वैश्विक स्तर पर जिस तरह से तापमान में वृद्धि हो रही है, उसके चलते खुले में काम करने वाले मेहनतकशों की समस्याएं और बढ़ जाएंगी, जिसका सीधा असर उनकी श्रम उत्पादकता पर भी पड़ेगा। हाल ही में ड्यूक विश्वविद्यालय के निकोलस स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट द्वारा किए शोध से पता चला है कि गर्मी और उमस के चलते हर साल भारत में 10,100 करोड़ घंटों के बराबर श्रम उत्पादकता का नुकसान हो रहा है, जोकि विश्व में सबसे ज्यादा है।
हालांकि यदि वर्तमान तापमान और प्रति व्यक्ति के हिसाब से देखें तो यह 162 घंटे प्रति वर्ष के बराबर बैठती है। वहीं इसका वैश्विक औसत 81 घंटे प्रति व्यक्ति/ प्रति वर्ष है, जबकि घाना (216) , सेनेगल (219), बांग्लादेश (254), गाम्बिया (238), थाईलैंड (219), कंबोडिया (271), बहरीन (338), कतर (354) और यूएइ (288) जैसे देशों में प्रति व्यक्ति 200 घंटा प्रति वर्ष से भी ज्यादा है।
गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर तापमान में पूर्व औद्योगिक काल की तुलना में लगभग 1.28 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। वहीं यदि उसमें एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और हो जाए तो भारत में श्रम उत्पादकता को होने वाला कुल नुकसान बढ़कर 15,600 करोड़ घंटों के बराबर हो जाएगा।
वहीं कहीं यदि इस तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और हो जाती है तो यह नुकसान बढ़कर 23,000 करोड़ घंटे प्रति वर्ष हो जाएगा। जबकि तापमान में यदि आज की तुलना में 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और हो जाती है तो श्रम उत्पादकता का यह कुल नुकसान बढ़कर 43,700 करोड़ घंटे प्रति वर्ष के बराबर हो जाएगा।
वैश्विक अर्थव्यवस्था को उठाना पड़ सकता है 121.9 लाख करोड़ रुपए का नुकसान
वहीं यदि वैश्विक आंकड़ों को देखें तो वर्तमान स्थिति में श्रम उत्पादकता को होने वाला नुकसान करीब 22,800 करोड़ घंटे प्रतिवर्ष है। वहीं यदि तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और हो जाती है तो उससे यह नुकसान बढ़कर 36,200 करोड़ घंटे प्रति वर्ष हो जाएगा। जबकि अतिरिक्त 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि में 54,700 करोड़ घंटे और अतिरिक्त 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि में 109,100 करोड़ घंटे प्रति वर्ष तक पहुंच जाएगा।
शोध के अनुसार कड़ी दोपहरी में गर्मी और उमस के बीच काम करने से मजदूरों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान हो सकता है, जिसका सीधा असर उनकी श्रम उत्पादकता पर पड़ रहा है। इतना ही नहीं जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि होती जाएगी यह प्रभाव समय के साथ और बढ़ता जाएगा।
देखा जाए तो कोई मजदूर दिन भर में जितना काम करता है वो सीधे तौर पर उसकी दैनिक मजदूरी से जुड़ा होता है। ऐसे में यदि बढ़ते तापमान के बीच उसे या तो कठोर परिस्थितियों में काम करना होगा या फिर उसे इसका खामियाजा अपनी देहाड़ी के रूप में चुकाना होगा।
वैश्विक स्तर पर यदि इससे होने वाले आर्थिक नुकसान की बात करें तो यदि तापमान में वर्तमान के मुकाबले और 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को हर साल करीब 121.9 लाख करोड़ रुपए के बराबर नुकसान होगा। इसका पहले ही आर्थिक रूप से कमजोर देशों पर सबसे ज्यादा असर पड़ेगा।
क्या है समाधान
शोध के अनुसार ऐसे में एक उपाय तो यह हो सकता है कि श्रमिकों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए कड़ी दोपहर में काम करने की जगह उन्हें उस वक्त आराम दिया जाए और उस वक्त की भरपाई सुबह या शाम को जब तापमान उतना ज्यादा नहीं होता तब काम लेकर की जा सकती है।
हालांकि शोध में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि उनके काम के वक्त में किए बदलावों को इस तरह से किया जाना चाहिए जिससे उनकी व्यक्तिगत जरूरतें और दिनचर्या भी प्रभावित न हो। वर्ना उसका खामियाजा अन्य रूपों में भरना पड़ सकता है। उदाहरण के लिए यदि किसी मजदूर को काम करने के लिए बहुत सुबह बुला लिया जाए, जिससे उसकी नींद पूरी न हो तो उसके चलते काम करते वक्त दुर्घटना होने की सम्भावना भी बढ़ सकती है।
शोध के मुताबिक यदि वर्तमान में वैश्विक स्तर पर मजदूरों के काम के तीन घंटों में बदलाव किया जाता है उससे इस नुकसान के करीब 30 फीसदी की भरपाई की जा सकती है। हालांकि यदि काम के घंटों में बदलाव किया जाता है तो उसकी क्षमता 2 फीसदी प्रति डिग्री की दर से घट जाती है। ऐसे में यदि तापमान में और 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो उस स्थिति में वर्किंग ऑवर में बदलाव करने के बाद भी केवल नुकसान के 22 फीसदी की ही भरपाई हो पाएगी।
हालांकि यदि ऐसा नहीं होता तो मजूदर कड़ी दोपहर में भी काम करने को मजबूर होंगे, जिसका सीधा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ेगा। इसके चलते काम के दौरान दुर्घटना, उनके स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान या फिर यहां तक की उनकी मृत्यु तक हो सकती है। गौरतलब है कि भारत, श्रीलंका, मिस्र और मध्य अमेरिकी देशों में गर्मी की मार के चलते युवा और स्वस्थ मजदूरों में किडनी सम्बंधित रोग भी देखे गए थे।
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों में जहां बड़ी संख्या में मजदूर काम के सिलसिले में गल्फ देशों में जाते हैं वहां यह बढ़ता तापमान न केवल उनके देश में बल्कि समुद्र पार भी उनके लिए बड़ी समस्या बन जाएगा।
यह शोध अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित हुआ है।