जलवायु

मच्छरदानी बांधकर तेंदूपत्ता एकत्रित करने पर क्यों मजबूर हैं मजदूर

मौसम में आए तेज बदलाव के कारण झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के सौ गांवों में स्मॉल ब्लैक फ्लाई का आतंक फैला है

Anil Ashwani Sharma

ग्लोबल वार्मिंग का एक और प्रभाव झारखंड में देखने को मिल रहा है। मार्च-अप्रैल में पड़ी भीषण गर्मी की वजह से झारखंड के घाटशिला (पूर्वी सिंहभूम जिला) के लोग एक ऐसी मक्खियों का सामना करने को मजबूर हैं कि उससे बचने के लिए उन्होंने पूरी रात ही नहीं बल्कि दिन भर मच्छरदानी का सहारा लेना पड़ रहा है।

झारखंड के इस इलाके के अलावा यहां से सटे पश्चिम बंगाल और ओडिशा के जंगलों में तेंदूपत्ता (झारखंड-ओडिशा में केंदू पत्ता कहा जाता है) संग्रहण में हजारों मजदूर लगते हैं। लेकिन इस बार इनके काम में सबसे बड़ी बाधा छोटी काली मक्खियां यानी स्मॉल ब्लैक फ्लाई दुश्मन बन गई हैं। इस इलाके में मजदूरों के सामने पहली बार इस प्रकार की बाधा सामने आई है।

हालांकि हर बार इन मक्खियों का प्रकोप होता था लेकिन अप्रैल-मई में तेजी आंधी और गर्मी के चलते ये खत्म हो जाती थीं लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। अप्रेल में न आंधी आई और न ही मई के शुरुआती हफ्तों में भीषण गर्मी पड़ी। बल्कि इन इलाकों में तेज बारिश हुई। ऐसी स्थिति के कारण इन इलाकों के मौसम में अच्छी खासी नमी पैदा हो गई।

इसके चलते इन इलाकों में स्मॉल ब्लैक मक्खियों का प्रकोप इतना बढ़ गया है कि अब रोजी रोटी के लिए जंगलों में जाने वाले मजदूरों को काम करना मुश्किल हो गया है। लेकिन खाने कमाने के लिए उन्हें हर हाल में जंगल तो जाना ही पड़ रहा है। ऐसे में उन्होंने एक तात्कालिक उपाय के रूप में अपने मुंह पर मच्छरदानी बांध कर तेंदूपत्ते एकत्रित कर रहे हैं। तकि कम से कम चेहरा तो बचा रहे और वे देखपरख कर तेंदूपत्ता का संग्रहण कर सकें।

मजदूरों का कहना है कि इस उपाय के बाद भी काम करना दिनप्रतिदिन नामुमकिन होते जा रहा है। हालात इतने विपरित हो गए हैं कि जंगलों में मजदरों की संख्या धीरे-धीरे कम होते जा रही है। और इस समय तेंदुपत्ता संग्रहण का सीजन अपने चरम पर है। तेंदुपत्ता के अलावा भी जंगलों में इस समय महुआ और साल के पत्तों के संग्रहण के लिए भी मजदूर जाते हैं लेकिन मक्खियों के प्रकोप ने उनके लिए काम करना दूभर कर दिया है।

वहीं इस विकराल समस्या पर पूर्वी सिंहभूम जिले के स्थानीय क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र, दारीसाई (बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, रांची की शाखा) के तकनीकी विज्ञानी विनोद कुमार ने डाउन टू अर्थ को बताया कि दरअसल इस इलाके में जिसे छोटी काली मक्खी कहा जा रही हैं वास्तव में इसे स्मॉल ब्लैक फ्लाई कहा जाता है और इनकी लंबाई एक मिली मीटर से भी कम की होती है।

इनका प्रकोप झारखंड वाले इलाके में कम और पश्चिम बंगाल व ओडिशा के इलाके में अधिक देखने में आ रहा है। क्योंकि जिस प्रकार से अचानक ही मौसम तेजी से परिवर्तित हुआ। और इसके कारण तापमान में तेजी से बढ़ोतरी दर्ज की गई और इसके साथ ही उमस भी तेजी बढ़ी। यह स्थिति इन स्मॉल ब्लेक फ्लाई के प्रजनन के लिए आदर्श होती है। यही कारण है कि इनकी संख्या में बेतहाशा वृद्धि देखने को मिल रही है।

चूंकि ये ऐसे मौसम की खोज में घूमते ही रहते हैं और अब इन्हें यह मौका मिला है इसलिए इनकी संख्या तेजी से बढ़ते जा रही है। इनके प्रजनन का समय सुबह से शाम तक का होता है। इनके लगातार बढ़ने की रोकथाम के लिए दो तरीका है।

पहला तो है कि कीटनाशकों का छिड़काव कर इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है, लेकिन यह तो इस इलाके में रहने वालों के लिए आसान नहीं है। इनके खत्म करने के लिए एक दीर्घकालीन तरीका है कि इसके प्रजनन के लिए अनुकूल स्थिति को खत्म किया जाए। यह पूछे जाने पर कि क्या इसका कारण जलवायु परिवर्तन है, इस पर विनोद कुमार कहते हैं कि यह सही नहीं होगा, इसका कारण ड्राई वेदर में तेजी से बदलाव अवश्य कहा जा सकता है।

स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र का कहना है कि इनके बढ़ने से बीमारियां तेजी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचती हैं लेकिन विभाग का मानना है कि तेज गर्मी और आंधी से स्थिति के सामान्य होने की उम्मीद है। वहीं दूसरी ओर स्थानीय ग्रामीण छोटी मक्खियों के बढ़ने को आने वाले समय में सुखाड़ा का संकेत भी करार दे रहे हैं।

ग्रामीणों का कहना है कि ऐसा कहा जाता है कि जब मक्खी का प्रकोप अत्याधिक बढ़ जाता है तब इसे सुखाड़ का संकेत माना जाता है। जिले के बाघुड़िया ग्राम पंचायत के कई ग्रामीणों का कहना है कि मच्छरदानी मुंह पर बांधना तो हमारी मजबूरी है क्योंकि ये मुंह, नाक, नाक और आंखों तक में घुस जाती हैं। उनका कहना है कि हमारा सारा काम इस समय सब कुछ मच्छरदानी के अंदर ही हो रहा है।

कहने के लिए तो तीन राज्यों की सीमा पर स्थित जंगलों से सटे लगभग सौ गांव की बीस हजार से अधिक आबादी इन छोटी मक्खियों से त्रस्त है, लेकिन स्थानीय ग्रामीणों का दावा है कि इस समस्या से हम केवल सौ नहीं बल्कि 15 सौ से अधिक गांव प्रभावित हैं।