वर्तमान में बढ़ते तापमान से हिंदू कुश हिमालय के इलाके से ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं। इसके अलावा प्रोग्लेशियल और सुपरग्लेशियल झीलों की संख्या बढ़ रही है। इन बढ़ते ग्लेशियरों की झीलों से बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है, हालांकि यह आकार और धारा के ढाल पर निर्भर करता है। यहां बताते चलें कि प्रोग्लेशियल झीलें ग्लेशियर के पिघलने, ग्लेशियर के पीछे हटने से बनी होती हैं वहीं सुपरग्लेशियल झील एक ग्लेशियर के ऊपर पानी से बना तालाब है।
आज से एक साल से थोड़ा समय पहले उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में बड़े पैमाने पर बर्फ की चट्टान के टूटने से हिमस्खलन और बाढ़ आ गई थी। जिसमें 200 से अधिक लोगों ने अपनी जान गवां दी थी और इसके कारण बड़ा आर्थिक नुकसान भी हुआ था। अब वैज्ञानिकों ने इस आपदा के पीछे के कारणों का पता लगाया है।
वैज्ञानिकों ने अध्ययन में पाया कि आपदा आने से पहले यह इलाका भूकंप आने के लिए अति सक्रिय था। उन्हें बर्फ की चट्टान को अलग करने के पूर्ववर्ती संकेतों के बारे में भी पता चला, जो अपने आप आपस में जुड़कर एक नई संरचना बनाते हैं, यह चरण गतिशील न्यूक्लिएशन कहलाता है।
वैज्ञानिकों ने कहा कि हिमालय के ग्लेशियरों के पीछे हटने और अस्थिर ढलानों के साथ गिरने और पिघलने से क्षेत्र में मॉनसून के दौरान बारिश या भूकंप के कारण भूस्खलन हो सकता है। इसके अलावा बर्फ और चट्टान के हिमस्खलन से दुनिया भर के पहाड़ी इलाकों में लोगों और बुनियादी ढांचे को खतरा हो सकता है। यही कारण है कि क्षेत्र में भूकंप के साथ-साथ ग्लेशियर की स्थिति की निरंतर निगरानी की जाने की आवश्यकता है।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (डब्ल्यूआईएचजी) ने इस तरह की आपदा के पीछे जिम्मेदार प्रक्रिया को समझने में लगा है और हिमालय के ग्लेशियरों के आसपास भूकंपीय स्टेशनों के नेटवर्क के साथ महत्वपूर्ण और अनचाही गतिविधियों का पता लगाने का काम कर रहा है। इस प्रक्रिया के तहत उन्होंने 7 फरवरी 2021 को हुई आपदा के पीछे के कारणों का पता लगाने की भी कोशिश की है।
इस प्रक्रिया के तहत 9 वैज्ञानिकों की टीम ने हिमस्खलन वाले इलाके की उपग्रह छवियों का विश्लेषण किया है। विश्लेषण में पाया कि यह पिछले 5 वर्षों से खड़ी ढलान को नियंत्रित करने वाले कमजोर पच्चड़ के शिखर के पास दरारों में वृद्धि पाई गई थी। ये दरारें और अधिक खुलने लगीं और पच्चड़ की कमजोरी से शीर्ष पर एक कमजोर क्षेत्र में लगातार वृद्धि हुई है। बड़ी संख्या में बर्फ की चट्टानें (आइस-रॉक) हिमस्खलन की शुरुआत भूकंप के कारण मानी गई है, जो बर्फ की चट्टानों के अलग होने से 2.30 घंटे पहले तक लगातार सक्रिय थे।
तेजी से होने वाला प्रवाह और संबंधित प्रभावों की गति का मूल्यांकन करने के लिए वैज्ञानिकों ने क्षेत्र में साक्ष्य के साथ भूकंपीय संकेतों का विश्लेषण और सत्यापन किया। इस तरह के उच्च-गुणवत्ता वाले भूकंपीय आंकड़ों ने पहले के समय से संबंधी नतीजे को फिर से संगठित करने और मलबे के प्रवाह की प्रगति के लिए शुरुआत के बाद से प्रभावों का मूल्यांकन करने को स्वीकार किया। यह अध्ययन साइंटिफिक रिपोर्ट्स जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
अध्ययनकर्ताओं ने उपरोक्त अलग-अलग आकृतियों के आधार पर बताया कि, विभिन्न स्टेशनों में तरंग के बीच सहसंबंध, जो न्यूक्लिएशन चरण या बर्फ की चटानों का कमजोर पड़ जाना या उनके अलग होने को दर्शाता है। यह हिमस्खलन होने से एक दिन पहले शुरू हुआ था और पूरी तरह से आपस में जुड़ा हुआ था। उन्होंने बताया कि इस तरह के सभी प्रभावों को पहले (तपोवन) टीपीएन वेधशाला में दर्ज किया गया, यह स्थान उद्गम के पास है। वे तरंग के बीच सहसंबंध (ए-डी) नीले बिंदीदार आयत के लिए दर्शाए गए हैं। (सी) नीला अण्डाकार वृत्त दो निकटवर्ती वेधशालाओं में दर्ज कमजोर या छोटे बर्फ की चट्टानों के अलग होने को दर्शाता है। (डी) प्रमुख अलग होने (टी1) से ठीक 1 मिनट पहले महत्वपूर्ण अलग होने या कमजोर क्षेत्र के बढ़ने (टी0) भूकंपीय तरंगों के आपस में पूर्ण संबंध के साथ पास के तीन भूकंपीय स्टेशनों में देखा जा सकता है।
आकस्मिक बाढ़ के आने से लोगों की जान जाने के अलावा आधुनिक संरचनाओं यानी दो जल विद्युत परियोजनाओं, पुलों और सड़कों को बर्बाद करने के लिए काफी था। बाढ़ की अत्यधिक तेज गति ने रैनी गांव को उजाड़ दिया था। खासकर मॉनसून के समय में यह क्षेत्र भूस्खलन से ग्रस्त हो जाता है।
भूकंपीय निगरानी प्रणाली मलबे के प्रवाह, भूस्खलन, हिमस्खलन आदि जैसे बड़े पैमाने पर गतिविधियों का पता लगाने के लिए उपयुक्त हैं। भूकंपीय नेटवर्क द्वारा ऐसी गतिविधियों को देखने की क्षमता क्षेत्र के लिए एक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली विकसित करने में मदद कर सकती है।
इस तरह की पूर्व चेतावनी प्रणाली लोगों को ऐसी किसी भी आने वाली आपदा से बचाव के प्रति सचेत कर सकती है। अध्ययनकर्ताओं ने कहा ईडब्ल्यूएस को सीस्मोमीटर या भूकंप सूचक यंत्र से भूकंपीय आंकड़े, स्वचालित जल स्तर रिकॉर्डर से हाइड्रोलॉजिकल आंकड़े और हिमालय के ग्लेशियर बेसिन के आसपास नेटवर्क के रूप में स्थापित स्वचालित मौसम स्टेशनों से मौसम संबंधी आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए।