राथमिकअनुमान के लिए सर्वे कर रहा है।”
जालौर जिले से 150 सौ किलोमीटर दूर सांचोर और वहां से 18 किलोमीटर आगे शिवडा गांव और यहां से 13 किलोमीटर दूर होती गांव। एक ऐसा गांव जो अब भी बाढ़ में डूबा हुआ है। ग्रामीणों के अनुसार बाढ़ आए 18 दिन बीत चुके हैं। अब तक इस गांव में न कोई सरकारी नुमाइंदा पहुंचा है और न ही कोई मीडिया। यहां तक कि गांव के सरपंच ने भी अब तक गांव की सुध नहीं ली। आखिर पहुंचे भी कैसे। यहां तक आने के लिए कम से पांच साधनों का उपयोग करने के बाद ही कोई इस गांव तक पहुंच सकेगा। बस, जीप, बाइक, पैदल और अंत में ट्रैक्टर का उपयोग करके ही पहुंचा जा सकता है। क्योंकि यहां तक पहुंचने में 11 घंटे से ज्यादा लग जाते हैं। अकेला यही गांव बाढ़ में नहीं डूबा हुआ है। इसके नीचे के लगभग 19 गांवों से बाढ़ का पानी अब भी नहीं उतरा है। होती गांव सहित आसपास के सभी गांवों में आज से पचास साल पहले तक यहां आकर मिलने वाली सात बरसाती नदियों की उपजाऊ मिट्टी से खेती लहलहाती थी।
लेकिन पिछले दो दशकों से हुई लगातार भारी बारिश ने बरसाती नदियों को ऐसी मतवाली बना दिया कि वे अपनी धारा ही बदल बैठीं। धारा बदल कर आधा दर्जन से अधिक नदियां गांवों में जा घुसीं। होती गांव के घर अब भी पानी में डूबे हैं और गांववासी गांव की ऊंची जगहों पर कहीं चद्दर तो कहीं तिरपाल तान कर अपना सिर छुपाए बैठे हैं। गांव के किसान मनोहर सिंह कहते हैं कि इसे कुदरत का कहर कहें या जलवायु परिवर्तन, अपने जीवन में इतनी बाढ़ तो मैंने न देखी थी। मेरे बचपन से बड़े होने तक इस गांव की फिजा से लेकर नदियां तक दिशा बदल चुकी हैं। वे कहते हैं राज्य सरकार को पता नहीं क्यों यह नहीं सूझता कि अब यहां का वातावरण बदल रहा है तो यहां पानी संग्रह की योजनाओं का क्रियान्वयन करना अब बेमानी है। आखिर इन योजनाओं का ही नतीजा है कि पास के आधे दर्जन गांवों में लोगों ने अपने-अपने खेतों में मुख्यमंत्री जल स्वावलंबन योजना के अंतर्गत “अपना पानी-अपने खेतों में” ही संग्रह करने के लिए मेड़ बनाई थी और अब बाढ़ ने इन मेड़ों के कारण और भयंकर रूप ले लिया।
डेढ़ दशक से पश्चिमी राजस्थान बाढ़ का प्रकोप झेल रहा है। 2006 में बाड़मेर की बाढ़ के अलावा पिछले तीन सालों (2015-16-17) से राज्य बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहा है। अमेरिका में पिछले साल जलवायु परिवर्तन पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत करने वाले जोधपुर के विक्रम एस. राठौर पिछले 17 सालों से राजस्थान में बदलती जलवायु पर नजर रखे हुए हैं, उन्होंने बताया, “वास्तव में पिछले सालों में बंगाल की खाड़ी का मानसून कमजोर पड रहा है और अरब सागर का मानसून मजबूत हो रहा है।” पाली, सिरोही, जालोर और बाड़मेर आदि जिलों में आ रही बाढ़ पर बारीकी से अध्ययन करने वाली पाली जिला स्थित बांगड महाविद्यालय की प्रोफेसर प्रेमवती देवी बताती हैं, “आज से तीन सौ साल पहले इन इलाकों में लगातार बाढ़ आती थी।” वे कहती हैं सिरोही में 1980 में 1985 तक बाढ़, इसके बाद 2003 से 2007 तक बाढ़ आई।
इसी तरह से पाली में 1980 से 1983 तक और फिर 2001 से 2007 तक, जालोर में 1994 में और बाड़मेर में 1988 से 1994 तक प्रतिवर्ष एक साल के अंतर से बाढ़ आती रही। इसके बाद बाड़मेर में बाढ़ 2003 व 2006 में आई। वे चेताती हैं कि इस तरह की बाढ़ अभी लगभग तीन साल तक और आएगी और यह कोई सामान्य बारिश नहीं बल्कि बादल फटने जैसी होगी। वे कहती हैं कि लगातार बदलता मौसम कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन का ही असर है। रेगिस्तान में बाढ़ के इतिहास को खंगालने वाले पाली जिले के पारिस्थितिकी विज्ञानी के.पी. व्यास बताते हैं, “अगर यह बारिश ऐसे ही आने वाले समय में भी हुई तो मुमकिन है कि रेगिस्तान एक बार फिर हरा-भरा हो जाए, जैसा कि हजारों साल पहले हुआ करता था। एक आपदा के कारण सब कुछ बदल गया था”। हालांकि उनका कहना है कि ऐसा होने से यहां के जीव-जंतुओं पर बुरा असर होगा। वे बताते हैं, “यहां की जैव विविधता पर विपरीत असर होगा।
यहां की पारिस्थितिकि में भी बदलाव संभव होगा और सूखे इलाकों में पनपने वाले जीवाणु खत्म हो जाएंगे।” क्या राजस्थान में भी बादल फट सकते हैं और बाढ़ भी आ सकती है? ये यक्ष प्रश्न आज से 15-20 साल पहले बेमानी थे, लेकिन अब ये हकीकत हैं। तभी तो बाढ़ से पंद्रह दिन घिरे रहने वाले पाली जिले के पर्यावरणविद कार्यकर्ता पीएस विजय कहते हैं कि मैंने तो आज तक अपनी 34 साल की जिंदगी में यहां इतनी बाढ़ नहीं देखी। हमें तो ऐसा लग रहा था जैसे कि हम अखबारों या टीवी की रिपोर्ट देखते हैं, जिसमें बार-बार कहा जाता रहता है कि बादल फटने के कारण उत्तराखंड में तबाही का मंजर देखने को मिल रहा है। इस बार कुछ ऐसा ही खौफनाक मंजर यहां देखने को मिला और यह भी जान गए कि यही बादल फटना होता है। वे कहते हैं कि पिछले बीस सालों में यहां बहुत कुछ बदल गया। जलवायु परिवर्तन हमारे यहां अब हकीकत बन गया है।
रेतीले टीले हुए स्थिर
यह राज्य की वास्तविकता है कि यहां की जमीनों का मौलिक रूप से परिवर्तन हो रहा है। इलाकों में लगातार बाढ़ से अकेले नदियों ने ही दिशा नहीं बदली है बल्कि रेगिस्तानी टीलों ने भी सरकना बंद कर दिया है। रेगिस्तानी टीले आंधियों के साथ ही अपना स्थान लगातार बदलते रहते हैं। लेकिन अब इस स्थिति में बदलाव दिख रहा है। पाली जिला स्थित बांगड़ महाविद्यालय के प्रोफेसर रविंदर सिंह राठौर कहते हैं कि मैं अपनी दादी से सुनता हूं कि ऐसी बाढ़ लगभग डेढ़ सौ साल पहले आई थी। जब लोगों ने अपनी मटकी को उलट कर अपनी जान बचाई थी। तब यहां के लोग तैरना ही नहीं जानते थे। वे बताते हैं कि अब हम बादल देख पा रहे हैं। नहीं तो बचपन से लेकर बड़े होने तक हमें कभी-कभार ही बादल के दर्शन हो पाते थे। वे बताते हैं कि अस्सी और नब्बे के दशक में तो बाड़मेर के टीले सड़कों पर पसर जाते थे और इनका फैलाव साठ से सत्तर किलोमीटर से अधिक तक का होता था।
रास्ते रुक जाते थे। मजदूर दिन में जितनी रेत हटाते, रात भर में फिर उतनी ही रेत आ जाती थी। अब आंधी भी कम हो गई है। पहले आंधी चलती थी तो रेत के गुबार से सूरज का ताप कम हो जाया करता था। अब यह सब नहीं हो रहा है। हम इसका क्या मतलब निकालें? कहीं न कहीं तो यह जलवायु में बदलाव के कारण ही हो रहा है। अब बाड़मेर के टीले उड़ते नहीं हैं। पिछले डेढ़ दशकों से हो रही लगातार बारिश ने उनके पैर जमा दिए हैं।
जानवर भी कर रहे हैं पलायन
पिछले सालों में लगातार अतिवृष्टि और नर्मदा नहर के पानी से आम आदमी ही त्रस्त नहीं हुआ है बल्कि जानवर भी अपने लिए किसी सुरक्षित जगह की तलाश में यह क्षेत्र छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं। जालोर जिले के शिवडा गांव के किसान चेतराम विश्नोई बताते हैं कि आज से डेढ़ दशक पहले तक इस इलाके में बड़ी संख्या में हिरण घूमते नजर आ जाते थे। अब तो कभी-कभार इक्का-दुक्का नजर आते हैं। वे इसका कारण बताने की कोशिश करते हुए कहते हैं कि यह इलाका एक दशक में तेज बारिश और नर्मदा नहर के कारण दलदल में बदल चुका है। हिरण जैसे नाजुक जानवरों को दलदल और उमस भरा वातावरण रास नहीं आता।
यही कारण है कि उनकी संख्या में तेजी से कमी आई है। वन विभाग ने भी उनके लिए किसी तरह का इंतजाम नहीं किया है। विश्नोई कहते हैं कि जहां तक मुझे समझ पड़ता है यह सब वातावरण में हो रहे तेज बदलाव के कारण है। हाई कोर्ट में वकील मुरली मनोहर बोडा कहते हैं कि मरुस्थली इलाकों में लगातार मौसम में बदलाव का कारण है कि अब हवायें तेज हो गई हैं और इसके कारण फसलों पर रेत चढ जाती है और पौधा मर जाता है।
रेगिस्तान में तो बाढ़ आएगी नहीं
यह स्पष्ट हो चुका है कि राज्य के मरुस्थली इलाकों में विकास अभी भी पुरानी सोच पर ही आधारित है। तेज बारिश के बीच भानपुरा गांव के पास गुजरने वाले जयपुर-सिरोही राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर-62 के किनारे खड़े दो युवा हर आने-जाने वाले वाहनों को इशारा कर यह समझाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं कि बारिश के कारण राजमार्ग की सड़क धंस रही है, इसलिए वाहन धीरे चलाएं। राजमार्ग की सड़क धंसने का कारण है, राजमार्ग में कहीं भी नाली का न होना और इसके कारण राजमार्ग के दोनों किनारे विशालकाय तालाब बनते नजर आ रहे हैं। वाहनों की ओर इशारा कर रहे युवाओं में एक किशोर वैष्णव बताते हैं कि यह केवल एक जगह नहीं है, जहां इस तरह सड़क धंस रही है।
इस हाइवे पर कम से कम आधे दर्जन से अधिक स्थानों पर सड़कें धंस रही हैं। रेगिस्तानी क्षेत्रों बने राजमार्ग वे पर जनहित दायर करने वाले प्रेम सिंह ने बताया कि राज्य सरकार तो यह मानने को तैयार ही नहीं कि राज्य में जलवायु परिवर्तन के कारण पिछले दो दशकों से लगातार बाढ़ आ रही है। यही कारण है कि राजमार्ग की योजना बनाते समय यह सोचा ही नहीं कि रेगिस्तानी इलाकों में कभी बाढ़ भी आ सकती है। यही कारण है कि इस इलाके में बने हाइवे के ज्यादातर हिस्सों में दोनों तरफ पानी की निकासी के लिए नालियों का निर्माण नहीं किया गया है। इस कारण हाइवे को कई जगहों पर नुकसान तो ही रहा है, साथ ही जनहानि की आशंका भी बढ़ती जा रही है। इसके अलावा राजमार्ग जिन गांवों से गुजर रहे हैं, वे बाढ़ से भी प्रभावित हो रहे हैं। इस संबंध में सिंह द्वारा भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण से सूचना के अधिकार के माध्यम से मांगी गई जानकारी अब तक प्राप्त नहीं हुई है।
एक नदी का मरना
इंसान, जानवर और अब एक जीती-जागती नदी भी जालोर की पिछले डेढ़ दशक की लगातार बारिश का शिकार हो गई। और, अपने साथ मरुस्थली इलाके में भरपूर फसल देने वाले एक लहलहाते जालोर क्षेत्र को डुबो दिया। कच्छ का रण वास्तव में सांचोर (जालोर जिला) से ही शुरू हो जाता है। सांचोर को तेज बारिश और नर्मदा नहर ने दलदली बना दिया। यह एक ऐसा इलाका है, जहां अभी तो बाढ़ है, लेकिन जब बाढ़ नहीं होती है तब भी सांचोर के गांवों में लोग नाव से ही इधर-उधर आने-जाने का काम करते हैं। इस संबंध में यहां के पर्यावरण कार्यकर्ता प्रदीप विदावत बताते हैं, ‘यह नेहड इलाका (लगभग चालीस से पचास गांव जो कि आपस में बाढ़ के कारण कट जाते हैं) है।
जवांई नदी पर बांध का निर्माण करने का प्रस्ताव तत्कालीन जोधपुर राज्य ने तैयार किया था। हालांकि, जब इसका प्रस्ताव आया तब रियासत के प्रधानमंत्री सुखदेव प्रसाद ने इस प्रस्ताव की फाइल में एक नोट लिखा था कि यह जालोर इलाके की उत्पादन क्षमता (गेहूं, फल और मसाला) को पूरी तरह से खत्म कर देगा। शुरू में बांध की ऊंचाई 30 फुट, फिर 40, 60 और अब 61.25 फुट है। बांध के निर्माण के पहले जवांई नदी बारह मासी थी, फिर नौ मासी हुई और अब बरसाती नदी बन कर रह गई। बांध बनकर तैयार हुआ 1956 में और इस बांध को साठ साल लगे एक नदी को खत्म करने में।’ विदावत आगे कहते हैं-नदी को बांध ने खत्म किया या मरुस्थली इलाकों में तेजी से बदल रहे जलवायु परिवर्तन ने, इस पर अब सोचने का समय आ गया है।
विशेषज्ञों की रायशुमारी
राज्य में लगातार बारिश ने जलवायु परिवर्तन का किसी न किसी स्तर पर संकेत दिया है। राजस्थान भारत का सर्वाधिक शुष्क राज्य है। अतिवृष्टि और बाढ़ को राजस्थान से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। हालांकि, मौजूदा मानसून इसी वजह से याद किया जाएगा। जून के अंतिम हफ्ते में राजस्थान के कई जिलों में अप्रत्याशित बरसात हुई और बाढ़ आ गई। सबसे स्मरणीय उदाहरण रहा दक्षिणी राजस्थान का सिरोही जिला। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार 26 जुलाई को मात्र एक दिन में दिल दहला देने वाली 324 मिमी बरसात हुई। अगले दिन की बात की जाए तो पिछले दो दिनों को शामिल करते हुए इस जिले में सामान्य वार्षिक औसत बरसात की 50 फीसद से अधिक बारिश हो चुकी थी।
विभागीय आंकड़ों के अनुसार 23 जुलाई से 30 जुलाई के बीच के एक हफ्ते में सिरोही में 657 मिमी बरसात हुई। ये आंकड़े बरसाती क्षेत्रों के लिहाज से भी उल्लेखनीय हैं, जबकि मरुप्रदेश की तो बात ही कुछ और है। इस मरु जिले में पूरे मानसून में 876 मिमी बरसात होती है और पूरे वर्ष में बरसात 950 मिमी के करीब होती है। मानसून के असामान्य निम्न दबाव की वजह से दक्षिणी राजस्थान के सिरोही और गुजरात के ज्यादातर क्षेत्रों में अप्रत्याशित बरसात हुई। मानसून का तंत्र निम्न दबाव से विकसित होता है और फिर अपना सफर शुरू करता है, जिस वजह से इन क्षेत्रों में बरसात हुई। अमूमन ओड़िशा और आंध्रप्रदेश के पूर्वी तटीय क्षेत्रों में निम्न दबाव का क्षेत्र विकसित होता है और उत्तर-पश्चिम की ओर सरकता है। लेकिन इस साल अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में दो अलग-अलग तंत्र एक साथ विकसित हुए। इन निम्न दबाव वाले क्षेत्रों की वजह से राजस्थान, कच्छ, सौराष्ट्र और गुजरात में बरसात हुई जिसने अपना सफर उपमहाद्वीप के दूसरे छोर ओड़िशा से शुरू किया।
मौसम विभाग के अनुसार जुलाई के अंतिम हफ्ते में आई बाढ़ को असामान्य विचलन के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है। लेकिन यह समझना जरा कठिन है कि देश के कुछ मरुस्थलीय इलाकों में बरसात की लगातार बढ़ती प्रवृत्ति और इनके बाढ़ आशंकित क्षेत्र के रूप में विकसित होने और बारिश की अधिकता की निरंतरता की वजह क्या है? इस संबंध में भारतीय मौसम विभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक एस.डी. अत्री कहते हैं कि पिछले एक दशक में राजस्थान विशेषकर पश्चिमी राजस्थान जो कि प्रमुखत: मरुस्थलीय है, में मौसमी और आवधिक बरसात अधिक दर्ज हुई है। पिछले दस सालों में केवल दो ऐसे साल निकले जब मानसून के दौरान औसत से कम बरसात हुई। पश्चिमी राजस्थान में 2010 के बाद से औसत बारिश का सामान्य स्तर 32 फीसदी बढ़ा है। पूर्वी राजस्थान में यह वृद्धि 14 फीसदी रही है। 2000 से लेकर 2007 तक की बात की जाए तो केवल एक वर्ष ऐसा था जब मानसून की औसत बरसात सामान्य से अधिक हुई थी। जबकि 2006-2007 से बारिश की प्रवृत्ति में जबदरस्त परिवर्तन आना शुरू हुआ।
भारतीय मौसम विभाग का कहना है कि अकेले 2016 में पश्चिमी राजस्थान के मरुस्थलीय इलाकों में 18 बार बरसात हुई, जिनमें एक दिन की औसत बारिश 120 मिमी को पार कर चुकी थी। जबकि पूर्वी राजस्थान में 126 बार बरसात हुई। हाल के सालों में अधिक बरसात की वजह से ही राजस्थान में बाढ़ के हालात बने हैं। 2000 तक तो राजस्थान में बाढ़ नहीं के बराबर आती थी। लेकिन पिछले एक दशक में राजस्थान में बाढ़ आम हो चुकी है। इस लिहाज से अहम मोड़ 2006 में बाड़मेर में बाढ़ का आना रहा। इस मरुस्थलीय जिले में अगस्त 2006 के अंतिम हफ्ते में 750 मिमी बरसात हुई, जो कि उसकी औसत वार्षिक बरसात का पांच गुना थी। भयंकर बाढ़ के कारण 300 से अधिक मौतें हुईं। इस बाढ़ को राजस्थान के 200 साल के इतिहास में सबसे खतरनाक बाढ़ बताया गया।
राष्ट्रीय बाढ़ प्रबंधन समंक संस्थान के अनुसार बाढ़ के एक साल के बाद भी पानी का स्तर 3 फुट तक था। उसके बाद से इस मरुस्थलीय प्रदेश में बाढ़ प्रतिवर्ष आ रही है। पिछले पांच सालों में हर साल राज्य में बाढ़ आई है। वर्ष 2012 में राजस्थान के कई जिले जिनमें टोंक, सवाईमाधोपुर, झुंझनूं, सीकर, दौसा, हनुमानगढ़, जयपुर और बीकानेर लगातार भारी बरसात की वजह से जलमग्न हो गए थे और 14 लोगों की मौत हो गई थी। कोटा, बूंदी और झालावाड़ में अनवरत बारिश की वजह से रावतभाटा में बाढ़ आ गई थी। वर्ष 2014 में दौसा, नागौर, अजमेर और सीकर जिलों में एक दिन में 100 मिमी से अधिक बरसात होने की वजह से बाढ़ आ गई थी और राहत व बचाव कार्य के लिए सेना बुलाई गई।
वर्ष 2015 में जालोर, झालावाड़, बारां व डूंगरपुर में भारी बरसात की वजह से बाढ़ आ गई और 30 लोगों की मौतें हुईं। इसके बाद 2016 में अगस्त में दो दौर में हुई जबरदस्त बारिश से राज्यभर में खासकर मध्य, दक्षिण और पश्चिमी राजस्थान में बाढ़ आ गई। राजस्थान जो कि सूखाजनित मरुप्रदेश है, भारी बरसात और बाढ़ का अभ्यस्त नहीं रहा है। लेकिन हालिया बरसात को अप्रत्याशित भी नहीं कहा जा सकता है। पिछले 100 सालों और अधिक की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने पर भी कुछ अहम इशारा नहीं मिलता है, जबकि इस दौरान कई वैकल्पिक अवधियों में न्यूनाधिक बरसात के उदाहरण हैं।
मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एमएनआईटी) के प्रोफेसर एम.के. जट के अनुसार, हमने राजस्थान के लिए कोई अलग से जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे में अध्ययन नहीं किया है, जिससे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव स्पष्ट हो सके। एमएनआईटी के अनुसार वस्तुत: 1973 से 2008 के बीच राज्य की वार्षिक बरसात 50 मिमी तक कम हुई थी। वर्ष 2014 के आईआईटी रुड़Þकी के शोधपत्र में 1971 से 2005 तक 33 शहरी केंद्रों पर वर्षा और तापमान को लेकर किए गए विश्लेषण में 29 में किसी तरह की महत्वपूर्ण प्रवृत्ति नहीं दिखी। यहां तक की राज्य में हुई भारी बरसात में भी कोई विशेष प्रवृत्ति नहीं दिखाई दी।
दी जर्नल आॅफ जिओफिजिकल रिसर्च में 2009 में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार 1871 से 2000 तक के दौरान किए गए शोध में भी बरसात के वार्षिक और मौसमी औसत में गिरावट की गौण प्रवृत्ति थी। बहरहाल, शोधपत्र में इस बात का उल्लेख था कि राजस्थान में जून और जुलाई में ही अधिक बरसात की प्रवृत्ति है। 1970 तक केवल जून में ही अधिक बरसात के संकेत थे। हाल के वर्षों का निचोड़ यह इशारा देता है कि बारिश की प्रकृति बदली है जो जून के बजाए जुलाई और अगस्त पर निर्भर हुई है। बहरहाल, राज्य में हालिया मानसूनी बारिश की बदलती प्रवृत्ति का कारण अभी तक अस्पष्ट है। यह बदलाव भी इतनी तेज गति से हुआ है कि इसे आंकड़ों के आधार पर सत्यापित नहीं किया जा सकता। इसे संभावित जलवायु परिवर्तन माना जा सकता है, जिससे पूर्वी और पश्चिमी राजस्थान में भारी बरसात और बाढ़ आने लगी है।
इंटरगवर्नमेंट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की रिपोर्ट में पश्चिमी भारत में वैश्विक घटकों और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का दावा हुआ है। यद्यपि इस दावे को पुष्ट करने वाले ठोस साक्ष्य अनुपलब्ध हैं। वस्तुत: राज्य में बारिश की गिरावट का अध्ययन मिलता है लेकिन यह कमी उल्लेखनीय नहीं है।
इंडियन ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी संस्थान का 2006 का शोधपत्र काफी अहम है जिसमें दावा किया गया था कि जब हम 21वीं सदी में और आगे बढ़ेंगे राज्य में मानसून बरसात और कम होगी। ताजा बदलाव ने राज्य सरकार समेत बड़े तबके का ध्यान इस ओर खींचा है। इस शोधपत्र का उपयोग राजस्थान राज्य जलवायु परिवर्तन की कार्ययोजना में हुआ था। आईपीसीसी 2014 की रिपोर्ट में भी राजस्थान में बारिश की प्रवृत्ति में परिवर्तन को लेकर कुछ विशेष नहीं कहा गया था। बहरहाल मौजूदा प्रवृत्ति में बड़े बदलाव को लेकर भी कोई महत्त्वपूर्ण सहमति नहीं दिखाई देती।
मैक्स प्लैक संस्थान के 2013 के शोध में संस्थान ने उच्च रिजॉल्यूशन वाले मल्टीमॉडल का उपयोग किया था ताकि हाल के सालों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को स्पष्ट और अवलोकन को परिभाषित किया जा सके। इस अध्ययन का अनुमान है कि 2020-2049 में 1970-1999 के औसत स्तर की तुलना में पश्चिम राजस्थान में 20-35 फीसदी और पूर्वी राजस्थान में 5-20 फीसदी बढ़ोतरी होगी। हालांकि ये अनुमान अभी भी अनिश्चित हैं और राजस्थान में आने वाले दशकों में किस तरह मानसून बदलेगा यह भी तय नहीं है। एक और बड़ी बात करने वाली यह रहेगी कि राज्य में बारिश के वक्त का जो अनुमान लगाया जाता है वह कितना सटीक है।
स्विस एजेंसी फॉर डेवेलपमेंट एंड कोआपरेशन की 2009 की रिपोर्ट के अनुसार सघन बारिश का घनत्व और आवृत्ति बढ़ेगी। वर्ष 2071-2100 के बीच राज्य में एक दिनी बारिश अधिकतम 20 मिमी और पांच दिनी बरसात 30 मिमी तक बढ़ने की आशंका है। यद्यपि यह अनुमान और वार्षिक रूप से मरुस्थल में बाढ़ आने से यह संकेत स्पष्ट है कि राज्य भारी बरसात के लिहाज से किस दिशा में बढ़ रहा है। लेकिन इस क्षेत्र में गंभीर और गहन शोध और अनुसंधान की फौरी जरूरत है।
गर्मी-ठंड के महीने आगे बढे
वैज्ञानिकों और जलवायु विशेषज्ञों का विश्वास है कि स्थानीय पर्यावरण में तेजी से बदलाव भी कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन के संकेतक का काम करते हैं। राज्य में अब तक मौसम के बदलाव पर हुए विश्लेषण में यह बात निकल कर आई है कि गर्मी और ठंड का मौसम एक से डेढ़ महीने आगे बढ़ गए हैं। जलवायु परिवर्तन के संबंध में राजस्थान विश्वविद्यालय में इंदिरा गांधी मानव पारिस्थितिक पर्यावरण एवं जनसंख्या अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रोफेसर टी.आई. खान बताते हैं, “राजस्थान में इसका एक बड़ा कारण अरावली की पहाड़ी से छेड़खानी है। अरावली की पहाड़ियां राजस्थान को दो भागों में बांटती हैं। अरावली दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व चलती है। अब दो भागों में राजस्थान के बंटने के बाद एक क्षेत्र में अति शुष्क और शुष्क भागों में बंट गया है। पश्चिम क्षेत्र अति शुष्क क्षेत्र है तो उत्तर शुष्क क्षेत्र है। जैसे-जैसे हम दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ रहे हैं तो स्थिति शुष्क से अति शुष्क की ओर जा रही है। शुष्कता सूचकांक और उच्च होते चला जा रहा है।
शुष्कता सूचकांक के उच्च होने का मतलब है तापमान का अधिकतम होना। रात को कम तापमान और दिन में उम्मीद से अधिक तापमान, इस तरह के घटते-बढ़ते तापमान जैविकी के लिए प्रतिकूल परिस्थितियां बना रहे हैं। अरावली की शृंखला गुजरात से शुरू होते हुए राजस्थान,पंजाब, हरियाणा और दिल्ली तक जाती है। अरावली में इस समय कुल 12 कटान (गैप) आ गए हैं। ये कटान कोई एक-दो किलोमीटर के नहीं बल्कि 10 से 12 किलोमीटर लंबे हैं। इस कटानों ने पारिस्थितिकी के लिए प्रतिकूल हालात बना दिए हैं। दूसरी ओर, राजस्थान राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व सचिव डी.एन. पांडे कहते हैं राजस्थान पर जलवायु परिवर्तन के असर पर अब तक देश में बहुत अधिक अध्ययन नहीं हुआ है। हालांकि, वे कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के साथ भूमि उपयोग में परिवर्तन (लैंड यूज चेंज) हो रहा है।
शहरीकरण बढ़ रहा है। मान लें कि किसी क्षेत्र में बारिश बढ़ रही है और शहरीकरण भी बढ़ रहा है। शहरीकरण के बढ़ने से जमीन अधिक उपयोग में लाई जाएगी। इसके लिए जमीन कहीं न कहीं से तो निकलेगी ही। या तो खेती से या जंगल से। अगर मानूसन बेहतर हुआ है तो हो सकता है उत्पादकता थोड़ी बढ़े। तो जितनी जमीन शहरीकरण के कारण बर्बाद हुई उसके बराबर लाभ मिल सकता है। अगर बारिश कम हुई तो उत्पादकता घट गई और फिर आपको और जमीन लेनी पड़ेगी, इस घाटे को पूरा करने के लिए। राजस्थान सहित पूरे देश में मानसून अनियमित होगा। आज तक का विज्ञान तो यही कह रहा है।
वहींं दूसरी ओर राजस्थान में जलवायु परिवर्तन पर जोधपुर स्थित शुष्क वन अनुसंधान संस्थान (आफिरी) के वैज्ञानिक जी. सिंह का मानना है कि राजस्थान में मानसून में बदलाव होते रहते हैं। कभी यह पश्चिम की ओर सरकता है तो कभी पूर्वी भाग की ओर। इस तरह से अलग-अलग कालों में मानसून कभी पश्चिम की ओर सरकता है तो कभी पूर्व की ओर सरकता है। अभी मानसून में बदलाव पश्चिम इलाकों में हो रहा है। इसलिए पश्चिमी राजस्थान में पिछले पांच से छह सालों में बरसात अधिक हो रही है। जैसलमेर, बाड़मेर और सांचोर में अभी बारिश और बढ़ने की आशंका है। हालांकि, इस तरह से मानसून में तब्दीलियां क्षणिक न होकर हजारों सालों में होती हैं।
लेकिन हम देख रहे हैं कि पिछलों सालों में मानवीय गतिविधियां बहुत अधिक हो गई हैं और राजस्थान के पश्चिमी इलाकों में सबसे अधिक सिंचाई योजनाएं चल रही हैं। इस कारण एरोसॉल और उमस बहुत बढ़ गई है। उमस बढ़ने के कारण ही बारिश अधिक हो रही है। रेगिस्तान में सामान्य जलवायु को अब बदलने की कोशिश की जा रही है यानी वहां की जो फसलें मरुस्थली जलवायु के अनुकूल होती थीं, उनके स्थान पर अब सिंचाई के माध्यम से दूसरी फसलों की खेती की जा रही है।
पाली जिले के कृषि विज्ञानी धीरज सिंह बताते हैं पिछले दस सालों से देखा गया है कि बाढ़ के समय बाड़मेर में पानी इतना अधिक हो जाता है कि उसे पंपिंग करके निकाला जाता है। इस इलाके में नीचे जिप्सम होने के कारण पानी जमीन के नीचे कम ही सोख पाता है। अगर हम इसे जलवायु परिवर्तन से जोड़ें तो यह सर्वविदित है कि जलवायु परिवर्तन का असर तेजी से हो रहा है।
इस परिवर्तन का नतीजा है कि गर्मी में औसत तापमान बढ़ा है और गर्मी की अवधि में भी इजाफा हुआ है। इसके अलावा बारिश में भी तेजी देखी गई है। एक साल की बारिश का एक तिहाई हिस्सा एक दिन में ही मिल जा रहा है। पाली में बारिश के दिन औसतन पंद्रह से बीस दिन होते हैं। लेकिन पिछले तीन सालों में यहां बारिश के दिनों की संख्या 25 से 30 दिन हो गए हैं। जब साल में बारिश के दिन अधिक हो जाते हैं तो शुष्क क्षेत्र में उगाई जाने वाली फसलें सूखे से तो बच जाती हैं लेकिन बारिश में नहीं बच पाती हैं। उनकी परिस्थितिकी ही ऐसी बन गई है कि बारिश को नहीं झेल सकती।
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए नोएडा स्थित स्काईमेट के उपाध्यक्ष और प्रमुख मौसम विज्ञानी महेश पालवट का कहना कि है कि पिछले सात-आठ सालों से मानसून का स्वरूप बदल रहा है। उत्तर बंगाल की खाड़ी में जब कम दबाव का क्षेत्र बनता था तो वह उत्तर-पश्चिम की ओर चलता था। इसका असर झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा तक होता था। इस कारण इन इलाकों में बारिश अधिक होती थी। अब इसमें पिछले सात-आठ सालों में एक बदलाव देखने को मिल रहा है। अब मध्य बंगाल की खाड़ी में जब कम दबाव का क्षेत्र बनता है तो वह पश्चिम की ओर चलता है।
यह जलवायु परिवर्तन का एक प्रभाव है। इसका प्रमुख कारण है हरित पट्टी का खत्म होना। उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान में हरियाली कम होती जा रही है। पारिस्थितिकी बिगड़ रही है और वातावरण पर इसका असर पड़ रहा है। जहां तक राजस्थान के पश्चिमी इलाके में बाढ़ का कारण है, अब बंगाल की खाड़ी के अलावा अरब सागर के मानसून चक्रों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। इस कारण बारिश अधिक होने लगी है। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन और मौसम के बदलते ट्रैक के कारण ही राजस्थान में पिछले दस सालों में अतिवृिष्ट हुई है।
जलवायु परिवर्तन से जंग की तैयारी
क्या राज्य सरकार ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कोई तैयार की है? आइए यह जानने के लिए अब पाली चलें। समय-दोपहर के ढाई बजे हैं। स्थान-नगर परिषद कार्यालय (बाढ़ संबंधी समस्या भी यहीं सुनी जाती है)। दिन-पांच अगस्त, 2017। कामकाजी दिन होने के बावजूद कार्यालय के अधिकारी व बाबू नजर नहीं आ रहे। पूरे कार्यालय परिसर में एक ही अधिकारी बैठे हैं। उनके पास अर्जी लेकर 55 वर्षीय यशवंत प्रार्थना कर रहे है कि उसके घर में पिछले पंद्रह दिन से बाढ़ का पानी भरा हुआ है। लेकिन अब तक कोई भी कर्मचारी नहीं आया है। अधिकारी यशवंत को एक फोन नंबर देकर बात करने के लिए कहते हैं। अधिकारी उसे बताते हैं कि जिनका नंबर दिया है, वही इस बात के लिए जिम्मेदार हैं।
यशवंत कह रहा कि मैं पिछले एक हफ्ते से यहां आ रहा हूं। हर अधिकारी एक नंबर दे देता है और वह नंबर कभी लगता नहीं। तो यह एक बानगी है राज्य सरकार की बाढ़ग्रस्त इलाकों में पीड़ितों को राहत पहुंचाने की। हालांकि राज्य के आपदा एवं राहत प्रबंधन विभाग के एक उच्च अधिकारी ने कहा कि पिछले तीन सालों से जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, पाली, सिरोही और जालोर में लगातार बाढ़ आ रही है और हमने इससे निपटने के लिए सभी जिलों में बाढ़ केंद्र खोला हुआ है। साथ ही इन्हीं केंद्रों से आगामी मौसम के बारे में चेतावनी की सूचना भी दी जाती है।
राजस्थान पर जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोई पुख्ता तैयारी नदारद दिखाई पड़ती है। सरकारी अधिकारी तो मानने को तैयार ही नहीं कि राज्य में जलवायु परिवर्तन का कोई असर भी है। हालांकि, राजनीतिक स्तर पर देखें तो राज्य विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल यह मानने से नहीं हिचकते कि राज्य में जलवायु परिवर्तन का असर पड़ रहा है। उनके साथ ही विधानसभा सचिव पृथ्वीराज ने स्वीकार किया कि पर्यावरण में हो रहे तेजी से परिवर्तन का असर राजस्थान पर है। राज्य में बारिश का समय और ठंड का समय एक से डेढ़ महीने आगे खिसक गए हैं।
राजस्थान विश्वविद्यालय में पर्यावरण विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर पंकज जैन बताते हैं कि अकेले राजस्थान में ही नहीं देश के अलग-अलग भागों में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अलग-अलग है। जलवायु परिवर्तन का आधार स्थानीय स्तर पर भी देखने को मिलता है। क्योंकि यह देखना होता है कि उस जगह विशेष पर कितनी बारिश होती है और वहां कितने पेड़-पौधे हैं या कितना पानी व जमीन कैसी है।
पाली जिले में बांडी नदी में प्रदूषण कम करने के लिए चलाए जा रहे आंदोलन के कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह राज्य के क्लाइमेट एक्शन प्लान के बारे में नाराजगी भरे स्वर में कहते हैं कि स्टेट क्लाइमेट एक्शन प्लान राज्य के इलाकों को ध्यान में रखकर नहीं बनाया गया है। भविष्य में स्थानीय लोगों की क्या जरूरत होगी, इसका भी खयाल नहीं रखा गया है। जल संचयन प्रणाली को उस स्थान की भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर तैयार नहीं किया गया है। वह कहते हैं कि अगर हम अपने जलवायु को तेजी से बदलते देखेंगे तो क्या सरकारी योजनाओं में भी तेजी से बदलाव की जरूरत नहीं है? अगर भविष्य बदलने के स्पष्ट संकेत दिख रहे हैं तो वर्तमान को बदलने की जरूरत है।
यहां पिछले दस सालों से बारिश हो रही है लेकिन अब तक सरकार की योजनाएं बस सूखे को लेकर ही बनाई गई हैं। अब उसे बदलने की जरूरत आन पड़ी है। राज्य में जलवायु परिवर्तन के असर को नकारने वाले डी.एन. पांडे भी यह मानते हैं कि राजस्थान पर जलवायु परिवर्तन असर को कम करने के लिए जो काम करने चाहिए, उसे राज्य सरकार को करना होगा। उदाहरण के लिए मुख्यमंत्री जल स्वावलंबन योजना। आज की तारीख में पूरे देश में जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने के लिए चलाई जानी वाली एकमात्र योजना है।
जहां तक राज्य में जलवायु परिवर्तन से होने वाले परिवर्तनों की सही जानकारी समय पर मुहैया नहीं हो पा रही है। इस संबंध में डॉक्टर टी.आई. खान बताते हैं कि इस समय जलवायु परिवर्तन के लिए हम केवल 62 पैरामीटर को ही अपनाते हैं। इसी के आधार पर हम पूरे जलवायु परिवर्तन की निगरानी करते हैं। हमारे अनुमान गलत इसलिए होते हैं क्योंकि हमारे पैरामीटर सीमित हैं। क्लाइमेटिक मॉडल चेंज में हमारे अध्ययन की सीमाएं हैं। इन सीमाओं में रहकर ही हम अध्ययन करते हैं। इसका नतीजा होता है कि कुछ प्राकृतिक आपदा आ गई तो इसका पता नहीं चलता है। क्योंकि इस संबंध में अध्ययन करने के लिए हमारे हाथों में सीमित विकल्प हैं।
जोधपुर स्थित आफिरी के शोधकर्ता एन. बाला बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण के बारे में तमिलनाडु के मुदुमलई वन क्षेत्र में इकोलॉजी मॉनिटरिंग की जा रही है। लेकिन अभी तक इसे राजस्थान में शुरू नहीं किया गया है। जहां तक आंखों देखी बातें हैं तो यह कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है। लेकिन इसके प्रभावों के दस्तावेजीकरण के लिए अभी बहुत अधिक शोध की जरूरत है। इस संबंध में प्रोजेक्ट तैयार कर लिया है और वह मंजूर होने के लिए सरकार के पास भेजा गया है।
पश्चिमी राजस्थान में बारिश के पानी को बचाने की एक समृद्ध परंपरा रही है। इस संबंध में केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी) जोधपुर के विज्ञानी सुरेंद्र पुनिया कहते हैं कि थार प्रदेश में 21वीं सदी के अंत तक वार्षिक बारिश का औसत बढ़ेगा। बीकानेर में औसतन +100 मिमी बरसात, जैसलमेर में +124 मिमी बरसात और पाली में +21 मिमी बरसात बढ़ेगी। जबकि जोधपुर में -40 मिमी बरसात घटेगी। वह कहते हैं कि इन थार क्षेत्रों में नई व्यूह रचना, युक्तियों का विकास और परंपरागत तकनीकों व व्यवहारों को अपनाने से वर्षा जल संरक्षण में मदद मिल सकती है। वहीं काजरी के ही मृदा व जल संरक्षण अभियांत्रिकी विभाग के प्रधान वैज्ञानिक राकेश कुमार गोयल का कहना है कि हाल के समय में भारत के शुष्क क्षेत्रों में अधिक पैमाने में बरसात दर्ज हुई है।
यह तय करना होगा कि बरसात की प्रवृत्ति में जो परिवर्तन आया है, क्या वह जलवायु परिवर्तन की वजह से है या जलवायु में सामान्य विचलन का परिणाम है। बारिश की प्रवृत्ति में जो बदलाव दिखा है, वह उच्च घनत्व के तौर पर दिखा है। इसका आशय यह है कि विद्यमान परंपरागत संरचना व स्रोतों को वर्षा जल के संग्रहण के लिए कम जलग्रहण क्षेत्र की आवश्यकता होगी। बहरहाल, परंपरागत वर्षा जल संचयन संरचना को बदलने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इनमें जलभराव निरंतर रूप से होता रहेगा और इन्हें कम कैचमेंट एरिया की जरूरत होगी। इस वजह से जल संचयन की प्राचीन प्रणाली और संरचना में बदलाव की जरूरत नहीं है। बारिश की मात्रा में वृद्धि को देखते हुए मौजूदा जलभराव की क्षमता को बढ़ाने पर विचार किया जा सकता है।
पूर्ववर्ती सरकारों के शासनकाल में प्रवर्तित कुंडी कार्यक्रम को हूबहू जारी रखा जाएगा। गोयल का कहना है कि अतिरिक्त बरसात की वजह से ये जलस्रोत निरंतर भरे रहेंगे। एक बार संरचना का निर्माण हो जाता है तो बारिश की विविधता के अनुरूप इसकी बनावट को बदलने की संभावना बहुत कम हो जाती है। इस वजह से निर्माण कार्य दीर्घकालीन बारिश की प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर होना चाहिए।
जयपुर स्थित सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट स्टडीज के निदेशक एम.एस. राठौर कहते हैं कि कैचमेंट एरिया में जल संरक्षण स्रोत का आकार भले ही अलग है लेकिन इनका डिजाइन एक जैसा होता है। गोयल के अनुसार जैसलमेर और बाड़मेर में कुंडी लगभग प्रतिबंधित हैं और जो हैं उनका आकार 1 डायामीटर तक का है जबकि इनकी गहराई क्षेत्रानुसार 5-6 मीटर तक ही है। द स्कूल आॅफ डेजर्ट साइंस के निदेशक एस.एम. मोहनोत बताते हैं कि जैसलमेर और बाड़मेर में विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत ऐसी कई कुंडियों का निर्माण हुआ है। ये सभी आकार में छोटी और बहुत पुरानी हैं। जनता अधिक मात्रा में बारिश जल संग्रहण के लिए टांके का उपयोग करती है, जिनमें अधिक मात्रा में बारिश का पानी एकत्र किया जा सकता है।
राजस्थान के किसानों के लिए जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी वैश्विक चुनौती ही नहीं एक वास्तविकता है। राज्य के पश्चिमी भाग में पिछले दो दशकों से दुर्लभ संसाधनों पर लगातार दबाव बढ़ रहा है और अगर उचित उपाय नहीं किए गए तो गांव की आबादी शहरों की ओर पलायन करने पर मजबूर होगी। और इसका नतीजा होगा शहरों में नई झुग्गियों की संख्या में वृद्धि। यह बात पाली सहित कई और बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों में के लिए संघर्षरत पोपट भाई पटेल ने कही। वह कहते हैं कि वातावरण निर्धारकों में कोई भी बदलाव न केवल खाद्य सुरक्षा और पोषण को प्रभावित कर सकता है बल्कि जनसंख्या की भलाई को भी प्रभावित करता है। पाली जिले के नारायण सिंह राठौर को इस बात की चिंता है कि राज्य सरकार जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए कारगर उपाय तो कर नहीं रही है, ऐसे में जलवायु परिवर्तन से बढ़ते तापमान के कारण राज्य में पशुपालन क्षेत्र के लिए भारी चुनौतियां हैं।
वे बताते हैं कि राजस्थान देश में दूध का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है (लगभग 17 लाख किलोग्राम प्रति दिन)। लेकिन राजस्थान में गर्मी के कारण दुग्ध उत्पादन में वर्तमान वार्षिक नुकसान क्रमश: संकर नस्ल गायों, देसी गायों और भैसों में क्रमश: 98.65, 40.55 और 29.74 लीटर प्रति पशु प्रति वर्ष हो रहा है। जालोर जिले के पत्रकार हरिपाल सिंह कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन से फसल और पशु उत्पादन में कमी आ रही है। विशेष रूप से भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देशों में तो भूख, कुपोषण और गरीबी के खतरे और बढ़ेंगे। क्योंकि सभी क्षेत्रों में आजीविका के लिए भोजन और अवसरों की उपलब्धता प्रभावित होगी।
वह कहते हैं कि राजस्थान में गेहूं व सरसों की उपज में कमी हुई है। यह क्रमश: मौसमी प्रति 2.49,0.92 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से कम हुई। सिंह कहते हैं कि राजस्थान में पशुधन की आबादी लगभग 4 करोड 90 लाख है और यह देश के शीर्ष तीन राज्यों में शामिल है। राज्य के जीडीपी में पशुपालन का योगदान 9.16 फीसदी है। यही नहीं यह देश में कुल मीथेन उत्सर्जन में लगभग 9.1 फीसदी योगदान करने वाला सबसे बड़ा मीथेन उत्सर्जक राज्य है।