जलवायु

चुनावी साल करेगा कमाल

Richard Mahapatra

विश्व के करीब 74 देश इस साल अपनी सरकार बनाने के लिए मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। 300 करोड़ मतदाता अपने वोट डालेंगे। इस कारण 2018 का महत्व काफी बढ़ गया है। इस साल न केवल लोकतंत्र का उत्सव होगा बल्कि लोकतंत्र के हर्षो-उल्लास का प्रदर्शन भी होगा। ये चुनाव उस वक्त में हो रहे हैं जब दुनिया कई ऐतिहासिक परिवर्तनों के दौर से गुजर रही है। इसलिए इस साल को आम सालों से अलग समझने और परखने की जरूरत है।

जो देश इस साल अपनी नई सरकार के लिए मतदान करेंगे उनमें सभी महाद्वीपों के देश शामिल हैं। ये सभी महाद्वीप इतिहास के अनोखे क्षण के गवाह बन रहे हैं। ये सभी एक साथ मिलकर वैश्विक विकास की राजनीति पुन: परिभाषित करेंगे। अफ्रीका एक बेहद पुराने सवाल से जूझ रहा है कि क्या लोकतंत्र उसे विकास के निराशाजनक सूचकों से उबार पाएगा। अफ्रीका ऐसा महाद्वीप है जहां सभी क्षेत्रों में अप्रयुक्त क्षमता उच्च है।

उत्तर और दक्षिण अमेरिका के सामने विनाश के बाद पुनर्स्थापन की चुनौती है, साथ ही परिवर्तित अमेरिकी नीतियों की अवांछित चुनौती भी। इन देशों के सामने आर्थिक सुस्ती से निपटने की भी चुनौतियां हैं। इन्हें विकास की दुविधा से भी जूझना है कि आर्थिक विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों से किस हद तक समझौता किया जाए। एशिया वैश्विक अर्थव्यवस्था की बहस के केंद्र में है। इस महाद्वीप में तेल का उत्पादन वैश्विक ऊर्जा बाजार की दिशा तय करेगा। देखने वाली बात यह भी होगी कि अरब देशों में वैश्विक शासन की चुनौती के रूप में लोकतंत्र की जड़ें कितनी मजबूत होंगी।

लोकतंत्र में चुनी हुई सरकारों पर भरोसा कम होता जा रहा है। आप भले ही लोकतंत्र का जश्न मना लें लेकिन अगर चुनी हुई सरकार लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पा रही है तो इसे बड़ी चुनौती के रूप में देखा जाना चाहिए। युवाओं में बेरोजगारी चरम पर है। तमाम देशों में चल रहे प्रदर्शनों की अगुवाई युवा ही कर रहे हैं। भूमंडलीकरण की भावनाओं को भी इसमें शामिल किया जा सकता है, भले ही वह अमेरिका हो या यूरोपीय यूनियन।

हर जगह “मेरा देश पहले” नीति है जो राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय कर रही है। जो देश मतदान में शामिल होंगे वे सभी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हैं। इसके लिए जिम्मेदार और पीड़ित दो धड़ों में बंटे हुए हैं। धरती की सबसे बड़ी विकास की चुनौती को हल करने के लिए समानता की लड़ाई भी है। इसलिए तमाम देश चुनावी लोकतंत्र के प्रारूप को स्वीकार करने के लिए एकजुट हो सकते हैं लेकिन ये इस वक्त वे वैश्विक विकास के एजेंडे पर सबसे ज्यादा बंटे हुए भी हैं।

ऐसा कोई निश्चित तरीका नहीं है जिससे इतने सारे चुनावों और वैश्विक विकास के एजेंडे पर उसके प्रभावों का अनुमान लगाया जा सके। लेकिन ऐसे माहौल में जब वैश्विक और स्थानीय मुद्दों के अंतरसंबंध हों, एक चीज निश्चित है कि 2018 के चुनाव वैश्विक शासन तंत्र में अहम भूमिका निभाएंगे। उदाहरण के लिए अगर अमेरिकी हाउस में रिपब्लिकन जीते तो डोनल्ड ट्रंप की “अमेरिका प्रथम” नीति को बल मिलेगा। इससे भूमंडलीकरण विरोधी भावनाओं को हवा मिलेगी। इसका उन देशों पर असर पड़ेगा जिनके ताकतवर देशों से मजबूत संबंध हैं। यह जलवायु परिवर्तन की वैश्विक संघर्ष को भी कमजोर करेगा।

ग्रीनहाउस गैसों में सबसे ज्यादा योगदान देने वाला संधि में नहीं बंधेगा तो ज्यादातर देश इससे प्रभावित होंगे।

भारत के लिए भी 2018 चुनावी और विकास के एजेंडे के लिए अहम रहेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चल रही राष्ट्रीय लोकतांत्रित गठबंधन सरकार के लिए यह भी आखिरी साल होगा क्योंकि 2019 में उसे चुनाव का सामना करना पड़ेगा। देश के कई ग्रामीण राज्य अशांत हैं। ऐसे में उनके लिए ग्रामीण मतदाताओं का भरोसा जीतना मुश्किल काम होगा। 2018 में अहम राज्य मध्य प्रदेश, कर्नाटका और राजस्थान अपनी सरकार चुनेंगे। इन राज्यों में व्यापक स्तर पर ग्रामीण नाराज और गुस्से में हैं। उनका प्रदर्शन चल रहा है। इसलिए यह साल भारत के लिए भी अहम होने वाला है।