जलवायु

डाउन टू अर्थ विश्लेषण: कॉप-27 से क्या हुआ हासिल?

मिस्र के शहर शर्म अल शेख शहर में एक पखवाड़े तक चले कॉप-27 में आखिरकार नुकसान व क्षति के लिए कोष बनाने की मंजूरी दे दी गई, लेकिन क्या ये इतना आसान है? आखिर क्या है नुकसान व क्षति कोष? कॉप-27 में और क्या हुआ?

Akshit Sangomla, Avantika Goswami, Rohini Krishnamurthy

ममी और और पिरामिड के लिए दुनिया भर में मशहूर खूबसूरत देश मिस्र में 6 से लेकर 20 नवंबर तक बीता एक पखवाड़ा दशकों तक याद रखा जाएगा। इस पखवाड़े के दौरान धरती के सबसे बड़े संकट जलवायु परिवर्तन पर बातचीत चली और अंत में मान लिया गया कि जो गरीब देश जलवायु परिवर्तन के लिए बहुत कम जिम्मेवार हैं, वही सबसे ज्यादा बर्बादी का दंश झेल रहे हैं, इसलिए अमीर देशों को उनकी भरपाई करनी चाहिए। दरअसल इस पखवाड़े में मिस्र के इस शहर में क्लाइमेट कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (कॉप-27) यानी संयुक्त राष्ट्र संघ के 27वें सालाना जलवायु परिवर्तन सम्मेलन का आयोजन किया गया। सम्मेलन में दुनिया के लगभग सभी देशों के 35 हजार से अधिक लोग जुटे, जिनमें सरकारी अधिकारी, पर्यवेक्षक, नागरिक समाज व अन्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि थे। इस सम्मेलन को इसलिए ऐतहासिक माना जा रहा है, क्योंकि इसमें जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान व क्षति की पूर्ति के लिए एक कोष (लॉस एंड डैमेज फंड, एलडीएफ) के गठन का फैसला लिया गया (देखें, हालात ने किया मजबूर,)।

सम्मेलन की समाप्ति के बाद राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के संयुक्त सचिव और कॉप-27 में हानि और क्षति के लिए भारत के वार्ताकार ने डाउन टू अर्थ से कहा, “जलवायु परिवर्तन वार्ता में यह एक ऐतिहासिक दिन है, जब 30 वर्षों के बाद यह स्वीकार किया गया है कि बढ़ती आपदाओं के कारण उन समुदायों और देशों को नुकसान और क्षति (आर्थिक और गैर-आर्थिक दोनों) का सामना सबसे अधिक करना पड़ रहा है, जो इसके लिए कम से कम जिम्मेवार हैं। इसके लिए दशकों से उत्सर्जन करने वाले देश जिम्मेवार है। इस तरह की नुकसान और क्षति की भरपाई के लिए एक फंडिंग व्यवस्था बनाने के प्रयास शुरू हो गए हैं”।

हालांकि नुकसान एवं क्षति कोष के बारे में विस्तृत विवरण के बारे में कुछ खास सामने नहीं आ पाया। जैसे कि यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि नुकसान एवं क्षति की गणना कैसे की जाएगी (देखें, अदृश्य लागत, पेज 43)? इस कोष के लिए पैसा कहां से आएगा? यह भी साफ नहीं है कि यह कोष यूएनएफसीसीसी के अधीन आएगा या नहीं? इस कोष का फायदा किन देशों को मिलेगा? हालांकि विकासशील देशों के समूह, जी77 की मांग है कि प्राकृतिक आपदाओं से सर्वाधिक नुकसान झेलने वाले कमजोर देशों को कोष से मुआवजा दिया जाए। वहीं, यूरोपीय संघ जैसे समूहों ने चीन जैसे बड़े उत्सर्जकों की ओर इशारा करते हुए कोष में भुगतान करने वालों का दायरा व्यापक बनाने की बात की। एंटीगुआ और बारबुडा, मॉरीशस और जमैका सहित कई द्वीप राष्ट्रों ने चीन और भारत से भविष्य में किसी भी नुकसान और क्षति निधि का भुगतान करने का आह्वान किया।

6 नवंबर को जब कॉप-27 के एजेंडे में नुकसान व क्षति को आधिकारिक तौर पर शामिल किया गया था तो उसे ही एक बड़ी उपलब्धि माना गया था, लेकिन 18 नवंबर को जब कॉप का समापन होना था, तब तक नुकसान एवं क्षति को लेकर कोई सहमति न बनते देख यह कयास लगाए जाने लगे थे कि विकासशील देश और अल्प विकसित देशों को इस बार भी निराशा का सामना करना पड़ेगा। हालात यह बन गए कि कॉप अध्यक्ष समीर शौकरी को यूएनएफसीसीसी की विश्वसनीयता दांव पर लगती नजर आई। इसके बाद वार्ता का सिलसिला दो दिन तक चला और आखिरकार यूरोपीय संघ की पहल पर नुकसान और क्षति कोष बनाने के फैसले पर मुहर लग पाई।

समापन के बाद भारत ने नुकसान एवं क्षति फंड का रास्ता साफ होने पर प्रसन्नता जताई, लेकिन साथ ही कहा कि भारत इस फंड में कोई धनराशि नहीं देगा, बल्कि फंड में अपना हिस्सा मांगेगा। हालांकि भारत जलवायु शमन (मिटिगेशन) में कृषि को जोड़ने से भी खुश नहीं है। केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेेंद्र यादव ने कहा कि दुनिया को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य हासिल करने के लिए किसानों पर बोझ नहीं लादना चाहिए। यह पहला कॉप सम्मेलन था, जहां कृषि के लिए समर्थित एक विशेष दिवस आयोजित किया गया। कृषि क्षेत्र को कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों के एक तिहाई के लिए जिम्मेदार माना जाता है और इस वजह से इसे जलवायु समाधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बताया गया।

सम्मेलन में नार्वे, भारत सहित कई देश ये मांग कर रहे थे कि तेल और गैस सहित सभी जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जाए, लेकिन खाड़ी देशों और रूस जैसे देशों की वजह से यह संभव नहीं है। दरअसल, भारत चाहता था कि जिस तरह उस पर कोयले के इस्तेमाल को रोकने का दबाव बनाया जा रहा है, उसी तरह सभी देशों पर कम उत्सर्जन करने वाले जीवाश्म ईंधन जैसे तेल व गैस के इस्तेमाल पर रोक लगाने का दबाव बनाया जा सके।

सम्मेलन के दौरान भारत ने अपनी दीर्घकालीन कम-कार्बन विकास रणनीति पेश की। इसमें सात क्षेत्रों को शामिल किया गया है। इसमें नवीकरणीय ऊर्जा का विस्तार करना और ग्रिड को मजबूत बनाना, जीवाश्म ईंधन स्रोतों का तर्कसंगत उपयोग, ई-वाहनों को प्रोत्साहन, पेट्रोल व डीजल में जैव-ईंधन के मिश्रण में निरंतर वृद्धि, ऊर्जा दक्षता का विस्तार और भावी ईंधन के तौर पर ग्रीन हाइड्रोजन को महत्व देना शामिल था।

इसके अलावा सम्मेलन के दौरान गैर-सरकारी संस्थाओं के लिए नेट-शून्य उत्सर्जन संकल्पों पर उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समूह द्वारा पहली रिपोर्ट जारी की गई। इस रिपोर्ट में ग्रीन वाशिंग (हरित लीपापोती) और कमजोर नेट-शून्य संकल्पों की निन्दा की गई और कहा गया कि नेट शून्य का लक्ष्य हासिल करने के लिए हमें पारदर्शिता अपनानी होगी। सम्मेलन के दौरान, संयुक्त राष्ट्र ने समय पूर्व चेतावनी प्रणाली के लिए एक कार्यकारी कार्ययोजना की भी घोषणा की, जिसमें कहा गया कि इस तरह की चेतावनी प्रणाली पर वर्ष 2023 और 2027 के दौरान 3.1 अरब डॉलर के निवेश करने का लक्ष्य रखा जाना चाहिए। अमेरिका के पूर्व उप-राष्ट्रपति और जलवायु कार्यकर्ता ऐल गोर ने कहा कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों का स्वतंत्र लेखाजोखा रखने के लिए सैटेलाइट और कृत्रिम बुद्धिमता का इस्तेमाल करते हुए विश्व भर में 70 हजार से अधिक स्थलों पर निगरानी की जाएगी। इससे वातावरण में छोड़ी जा रही कार्बन और मीथेन गैस उत्सर्जन के स्तर को मापा जाना सम्भव होगा। सम्मेलन के दौरान अर्थव्यवस्था के पांच बड़े क्षेत्रों – बिजली, सड़क परिवहन, स्टील, हाइड्रोजन और कृषि में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए नया मास्टर प्लान भी प्रस्तुत किया गया।