गंगा का उद्गम हिमालय, भारतीय दर्शन में दिव्यता और ध्यान का केंद्र है। फोटो: सीएसई 
जलवायु

खत्म हो रही एशियाई नदियों की संजीवनी, गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिन भी प्रभावित

शोधकर्ताओं ने पाया कि 3,000 से 6,000 मीटर की ऊंचाई पर स्नो ड्राउट सबसे तीव्र हैं, ऐसे में पहाड़ों की पूरी जलप्रणाली बदल सकती है

Vivek Mishra

हिंदुकुश हिमालय (एचकेएच) क्षेत्र की विशाल हिमाच्छादित चोटियां, जो सिंधु से लेकर मेकांग तक एशिया की दस प्रमुख नदियों को पानी देती हैं, अब पहले से कहीं तेजी से सिकुड़ रही हैं। वहीं, हिमालय भले ही सर्दियों में सफेद चमकता है, लेकिन वह चमक अब पहले से बहुत कम समय के लिए रहती है।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) जम्मू और आईआईटी मंडी के वैज्ञानिकों के नए शोध से पता चला है कि इस क्षेत्र में “स्नो ड्राउट” यानी असामान्य रूप से कम हिमपात की कमी की घटनाएं अब लगातार बढ़ रही हैं। इसका सीधा असर लगभग 200 करोड़ लोगों की जल सुरक्षा पर पड़ रहा है जो इन नदियों पर निर्भर हैं। इनमें भारत की जीवनदायिनी गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां भी संकट में हैं।

नेचर जर्नल में प्रकाशित शोध "हिमालयन स्नो ड्रॉट्स डीपेन, थ्रेटनिंग वाटर सीक्यूरिटी फॉर मिलियन्स" में पाया गया कि 2015-16 में मध्यम से गंभीर स्नो ड्राउट खासकर अफगानिस्तान और उत्तरी भारत में देखे गए। आईआईटी जम्मू के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के शोधकर्ता हेमंत सिंह के मुताबिक, “हमने पाया कि स्नो कवर डेज यानी हिमाच्छादित दिनों में कमी और तेजी से हिम का पिघलना इन सूखों का प्रमुख कारण हैं। यह मध्य और उच्च हिमालयी क्षेत्र में तापमान वृद्धि का स्पष्ट संकेत है।”

1999 से 2016 तक के सैटेलाइट और री-एनालिसिस डेटा का विश्लेषण करते हुए शोधकर्ताओं ने 500 मीटर के पैमाने पर स्नो वॉटर इक्विवेलेंट इंडेक्स (एसडब्ल्यूईआई) और हिमाच्छादित दिनों की संख्या (एससीडी) तैयार की। यह अब तक का हिमालयी स्नो ड्राउट का सबसे विस्तृत नक्शा है।

सबसे ज्यादा प्रभावित बेसिन

शोध के अनुसार, अफगानिस्तान के अमु दरिया, उत्तर-पश्चिमी और ऊपरी सिंधु बेसिन में सबसे ज्यादा स्नो ड्राउट घटनाएं दर्ज हुईं। उत्तर-पश्चिमी बेसिन में अकेले 25 बार तक स्नो ड्राउट दर्ज किया गया। गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसे पारंपरिक रूप से भारी हिमपात वाले बेसिनों में भी पिछले दो दशकों में औसतन 15 दिन तक हिमाच्छादित दिन कम हो गए।

नेचर ने आईआईटी जम्मू के सहायक प्रोफेसर दिव्येश वराडे के हवाले से लिखा है, “मौसमी हिमक्रीट इन बेसिनों के लिए प्राकृतिक जलाशय का काम करती है। जब यह जलाशय सिकुड़ता है तो कृषि, जलविद्युत उत्पादन और नदी प्रवाह के समय व मात्रा में बदलाव आता है। वसंत ऋतु में हिमगलन पर निर्भर किसान और समुदाय पहले से ही इसका असर महसूस कर रहे हैं।”

पहाड़ गर्म हो रहे हैं, बर्फ नहीं जम रही

हिंदुकुश हिमालय वैश्विक औसत से तेज गर्म हो रहा है। हालिया अनुमानों के अनुसार 0.74 डिग्री सेल्सियस ज्यादा। शोधकर्ताओं ने पाया कि 3,000 से 6,000 मीटर की ऊंचाई पर स्नो ड्राउट सबसे तीव्र हैं, जहां ऊंचाई-निर्भर वार्मिंग बर्फ को तेजी से पिघला रही है।

नेचर ने आईआईटी मंडी के सहायक प्रोफेसर विवेक गुप्ता के के हवाले से लिखा, “यह ऊंचाई बैंड सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि यहीं सबसे ज्यादा हिमसंचय होता है और लंबे समय तक बना रहता है। जब इस क्षेत्र में बर्फ की जगह बारिश होने लगेगी तो पहाड़ों की पूरी जल-प्रणाली बदल जाएगी।”

अब अधिकांश वर्षा बर्फ के बजाय बारिश के रूप में हो रही है, जिससे तुरंत बहाव (runoff) बढ़ रहा है और मौसमी बर्फ भंडारण कम हो रहा है।

हिमनदों से भी बड़ा खतरा

काठमांडू स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) के जलवायु एवं पर्यावरण जोखिम प्रमुख कियांगगोंग झांग कहते हैं, “हिमनदों का पीछे हटना एक धीमी रिसाव है, लेकिन स्नो ड्राउट अचानक नल बंद करने जैसा है।”

पश्चिमी हिमालय के किसान फसल बोने के समय देर से आने वाले हिमगलन जल पर निर्भर हैं। एक हफ्ते की कमी भी चरम जल आपूर्ति को प्रभावित कर सकती है। नेचर ने आईसीआईएमओडी के क्रायोस्फियर विशेषज्ञ शेर मुहम्मद के हवाले से लिखा, “सिंधु बेसिन में कुल बहाव का लगभग 40 फीसदी और हेलमंद बेसिन में 70 फीसदी से ज्यादा मौसमी हिमगलन से आता है यानी हिमनदों से सात गुना ज्यादा।”

चिंता के हॉटस्पॉट

शोध में अमु दरिया, सिंधु, मेकांग और साल्वीन बेसिन को सबसे ज्यादा जोखिम वाले क्षेत्र बताया गया है। ऊपरी सिंधु में 2002 से 2018 के बीच हिमाच्छादित दिन औसतन 12 कम हुए। नेचर ने लिखा है, झांग बताते हैं कि 2018 के बाद भी एमओडीआईएस सैटेलाइट डेटा से रिकॉर्ड कम हिमाच्छादन दिख रहा है। बार-बार विफलता अब स्पष्ट ट्रेंड बन चुकी है।

नीतियों में बदलाव की जरूरत

शोधकर्ता कहते हैं कि नीति-निर्माताओं को केवल हिमनद-केंद्रित दृष्टिकोण छोड़कर पूरे पर्वतीय जल चक्र को देखना होगा। हेमंत सिंह कहते हैं, “हिम को रणनीतिक जल संपत्ति की तरह देखना होगा। इसका नक्शा बनाना, संरक्षण करना और हिमगलन जल का कुशल प्रबंधन करना होगा।”

नेचर जर्नल में झांग और मुहम्मद के हवाले से कहा गया है कि जलविद्युत और सिंचाई योजनाकारों को मौसम पूर्वानुमान की तरह ही हिम की जानकारी का इस्तेमाल करना चाहिए। साथ ही हिमनद, मौसमी हिम, परमाफ्रॉस्ट, झरने और भूजल – पूरे क्रायोस्फियर-जल तंत्र को एकीकृत कर अनुकूलन रणनीति बनानी होगी। परमाफ्रॉस्ट पिघलने और झरने सूखने से पहाड़ी सड़कें और नहरें पहले से ही क्षतिग्रस्त हो रही हैं।

भविष्य का अंधेरा चित्र

यदि गर्मी इसी तरह बढ़ती रही तो आने वाले दशकों में हिमालय का “एशिया का जल मीनार” वाला दर्जा गंभीर खतरे में पड़ जाएगा। मॉडल बता रहे हैं कि मध्य ऊंचाई पर बर्फ कम समय तक रहेगी और अधिक वर्षा बारिश के रूप में होगी। कुछ बेसिनों में स्नो ड्राउट लगभग हर साल होने की आशंका है।गुप्ता के मुताबिक, “हर गायब हिमाच्छादित दिन का मतलब एक दिन कम संग्रहीत जल है।”