अपने कार्यकाल के पहले कुछ हफ्तों में ही संयुक्त राज्य अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप ने कई कार्यकारी आदेशों पर हस्ताक्षर किए हैं और अनेक घोषणाएं की हैं, जो जलवायु कार्रवाई के वैश्विक प्रयासों के लिए आपदा साबित हो सकती हैं। उन्होंने एक बार फिर अमेरिका को पेरिस समझौते से बाहर निकालने की प्रक्रिया शुरू कर दी है और अंतरराष्ट्रीय जलवायु वित्त पोषण को रद्द कर दिया है।
उन्होंने विदेशी सहायता पर भी हमला किया है—पहले सभी प्रकार की सहायता पर 90 दिनों की रोक लगाई और फिर यूएसएड को बंद करने की धमकी दी। यह कदम एचआईवी/एड्स और तपेदिक के इलाज, शरणार्थियों के चलाए जा रहे कार्यक्रमों और महामारी की तैयारी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के वित्तपोषण को बाधित कर सकता है। साथ ही, उन्होंने व्यापार भागीदारों के खिलाफ व्यापक शुल्क लगा दिए हैं। लेकिन इन सभी कदमों का जलवायु परिवर्तन से निपटने के वैश्विक प्रयासों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
अमेरिका का पेरिस समझौते से बाहर होना—अब आगे क्या?
अमेरिका अभी तक संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर फ्रेमवर्क कंवनेशन (यूएनएफसीसीसी) के सम्मेलन (कॉप ) की प्रक्रिया से औपचारिक रूप से बाहर नहीं हुआ है। पिछली बार जब ट्रंप प्रशासन ने पेरिस समझौते से बाहर निकलने की प्रक्रिया शुरू की थी, तो औपचारिक रूप से यह प्रक्रिया 2019 में पूरी हुई थी, जिससे एक साल की नोटिस अवधि लागू हुई थी। 2020 में कोई कॉप शिखर सम्मेलन नहीं हुआ था, और 46वें अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 2021 में अमेरिका की भागीदारी को फिर से बहाल कर दिया था।
2017-2019 में ट्रंप प्रशासन द्वारा समझौते से बाहर निकलने की घोषणा के बावजूद अमेरिकी वार्ताकार कॉप सम्मेलनों में भाग लेते रहे। अमेरिकी वार्ताकार आर्थिक और रणनीतिक हितों के अनुरूप समझौतों की वकालत करते रहे और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और ऊर्जा प्रणालियों में बदलाव के लिए किए गए प्रयासों पर प्रकाश डालते रहे।
इस बार अमेरिका कॉप30 में ब्राजील में औपचारिक रूप से शामिल रहेगा, क्योंकि एक साल की नोटिस अवधि अनिवार्य है। इसके बाद का रास्ता अनिश्चित है। नए निर्वाचित कॉप30 अध्यक्ष आंद्रे कोर्रिया डो लागो ने अमेरिका के इस निर्णय पर चिंता व्यक्त की है, लेकिन यह भी कहा है कि अमेरिका अभी भी यूएनएफसीसीसी का सदस्य बना हुआ है, जिससे जलवायु वार्ता के लिए वैकल्पिक रास्ते खुले रहेंगे।
संभावना है कि अमेरिका अपनी हाल ही में प्रस्तुत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) को आगे नहीं बढ़ाएगा, जिसे बाइडेन प्रशासन ने पिछले साल प्रस्तुत किया था और जिसका लक्ष्य 2005 के स्तर की तुलना में 2035 तक 61-66 प्रतिशत तक उत्सर्जन में कटौती करना था।
यह ऐसे समय में हो रहा है, जब अमेरिका उत्सर्जन में महत्वपूर्ण कमी करने में विफल रहा है—2010 से 2022 के बीच वार्षिक सकल उत्सर्जन (भूमि उपयोग, भूमि उपयोग परिवर्तन और वानिकी को छोड़कर) की गिरावट की औसत वार्षिक दर मात्र 0.77 प्रतिशत रही है, जबकि एनडीसी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इसे 6 प्रतिशत वार्षिक दर से कम करना होगा।
अमेरिका की जलवायु वार्ता में भूमिका और उसके प्रभाव
अमेरिका की यूएनएफसीसीसी में भागीदारी अक्सर विकासशील देशों की मांगों को अवरुद्ध करने के रूप में देखी जाती रही है। विकसित देशों के लिए क्योटो प्रोटोकॉल के तहत उच्च उत्सर्जन लक्ष्यों का विरोध करने से लेकर हानि और क्षति निधियों को देयता और मुआवजे से न जोड़ने तक अमेरिका ने हमेशा महत्वाकांक्षी जलवायु प्रतिबद्धताओं का विरोध किया है।
अमेरिका का काॅप से बाहर निकलना इसे पूरी तरह निष्प्रभावी नहीं बनाएगा। वैश्विक अर्थव्यवस्था में इसकी प्रमुख स्थिति इसे एक प्रभावशाली शक्ति बनाए रखेगी। ऐसा खासकर जलवायु कार्रवाई के क्षेत्र में होगा, जो व्यापार, ऋण और सैन्य साझेदारी जैसी वास्तविक आर्थिक संबंधों से जुड़ा हुआ है।
क्यों पूरी दुनिया पर असर डालता है अमेरिका
वैश्विक वित्तीय प्रणाली पर नियंत्रण: अमेरिकी डॉलर दुनिया की आरक्षित मुद्रा है और अधिकांश अंतरराष्ट्रीय व्यापार का केंद्र है।
सैन्य शक्ति: अमेरिका के पास दुनिया की सबसे बड़ी सेना है।
व्यापार में प्रभुत्व: अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा आयातक है, जिसकी वार्षिक आयात राशि 3.37 ट्रिलियन डॉलर है (चीन के 2.71 ट्रिलियन डॉलर की तुलना में)।
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों पर प्रभाव: अमेरिका विश्व बैंक का सबसे बड़ा शेयरधारक है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएफएफ) में इसका सबसे बड़ा विशेष आहरण अधिकार (एसडीआर) कोटा है।
ऋण पर नियंत्रण: उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के कुल 3.6 ट्रिलियन डॉलर के ऋण का 47 प्रतिशत अमेरिकी वित्तीय संस्थानों और वाणिज्यिक बैंकों के पास है।
संयुक्त राष्ट्र को वित्तपोषण: अमेरिका यूएनएफसीसीसी के 22 प्रतिशत फंडिंग का योगदान करता है और संयुक्त राष्ट्र का सबसे बड़ा फंडिंग स्रोत है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद: अमेरिका के पास वीटो शक्ति है।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन प्रयासों पर प्रभाव
अमेरिका के इस कदम के बाद जलवायु परिवर्तन से निपटने के वैश्विक प्रयासों पर निम्नलिखित तीन संभावित परिदृश्य बन सकते हैं:
वैश्विक जलवायु कार्रवाई में गिरावट: इस परिदृश्य में शेष विश्व या तो अमेरिका के नक्शेकदम पर चलते हुए जलवायु कार्रवाई का विरोध कर सकता है, या फिर अमेरिका की निष्क्रियता के प्रतिशोध में इसका विरोध कर सकता है। ये देश यह कह सकते हैं कि वे अपनी आर्थिक वृद्धि और ऊर्जा सुरक्षा का बलिदान नहीं करना चाहते—जैसा कि ब्रिक्स ने अपने 2024 के बयान में संकेत दिया था। कुछ देशों के लिए यह एक जानबूझकर लिया गया निर्णय नहीं, बल्कि एक कठिन बलिदान हो सकता है—हालिया रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि कोलंबिया का ऊर्जा परिवर्तन (ट्रांजिशन) प्रयास खतरे में पड़ सकता है, क्योंकि अमेरिका संभावित जलवायु वित्त पोषक (क्लाइमेट फंडर) के रूप में पीछे हट गया है।
शेष विश्व नेतृत्व करेगा: इस परिदृश्य में शेष विश्व संभवतया यूरोपीय संघ और चीन के नेतृत्व में जलवायु कार्रवाई को आगे बढ़ा सकता है। ये देश अमेरिका को जवाबदेह ठहराने पर ध्यान देने की बजाय ‘इच्छुक गठबंधनों’ का अधिकतम उपयोग करने का निर्णय ले सकते हैं—जिसमें निजी क्षेत्र और ग्लोबल साउथ (वैश्विक दक्षिण) से नया नेतृत्व शामिल हो सकते हैं। यह उचित ठहराया जा सकता है कि अमेरिका वर्तमान में वार्षिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में केवल 13 प्रतिशत का योगदान देता है, जबकि एशिया में उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है—इसलिए प्रयासों का केंद्र वहीं होना चाहिए।
शेष विश्व अमेरिका को जवाबदेह ठहराएगा: पूरा विश्व अमेरिका पर दबाव बना सकता है, आर्थिक प्रतिबंध लगा सकता है या ऐतिहासिक प्रदूषक टैक्स जैसे कदम उठा सकता है।
आगे की राह
हालांकि अमेरिका का कॉप से बाहर निकलना जलवायु कार्रवाई के लिए एक बड़ा झटका है, लेकिन कई देश अपनी घरेलू नीतियों के तहत नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश जारी रख सकते हैं।
ऊर्जा सुरक्षा और जलवायु कार्रवाई अब एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं—बल्कि नवीकरणीय ऊर्जा स्वतंत्रता को बढ़ावा दे रही है। 2024 में यूरोपीय संघ में सौर ऊर्जा ने पहली बार कोयले को पीछे छोड़ दिया। चीन ने अपने नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता लक्ष्य को छह साल पहले ही हासिल कर लिया।
विकासशील देश अधिक जटिल चुनौतियों का सामना कर रहे हैं—बेरोजगारी, बढ़ता ऋण, मुद्रास्फीति और आर्थिक-सामरिक संघर्ष। भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों के लिए अमेरिका की निष्क्रियता जलवायु वित्त पोषण को खतरे में डाल सकती है।
यह समय मजबूत वैश्विक गठबंधनों के माध्यम से कम-कार्बन भविष्य की रणनीति बनाने का है, ताकि सभी देशों को इस परिवर्तन में शामिल किया जा सके। यह संभव है और इसे करना आवश्यक है, क्योंकि जलवायु संकट पहले ही हमारे दरवाजे पर दस्तक दे चुका है।