जलवायु

उत्तराखंड: सामान्य नहीं है सर्दियों में एवलांच का टूटना, विशेषज्ञों ने चेताया

वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालयी क्षेत्रों में मौसम गर्म हो रहा है, जो इस तरह की घटनाओं के बढ़ने के संकेत दे रहा हैं

Manmeet Singh

हिमालय में सर्दियों में एवलांच का टूटना अमूमन नहीं होता है। हिमालय परिक्षेत्र में एवलांच अक्सर गर्मियों में टूटते हैं। ग्लेशियर वैज्ञानिकों का अनुमान है कि हिमालय में इस बार पिछले बीस सालों में सबसे गर्म है। जो तापमान मई या जून में होता है, वो इस बार जनवरी और फरवरी में दोपहर में हो रहा हैं। जिस कारण आगे भी ऐसी आपदायें हो सकती है।

वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान के पूर्व ग्लेशियर वैज्ञानिक डीपी डोभाल बताते हैं कि सर्दियों में भी एवलांच खिसकते हैं। लेकिन वो तब होता है, जब अत्याधिक हिमपात होता है और दबाव पढने से ऊपर की बर्फ नीचे की ओर दबाव बनाने लगती है। लेकिन इस बार उतराखंड से लगते हिमालय परिक्षेत्र में पिछले बीस सालों का सबसे कम हिमपात हुआ है। इसलिये ऐसा नहीं लगता की अत्याधिक हिमपात होने के चलते ऐसा हुआ होगा। शुरूआती लक्षण ग्लोबल वार्मिंग के चलते बर्फ के तेजी से पिघलने के बाद एवलांच के ब्रेक होना लग रहा है।

उत्तराखंड के उच्च हिमालय में स्थित पर्वतों में आजकल दोपहर को तापमान सामान्य से पांच डिग्री ज्यादा हो रहा है। वहीं बेहद कम हिमपात होने से हिमखंड तेजी से पिघल रहे हैं।

धौलीगंगा ग्लेशियर में बीस सालों का शोध करने वाले वरिष्ठ भू गर्भीय वैज्ञानिक और उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र यूसेक के पूर्व निदेशक प्रो एमपीएस बिष्ट बताते हैं कि यह चिंता का विषय है कि सर्दियों में वो घटना हिमालय में हो रही है। जो गर्मियों में हुआ करती थी।

उनके शोध के अनुसार न केवल ग्लेशियर के पानी से बनी सतोपंथ झील का दायरा कम हो गया है, बल्कि ऋषिगंगा कैचमेंट एरिया के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। यह अध्ययन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से कराया गया था। अध्ययन बताता है कि 1980 में नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के ऋषिगंगा कैचमेंट का कुल 243 वर्ग किमी एरिया बर्फ से ढका था, लेकिन 2020 में यह एरिया 217 वर्ग किमी ही रह गया। वहीं, अब इसमें दस प्रतिशत की और गिरावट दर्ज की गई है।

यूसेक ने सेटेलाइट डेटा के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि 37 सालों में हिमाच्छादित क्षेत्रफल में 26 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है। शोध में यह भी सामने आया कि इस क्षेत्र में पहले स्थायी स्नो लाइन 5200 मीटर पर थी, जो अब 5700 मीटर तक घट-बढ़ रही है। प्रो. बिष्ट के निर्देशन में हुए इस अध्ययन में शोध छात्र डॉ. मनीष मेहता और श्रीकृष्ण नौटियाल भी शामिल थे।

बिष्ट बताते हैं कि ऋषि गंगा कैचमेंट एरिया की उत्तरी ढलान के ग्लेशियर ज्यादा प्रभावित नहीं हुए हैं, लेकिन दक्षिणी ढलान के ग्लेशियर में बदलाव देखा गया है। इस ओर के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के ग्लेशियर यदि इसी तरह से पिघलते रहे तो आने वाले समय में इस क्षेत्र के वन्य जीव जंतुओं और वनस्पतियों पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।

वह कहते हैं कि हिमालय से लगते क्षेत्रों में बडे़ निर्माण होना आने वाले समय के टाइम बम साबित होंगे। जिन इलाकों में इंसानों को कम आक्सीजन के चलते सांस लेने में दिक्कत होती हैं। वहां बडे़ बांध बनाये जा रहे हैं। इस संबंध में वैज्ञानिकों ने एक रिपोर्ट बनाकर केंद्र और राज्य सरकार को सौंपी हैं।

उनकी रिपोर्ट में 2013 में केदारनाथ में आई आपदा का हवाला देते हुए बताया गया है कि जो निर्माण कार्य केदारनाथ में हुये। उसके चलते ही कालांतर में केदारनाथ में बड़ी आपदा आई। उसी तरह नंदादेवी बायो रिजर्व में तो बांध ही बना दिया गया। ये भविष्य के टाइम बम होंगे।