जलवायु

क्या अगले एक दशक में 'बर्फ मुक्त' हो जाएगा आर्कटिक, जल्द होने वाला है बड़ा बदलाव

वैज्ञानिकों का दावा है कि अगले एक दशक से भी कम वक्त में आर्कटिक क्षेत्र पहली बार 'बर्फ मुक्त' हो सकता है, इसका मतलब है कि हम आर्कटिक में नई जलवायु के गवाह बनने वाले हैं

Lalit Maurya

वैज्ञानिकों का दावा है कि अगले एक दशक से भी कम वक्त में आर्कटिक क्षेत्र पहली बार 'बर्फ मुक्त' हो सकता है। उनके मुताबिक यह बदलाव पिछले अनुमान से करीब एक दशक पहले ही देखने को मिल सकता है। बता दें कि पिछले अध्ययन के मुताबिक 2050 तक आर्कटिक में दिखने वाली बर्फ, गर्मियों के मौसम में पूरी तरह गायब हो जाएगी।

इसका मतलब है कि हम आर्कटिक में नई जलवायु के गवाह बनने वाले हैं। बता दें कि वर्तमान पीढ़ी पहली बार धरती के बर्फ से ढंके हिस्से में इतने बड़े पैमाने पर हो रहे बदलावों को देख रही है, जो बेहद चिंताजनक है।

बता दें कि उत्तरी ध्रुव पर मौजूद आर्कटिक बर्फ का एक विशाल समुद्र है, जो जमीन से घिरा है। आमतौर पर आर्कटिक में जमा समुद्री बर्फ गर्मियों के दौरान स्वाभाविक रूप से कम हो जाती है, लेकिन सर्दियों में यहां फ‍िर से बर्फ की मोटी चादर जम जाती है। हालांकि ऐसा कभी नहीं होता कि आर्कटिक में जमा यह बर्फ पूरी तरह खत्म हो जाए।

यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो बोल्डर और नेशनल सेंटर फॉर एटमोस्फियरिक रिसर्च से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किए इस नए अध्ययन के मुताबिक अगले कुछ वर्षों में आर्कटिक में गर्मियों के दौरान (अगस्त से सितम्बर के बीच) समुद्री बर्फ के बिना दिन देखने के मिल सकते हैं। वैज्ञानिकों की गणना के मुताबिक उत्सर्जन के करीब-करीब हर परिदृश्य में ऐसा ही नजारा देखने को मिलेगा।

इस अध्ययन के नतीजे पांच मार्च 2024 को जर्नल नेचर रिव्यूज अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित हुए हैं। अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने इस बात की भी पुष्टि की है कि सदी के मध्य तक 2035 से 2067 के बीच सितंबर में लगातार ऐसी परिस्थितियां बन सकती हैं जब आर्कटिक बर्फ मुक्त हो सकता है।

हालांकि वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि यह बढ़ते उत्सर्जन की मात्रा पर निर्भर करेगा आर्कटिक कितनी बार और कितने समय के लिए बर्फ मुक्त होता है। रिसर्च के मुताबिक सदी  के मध्य तक आर्कटिक में सितंबर के दौरान पूरे महीने समुद्र में तैरती बर्फ नदारद हो सकती है। बता दें कि सितम्बर में समुद्री बर्फ अपने सबसे निचले स्तर पर होती है। वहीं सदी के अंत तक यह बर्फ मुक्त अवधि सालाना कई महीनों तक बढ़ सकती है।

हम पर निर्भर है आर्कटिक का भविष्य

मतलब की साल में कई महीने ऐसे हो सकते हैं जब आर्कटिक में समुद्री बर्फ के दीदार न हों। हालांकि यह भविष्य में होने वाले उत्सर्जन पर निर्भर करेगा। उदाहरण के लिए उच्च उत्सर्जन परिदृश्य में सर्दियों के महीनों में भी आर्कटिक बर्फ मुक्त हो सकता है।

उदाहरण के लिए, यदि तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है तो कई दशकों तक बर्फ-मुक्त स्थिति के दोबारा बनने की आशंका नहीं होगी। वहीं यदि तापमान में होती वृद्धि दो या तीन डिग्री सेल्सियस के पार जाती है तो आर्कटिक में सितम्बर के दौरान बर्फ मुक्त स्थिति क्रमशः हर दो से तीन साल में या करीब हर साल बन सकती है।

वहीं यदि तापमान डेढ़ डिग्री सेल्सियस से नीचे रहता है या केवल अस्थाई रूप से इससे आगे जाता है तो इसके बावजूद इस बात की 10 फीसदी से भी कम सम्भावना है कि आर्कटिक बर्फ मुक्त नहीं होगा।

इंसानों द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैस के के कारण हो रही ग्लोबल वार्मिंग का असर पहले ही आकर्टिक में दिखने लगा था, लेकिन हाल के वर्षों में यहां की जलवायु में तेजी से परिवर्तन देखने को मिला है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक यहां बर्फ-मुक्त आर्कटिक का यह कतई भी मतलब नहीं है कि आर्कटिक में बर्फ बिलकुल खत्म हो जाएगी। उनके अनुसार इसे बर्फ-मुक्त तब माना जाता है जब समुद्र में बर्फ की मात्रा दस लाख वर्ग किलोमीटर से कम होती है।

देखा जाए तो बर्फ की यह मात्रा 1980 के दशक में क्षेत्र में मौजूद न्यूनतम बर्फ के आवरण से भी 20 फीसदी कम है। वहीं हाल के वर्षों में देखें तो सितम्बर के दौरान आर्कटिक महासागर में जमा बर्फ की न्यूनतम मात्रा करीब 33 लाख वर्ग किलोमीटर थी।

इस अध्ययन का नेतृत्व वायुमंडलीय और समुद्री विज्ञान की एसोसिएट प्रोफेसर एलेक्जेंड्रा जाह्न ने किया है। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने न केवल आर्कटिक में समुद्री बर्फ के बारे में प्रकाशित पिछले अध्ययनों की जांच की है साथ ही कम्प्यूटेशनल क्लाइमेट मॉडल के आंकड़ों का भी अध्ययन किया है ताकि यह समझा जा सके कि समय के साथ कैसे आर्कटिक में बदलाव आ रहे हैं।

इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए एलेक्जेंड्रा का कहना है कि ग्रीनहाउस गैसों का बढ़ता उत्सर्जन समुद्री बर्फ में गिरावट का एक प्रमुख कारण है। कम बर्फ और बर्फ के आवरण में गिरावट का मतलब है कि सूर्य की अधिक रोशनी समुद्र द्वारा अवशोषित की जाती है, इससे आर्कटिक के पिघलने की दर और गर्मी में वृद्धि होती है।

वहां रहने वाले जीवों पर पहले ही दिखने लगा है असर

शोधकर्ताओं के मुताबिक समुद्री बर्फ में गिरावट से आर्कटिक के उन जानवरों पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है, जो जीवित रहने के लिए समुद्री बर्फ पर निर्भर हैं। इन जीवों में सील और ध्रुवीय भालू शामिल हैं।

इसके साथ ही जैसे-जैसे समुद्र गर्म हो रहा है, शोधकर्ताओं को चिंता है कि मछलियों की विदेशी प्रजातियां आर्कटिक महासागर में प्रवेश कर सकती हैं। हालांकि स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र पर इन आक्रामक प्रजातियों का क्या प्रभाव होगा यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है।

इतना ही नहीं इस समुद्री बर्फ के नष्ट होने से तटीय क्षेत्र में रहने वाले समुदायों पर भी खतरा मंडराने लगेगा। एलेक्जेंड्रा के मुताबिक समुद्री बर्फ तटीय क्षेत्रों में समुद्री लहरों के प्रभाव को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन जैसे-जैसे समुद्री बर्फ पीछे हटेगी, समुद्र की लहरें बड़ी होंगी, नतीजन तटीय कटाव होगा।

शोधकर्ताओं के मुताबिक जिस दर से मौजूदा समय में उत्सर्जन हो रहा है उसके चलते आर्कटिक केवल गर्मियों के अंत और अगस्त से अक्टूबर की शुरुआत में बर्फ मुक्त हो सकता है। लेकिन उत्सर्जन के उच्चतम परिदृश्य में सदी के अंत तक आर्कटिक साल के नौ महीने तक बर्फ मुक्त हो सकता है। ऐसे में शोधकर्ताओं का मानना है कि यह बदलाव आर्कटिक के वातावरण को पूरी तरह से बदल देगा।

नतीजन गर्मियों में सफेद चादर से ढंका रहने वाला आर्कटिक नीले रंग में बदला जाएगा। हालांकि आर्कटिक में बर्फ मुक्त स्थिति का होना करीब-करीब तय है, लेकिन उत्सर्जन को कम करके इन परिस्थितियों को लम्बे समय तक बने रहने से रोका जा सकता है। एलेक्जेंड्रा के मुताबिक अच्छी खबर यह है कि वातावरण के दोबारा ठंडा होने से आर्कटिक में परिस्थितियां बड़ी तेजी से बदल सकती है।

ग्रीनलैंड में जमा बर्फ की चादर के विपरीत, जिसे बनने में हजारों साल लग गए, अगर हम भविष्य में बढ़ते तापमान को रोकने में सफल होते हैं तो वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने का प्रयास करते हैं तो आर्कटिक में खोई समुद्री बर्फ एक दशक में दोबारा लौट सकती है।