जलवायु

गांधी, 21वीं सदी का पर्यावरणविद -1 : अमूल्य पर टिकी गांधी की दृष्टि

गांधी ने टिकाऊ विकास शब्दावली गढ़े जाने से आधी सदी से अधिक समय पहले ही पर्यावरणीय संकट की आशंका जाहिर कर दी थी

Rajni Bakshi

2007 में ब्रिटिश अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न जलवायु संकट पर तत्काल कार्रवाई की जरूरत को लेकर व्यापारियों को सचेत करने मुंबई आए थे। स्टर्न के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें उन्होंने भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों में से एक महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा के साथ मंच साझा किया। स्टर्न की गंभीर भविष्यवाणियों के जवाब में महिंद्रा ने सबसे पहले बताया कि महात्मा गांधी 70 साल से भी ज्यादा समय पहले जान गए थे कि अगर पूरी दुनिया पश्चिमी देशों की तरह रहने लगी, तो इसके लिए एक धरती पर्याप्त नहीं होगी। महिंद्रा ने एक कहानी सुनाई, जो उन्होंने गोवा के किसी गांव में सुनी थी।

एक समय वह गांव सबसे स्वादिष्ट तरबूज उगाने के लिए मशहूर था। यहां एक रिवाज था कि बच्चे किसी भी खेत से मुफ्त में तरबूज खा सकते थे। इसके बदले में उन्हें बस इतना करना होता था कि वे सबसे स्वादिष्ट तरबूज के बीज को बचाएं और उसे उत्पादक को दे दें। किसान तब केवल उसी तरबूज के बीज बोते थे, जो बच्चों को सबसे मीठे और स्वादिष्ट लगते थे। गांव के कुछ लोगों ने फैसला किया कि जब उन्हें इन बढ़िया तरबूजों की इतनी अच्छी कीमत मिल रही है, तो भला बच्चों को मुफ्त में देकर “बर्बाद” क्यों किया जाए। फिर जैसे-जैसे बच्चों को मुफ्त तरबूज देने का रिवाज कम होता गया, वैसे-वैसे उनकी गुणवत्ता में कमी आने लगी। जल्द गांव में अच्छे तरबूजों की पैदावार बंद हो गई।

कुछ लोग इसे एक ऐसी कोरी कहानी के रूप में देख सकते हैं, जो झूठी अर्थव्यवस्था के संकटों को दिखाती है। दरअसल, बच्चों को मुफ्त में तरबूज देने को “बर्बादी” मानना एक गलती थी, जबकि असल मायनों में वह गुणवत्ता नियंत्रण के लिहाज से एक अहम निवेश था। समुदाय ने बच्चों के तरबूज के आनंद को “अमूल्य” माना होता तो क्या होता?

अमूल्य पर ध्यान केंद्रित करना ही महात्मा गांधी का महत्वपूर्ण व आज का सबसे जरूरी नजरिया है। यहां अमूल्य से मतलब दुर्लभ और महंगी चीजों से नहीं है, जो किसी की पहुंच से बाहर हो। इसका मतलब यह है कि इसे बाजार के किसी भी रूप से बाहर रखा गया है, जिसे कमोडिटी में नहीं बदला जा सकता है और न ही आपूर्ति और मांग के लिए उपलब्ध कराया जा सकता है। “अमूल्य” की धारणा पर जोर देना कई समकालीन पर्यावरण कार्यकर्ताओं को सहज-ज्ञान के विपरीत लग सकता है। पिछले कुछ दशकों में पारिस्थितिकी प्रणालियों के मूल्यांकन के लिए बहुत-सी कोशिशें की गई हैं। इसके पीछे यह उम्मीद लगाई जाती रही है कि इससे पारिस्थितिकी प्रणाली सेवाओं को लेकर मानकों में बदलाव होंगे, जिन्हें अर्थशास्त्र मान्यता देता है। इससे उन्हें बचाने में मदद मिलेगी। पारिस्थितिकी प्रणालियों और जैव विविधता के अर्थशास्त्र पर युनाइटेड नेशंस एनवायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) की रिपोर्ट के साथ ही ये प्रयास काफी महत्वपूर्ण हैं। वहीं, दूसरी ओर, यह बिल्कुल साफ है कि पर्यावरण संबंधी संकट की कहानी को वास्तविक रूप से उस ढांचे में नहीं ढाला जा सकता है, जिसे अर्थशास्त्र समझता है। नतीजतन, व्यापक जवाब हासिल करने के लिहाज से गांधी महत्वपूर्ण हैं।

विडंबना यह है कि 2019 में कई लोग पूछेंगे कि यह कैसे हो सकता है? आखिरकार, उन्हें गर्व से यह महसूस कराया गया कि आजादी के बाद भारत ने गांधी के कदमों का पालन नहीं किया, जिसकी वे कल्पना करते थे कि हम सभी चरखा कातने वाले होंगे, केवल दो या तीन सेट कपड़ा पहनकर, सिर्फ लालटेन की मदद से रात गुजारेंगे और इसी तरह रहेंगे। गांधीवादी सादगी का मतलब मुश्किल भरे हालात हैं, इस बात को गलत तरीके से जोड़ा गया है। जबकि विकास की तुलना अधिक मांग और उन्हें पूरा करने के साधनों से की गई है। इस तरह, सेवाग्राम में गांधी की मशहूर मिट्टी की झोपड़ी में आने वाले कई आगंतुक यह जानकर चौंक जाते हैं कि इसके छोटे कमरों में से एक में मालिश की एक मेज है, जो गांधी की प्राकृतिक जीवन शैली का अनिवार्य हिस्सा है। एक फोन बूथ भी है, जिसे ऐसे समय में लगाया गया था, जब फोन एक दुर्लभ लग्जरी माना जाता था। हालांकि, आज गांधी की निजी जीवनशैली को लेकर उनकी पसंद वह बात नहीं है, जो उन्हें हमारी मानवजाति के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण बनाती है। बल्कि, इससे भी कहीं अधिक जरूरी इस बात को समझा जाना है कि आखिर गांधी ने “टिकाऊ विकास” शब्दावली गढ़े जाने से आधी सदी से अधिक समय पहले ही पर्यावरणीय संकट की आशंका क्यों जाहिर की थी?

इसकी प्रमुख वजह यह है कि उनका आकलन उनके सिद्धांतों के साथ ही महत्वपूर्ण व ठोस आंकड़ों पर भी आधारित था। ऐसा प्राथमिक तौर पर इसलिए था, क्योंकि उनका आकलन सिर्फ पूरक रूप से नहीं, बल्कि भौतिकवादी आंकड़ों के साथ मुख्य सिद्धांतों पर आधारित था। उन्होंने पहले ही देख लिया था कि आधुनिक उद्योगों की बुनियाद संसाधनों के प्रति लापरवाही व स्वार्थ पर टिकी हुई है। उदाहरण के तौर पर, तरबूज वाली उस कहानी में स्वार्थ या संसाधन दोनों ही थे। पहला कि स्थानीय बच्चे खुले तौर पर अपनी मर्जी से जितना चाहे उतना तरबूज खा सकते थे और वहां टिकाऊ खुशहाली भी थी। इन हितों में बदलाव से अल्पकालिक मौद्रिक लाभ में उछाल आया, लेकिन अंततः उत्पाद और ग्रामीणों के अच्छे हालात, दोनों में ही गिरावट आई। संसाधनों की इस अहमियत को देखते हुए ही गांधी ने बार-बार कहा कि अगर हम सभ्यता की बराबरी तकनीक, सुविधाओं और अत्याधुनिक उपकरणों से ही करते रहे, तो हम खुद अपनी बर्बादी की कहानी लिखने के लिए अभिशप्त होंगे। गांधी के लिए सभ्यता वह है, जो हमें हमारी जिम्मेदारियों की राह दिखाए, हमारे जीवन का उद्देश्य बताए। जीवन के उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करने को ही हिंदू परंपराओं में पुरुषार्थ कहा गया है, जो गांधी के लिए अनमोल था। जबकि, इसके उलट अंतहीन बढ़ती इच्छाओं को उन्होंने अंधी दौड़ कहा है। रबींद्रनाथ टैगोर ने सभ्यता व प्रगति में अंतर को स्पष्ट करते हुए इस अंतर्दृष्टि की व्याख्या की। उन्होंने 1924 में चीन में दिए गए एक व्याख्यान में कहा, “प्रगति का आंतरिक मूल्यों से संबंध नहीं है, बल्कि यह एक बाहरी आकर्षण भर है। जबकि, एक आदर्श सभ्यता के मूल्य हमें अपने दायित्वों को पूरा करने की शक्ति व आनंद देते हैं।”

रोजमर्रा के भौतिक जीवन के संदर्भ में गांधी के शिष्य जेसी कुमारप्पा ने मनुष्यों के सामने मौजूद विकल्पों को परिभाषित किया था। हम या तो एक परजीवी अर्थव्यवस्था का निर्माण कर सकते हैं या जिसमें मानव जीवन की जरूरतों का सामंजस्य, प्रकृति की जैव प्रणालियों से स्थापित हो सके। वे पूर्णकालिक सत्याग्रही बने और उन्होंने 1940 के दशक की शुरुआत में जेल में रहते हुए अपनी पहली किताब “ऐन इकोनॉमी ऑफ परमानेंस” लिखी।

कुमारप्पा की अंतर्दृष्टि की प्रमुख बात यह थी कि किसी भी चीज का अस्तित्व उसके खुद के लिए नहीं होता है। उन्होंने लिखा है कि अगर आप सूक्ष्मता से ध्यान देंगे तो स्पष्ट होगा, “प्रकृति अपनी सभी इकाइयों के मध्य सामंजस्य व सहयोग को सुनिश्चित करती है, सभी अपने लिए कार्य करते हुए दूसरी इकाइयों को भी अपने साथ लाने के लिए उनकी सहायता करती हैं। जो गतिशील है, वह स्थिर की सहायता करती है, और जिसमें चेतना है, वह जड़ की सहायता करती है।” अगर हम एक-दूसरे पर निर्भरता की शृंखला को तोड़ने वाली हिंसा को रोक सकें, तो हमारे पास एक मजबूत अर्थव्यवस्था होगी। यह जागरुकता कोई दुर्लभ वस्तु नहीं है। यही कारण है कि हमने एक कॉर्पोरेट नेता के संस्मरण से शुरुआत की, जो बच्चों की कहानी और तरबूजों के प्रति उनके आनंद का सम्मान करता है। समस्या इस बात का पता लगाने में है कि इस जागरुकता को कैसे व्यवहारिक तरीके से लागू किया जाए। जैसा कि तरबूज की कहानी से यह साफ होता है कि हम प्रकृति को केवल व्यावसायिक वस्तु मानकर पूंजीकरण करने या केवल पवित्र मान कर उसे अछूता छोड़ देने के किसी द्विपक्षीय विकल्प का सामना नहीं कर रहे हैं। गांधीवाद कोई ऐसी विचारधारा नहीं है, जो एक अंधकारमय भविष्य की राह दिखाती हो। गांधी की सोच और कार्यों से हमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात सीखने को मिलती है कि जो वास्तव में मायने रखता है, आखिर उसे कैसे समझा या जाना जाए। इन सबसे बढ़कर, वह हमें अमूल्य बने रहने और विनाशक की बजाय पालक की भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करते हैं।

(रजनी बख्शी “बाजार्स, कंजर्वेशंस एंड फ्रीडम” किताब की लेखिका हैं)

-----------------------

नोट: डाउन टू अर्थ विशेष: डाउन टू अर्थ ने अक्टूबर 2019 में गांधी को एक पर्यावरणविद के रूप में जानने की कोशिश की और लेखों की पूरी एक श्रृंखला प्रकाशित की थी। गांधी जयंती मौके पर इस पत्रिका का पूरा अंक आप निशुल्क डाउनलोड कर सकते हैं। यह लिंक आपको एक दिन के लिए उपलब्ध है।