जलवायु

देशों के बीच प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष युुद्ध से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई होगी कमजोर

तथाकथित पश्चिम और तथाकथित पूर्व (यूएस बनाम चीन) के बीच चल रहे शीत युद्ध से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में हालात और खराब हो जाएंगे।

Sunita Narain

जब आप सोचते हैं कि अब इससे बुरा तो कुछ नहीं हो सकता, ठीक उसी समय हालात और भी बिगड़ जाते हैं। पिछले साल, यूक्रेन-रूस युद्ध छिड़ने के बाद, मैंने लिखा था कि यह संघर्ष और ऐसे तमाम युद्ध हमें बांटने पर तुले हैं जबकि हमें जलवायु परिवर्तन के प्रलयंकारी खतरे से निपटने के लिए एक साथ आने की जरूरत थी।

मुद्दे की बात यह है कि जलवायु संकट के लिए प्रत्येक देश को एकसाथ कार्रवाई करने की आवश्यकता है, चाहे वह औद्योगिक रूप से अमीर देश हों जिनका ऐतिहासिक उत्सर्जन अभी भी वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के भंडार के रूप में मौजूद है और  वैश्विक तापमान को बढ़ने के लिए “मजबूर” कर रहा है या बाकी दुनिया, जो विकसित होने और उत्सर्जन शुरू करने के इंतजार में है। यह हमारे साझे भविष्य और साझे विनाश का मामला है।

इस महीने दुबई में संयुक्त राष्ट्र का जलवायु सम्मेलन (सीओपी28) होने वाला है, लेकिन भूराजनीतिक परिदृश्य तेजी से अस्थिर होता जा रहा है। सबसे पहले, वह भयानक और क्रूर युद्ध है जो इजराइल-फिलिस्तीन के लोगों के खिलाफ लड़ रहा है। याद रखें, यह विजुअल मीडिया और इंटरकनेक्टिविटी का युग है। जब गाजा पर बमबारी की तस्वीरें घरों में प्रसारित की जाती हैं, तो जनाक्रोश बढ़ता है और हमारी दुनिया को टुकड़ों में बांट देता है। आप पक्ष ले सकते हैं, लेकिन आप दुनिया को एक साथ नहीं चला सकते।

इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष ऐसे मुद्दों को सुलझाने में संयुक्त राष्ट्र की असहाय होने को भी उजागर करता है। इसकी सभी एजेंसियों के साथ-साथ महासचिव ने भी सीजफायर का आह्वान किया है। फिर भी, संयुक्त राष्ट्र  के कर्मचारी हर दिन गोलीबारी में मारे जा रहे हैं।

इसके निर्देशों की अनदेखी की जा रही है या उन्हें सीधे-सीधे खारिज कर दिया जा रहा है। फिर, जब जलवायु परिवर्तन या किसी अन्य संकट की बात आएगी तो यह वैश्विक चेतना का बहुपक्षीय गढ़ कैसे अपनी भूमिका निभा पायेगा? इसे कमजोर और अक्षम कर दिया गया है।

यह सब ऐसे युग में हो रहा है, जब लोकतंत्र को अभूतपूर्व चुनौतियां मिल रही हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वाहक, सोशल मीडिया-झूठ और नफरत फैलाने का एक हथियार बन गया है। जैसे-जैसे हिंसा और दुर्घटनाएं बढ़ती हैं, उसी अनुपात में तनाव बढ़ता है और सुरक्षा सुनिश्चित करने की आवश्यकता भी बढ़ जाती है।

इसके बाद यह सरकारों को चाहे वे सत्तावादी हों या नहीं उच्च तकनीक निगरानी का उपयोग करके लोकतंत्र के मूल्यों के खिलाफ जाने की छूट मिल जाती है। अब हम कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के एक नए अज्ञात युग की ओर बढ़ रहे हैं। हम नहीं जानते कि हमारा भविष्य कैसा होने वाला है।

लेकिन सच पूछें तो हमें तकनीक से परेशान होने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह तकनीक हमारे खंडित और विभाजित समाज के हाथों में क्या करेगी यह चिंता का विषय है। 

इस सब में, पारंपरिक प्रिंट और प्रसारण मीडिया को बदनाम, विभाजित और खारिज किया जा रहा है। यहां तक कि सबसे उत्साही फ्री-स्पीच समाज भी गलत-सही के खेल में लगे हैं। सड़कों पर उतर रहे आम लोगों की चिंताओं पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ऐसे में हम अपनी दुनिया में गरीबों की आवाज कैसे सुन पाएंगे?

लॉस एंड डैमेज फण्ड पर निर्णय लेने के लिए बनी ट्रांजिशनल कमिटी (यह जलवायु परिवर्तन संबंधित चरम मौसम की घटनाओं से लगातार प्रभावित देशों और समुदायों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है) की आखिरी मीटिंग का उदाहरण लीजिए। दुनिया का सबसे बड़ा ऐतिहासिक उत्सर्जक अमेरिका यह कहते हुए अंतिम समझौते से मुकर गया कि फंड को “स्वैच्छिक” प्रकृति का बनाए जाने की आवश्यकता है। उन देशों का क्या होगा जिन्हें इन आपदाओं से हुए नुकसान की भारपाई के लिए रियायती और अनुदान आधारित वित्त की आवश्यकता है?

आज हम जानते हैं कि जलवायु वित्त ऐसे देशों पर केवल कर्ज का बोझ बढ़ा रहा है, उन्हें गरीबी और असुरक्षा के दुष्चक्र में फंसा रहा है। यह निधि प्रदूषक के दायित्व के रूप में देशों को “भुगतान” करने की आवश्यकता पर आधारित होनी थी। अब, अमेरिका की चली तो यह निराश समुदायों को खैरात बांटने की एक और  पेशकश बनकर रह जाएगी। हम यह नहीं होने दे सकते। 

कई देशों की वित्तीय हताशा का लाभ उठाकर कार्बन-ऑफसेट योजनाओं के लिए भूमि की अदला-बदली या खरीद के लिए संदिग्ध समझौते किए जा रहे हैं। यह आगे बढ़ने का रास्ता तो नहीं हो सकता है जिसमें ऐतिहासिक रूप से अमीर देशों  के उत्सर्जन के शिकार गरीब देशों को मुनाफा कमाने के लिए और अधिक प्रताड़ित किया जाएगा। यह वह दुनिया नहीं है जो उत्सर्जन का मुकाबला करेगी और हम सभी को सुरक्षित रखेगी।

तथाकथित पश्चिम और तथाकथित पूर्व (यूएस बनाम चीन) के बीच चल रहे शीत युद्ध से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में हालात और खराब हो जाएंगे। चीन आज विश्व में ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा वार्षिक उत्सर्जक है।

इसके उत्सर्जन का पैमाना बहुत बड़ा है यानी दूसरे सबसे बड़े उत्सर्जक अमेरिका से दोगुना। 2030 तक, यह प्रति व्यक्ति उत्सर्जन और कार्बन बजट में हिस्सेदारी के मामले में अमेरिका के बराबर हो जाएगा (यदि अमेरिका कटौती के अपने लक्ष्यों को पूरा करता है)।

चीन लो-कार्बन ट्रांजीशन के लिए आवश्यक प्रमुख खनिजों और प्रौद्योगिकियों के मामले में सबसे आगे है, जो इसे ई-कारों से लेकर सौर पैनलों तक सब कुछ के निर्माण के मामले में दुनिया के बाकी हिस्सों से बेहतर बनाता है।

यह कई देशों के लिए प्रमुख फाइनेंसर भी है और विकास को फिर से शुरू करने या ऋण जोखिम को कम करने के मामले में महत्वपूर्ण है। मानवता को जीवित रखने के लिए हमें युद्ध की नहीं, सहयोग की आवश्यकता है। यही हमारी धरती के हित में  है।