जलवायु

चरम मौसमी घटनाओं के कारण गंगा का उपजाऊ मैदानी क्षेत्र बन सकता है जलवायु का हॉटस्पॉट

विश्लेषण से पता चला है कि भविष्य में चरम मौसमी घटनाओं के मिश्रित प्रभाव से देश में पहले से कहीं ज्यादा लोग प्रभावित हो सकते हैं

Lalit Maurya

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और ऑग्सबर्ग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने अपने एक हालिया अध्ययन में खुलासा किया है कि आने वाले दशकों में गंगा और सिंधु के आसपास का उपजाऊ मैदानी क्षेत्र जलवायु में आते बदलावों के हॉटस्पॉट में तब्दील हो सकता है।

वैज्ञानिकों ने आशका जताई है कि भविष्य में भारत को पहले से कहीं ज्यादा चरम मौसमी घटनाओं का सामना करना पड़ सकता है। इनकी वजह से गंगा-सिंधु के आसपास का बेहद उपजाऊ क्षेत्र कहीं ज्यादा प्रभावित होगा। यह क्षेत्र पहले ही बढ़ती आबादी का दबाव झेल रहा है।

आशंका है कि इन चरम मौसमी घटनाओं के मिश्रित प्रभावों से साल दर साल करोड़ों लोगों के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। गौरतलब है कि इन चरम मौसमी घटनाओं में लू, भारी बारिश, बाढ़, सूखा, तूफान जैसी हाइड्रोक्लाइमैटिक घटनाएं शामिल हैं। अध्ययन के नतीजे जर्नल ऑफ हाइड्रोमेट्रोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि जिस तरह से वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है ये चरम मौसमी घटनाएं पहले से कहीं ज्यादा असामान्य और गंभीर रूप लेती जा रही हैं। यह आम लोगों के साथ-साथ, पारिस्थितिकी तंत्र और विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पहलुओं को भी प्रभावित कर रही हैं।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जल और जलवायु से जुड़ी मिश्रित चरम घटनाओं पर ध्यान केंद्रित किया है। यह घटनाएं तब घटित होती हैं, जब अलग-अलग चरम मौसमी स्थितियां एक ही समय में या निकट क्रम में घटित होती हैं। इसका एक उदाहरण सूखा है जो लू के साथ आता है। वहीं इसके विपरीत, भीषण गर्मी के बाद दिन या सप्ताह भर भारी बारिश हो सकती है।

इस बारे में ऑग्सबर्ग विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ क्लाइमेट रेसिलिएंस से जुड़े प्रोफेसर डॉक्टर हेराल्ड कुन्स्टमैन ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है कि इन चरम घटनाओं के संयोजनों से अक्सर गंभीर क्षति होती है। ऐसे में इस अध्ययन का उद्देश्य इस बात का आकलन करना था कि भविष्य में यह मिश्रित घटनाएं भारत में कितनी बार तबाही मचा सकती हैं और इनसे कौन से क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन की वजह से अतीत (1981 से 2020) से लेकर भविष्य में सदी के अंत तक मिश्रित चरम घटनाओं की वजह से आबादी पर मंडराते जोखिम का आंकलन किया है।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कोपुला नामक एक उन्नत सांख्यिकीय तकनीक का उपयोग किया है, जिसे शुरुआत में वित्तीय गणनाओं के लिए डिजाइन किया था। यह तकनीक विशिष्ट घटनाओं के एक साथ घटित होने की संभावना की गणना करती है।

इसका आमतौर पर उपयोग वित्तीय बाजारों में तेल और गैस से जुड़ी कीमतों की भविष्यवाणी करने के लिए किया जाता है। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में इस तकनीक की मदद इन मिश्रित घटनाओं का आंकलन करने के लिए ली है।  

इसका उपयोग करके वे इस बात का आंकलन कर सकते थे कि सूखा और भारी बारिश के साथ-साथ भीषण तापमान आम लोगों को कैसे प्रभावित कर रहा है और भविष्य में आने वाले दशकों के दौरान इन मिश्रित घटनाओं के घटने की आशंका कितना अधिक बढ़ जाएगी। 

यह पूरा अध्ययन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से जुड़े भविष्य के चार संभावित परिदृश्यों पर आधारित है। इनमें सबसे आशावादी परिदृश्य में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी का अनुमान लगाया गया है। वहीं सबसे कम अनुकूलन परिदृश्य में जीवाश्म ईंधन के बढ़ते दोहन की भविष्यवाणी की गई है।

इनमें से हर परिदृश्य में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के साथ-साथ भविष्य में जनसंख्या में होने वाली वृद्धि, संसाधनों के वितरण, तकनीकी प्रगति और जीवनशैली में आने वाले बदलाव को भी ध्यान में रखा गया है। ये परिदृश्य आने वाले भविष्य की वास्तविकताओं के लिए आंतरिक रूप से सुसंगत ब्लूप्रिंट के रूप में काम करते हैं।

परिदृश्य में इस बात का भी अनुमान लगाया गया है कि भविष्य में कितनी जनसंख्या होगी। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह पहलू अध्ययन के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इससे एक तरफ यह पता चलता है कि हर परिदृश्य में इन चरम मौसमी घटनाओं के घटने की आशंका कितनी होगी, मतलब की यह घटनाएं कितनी ज्यादा बार घटित हो सकती हैं।

दूसरी तरफ यह भी गणना की जा सकती है कि इन घटनाओं से कितने लोग प्रभावित होंगे। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जलवायु में आते बदलावों के हॉटस्पॉट को उजागर करने वाले मानचित्र भी तैयार किए हैं।

इन मानचित्रों में उन क्षेत्रों को दर्शाया गया है, जहां भविष्य में होने वाले विकास का आबादी पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने की आशंका है। जो नतीजे सामने आए हैं वो दर्शाते हैं कि इन सभी परिदृश्यों में भारतीय उपमहाद्वीप, विशेष रूप से सिंधु और गंगा नदियों के आसपास के निचले इलाकों को इन बदलावों और चरम मौसमी घटनाओं के गंभीर परिणामों का सामना करना पड़ेगा।

शोधकर्ताओं के मुताबिक सिंधु-गंगा का यह मैदान क्षेत्र आकार में स्पेन से डेढ़ गुना बड़ा है और यह पहले ही दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है। इतना ही नहीं भविष्य में भी यहां जनसंख्या में होती वृद्धि के जारी रहने की आशंका है।

यह तराई क्षेत्र बेहद उपजाऊ भी है, जहां धान और गेहूं जैसी प्रमुख फसलें उगाई जाती हैं। आशंका है कि वैश्विक तापमान में होती वृद्धि के चलते इन क्षेत्रों पर कहीं ज्यादा खतरा मंडराने लगा है। आशंका है कि भविष्य में भीषण गर्मी, सूखा और भारी बारिश के चलते इन फसलों की कुछ पैदावार नष्ट हो जाएगी।

सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में छह गुणा तक बढ़ जाएगा जोखिम

अध्ययन के मुताबिक देश के कई हिस्सों में आने वाले समय में सालाना करोड़ों लोग इन चरम घटनाओं के संयुक्त जोखिम का सामना करने को मजबूर होंगें। प्रोफेसर कुन्स्टमैन ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से बताया है कि सबसे अनुकूल परिदृश्य में भी, सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में लोग जलवायु परिवर्तन से गंभीर रूप से प्रभावित होंगे।

रिसर्च के मुताबिक घनी आबादी वाले क्षेत्रों में अतीत में शुष्क गर्मी की तुलना में भारी बारिश और गर्मी में अधिक बड़े बदलाव देखे गए हैं और भविष्य में भी ऐसा जारी रहने की आशंका है। रिसर्च के मुताबिक देश के कुछ हिस्सों में जिनमें सिंधु-गंगा के मैदान और सुदूर दक्षिण के तट शामिल हैं, वहां यह बदलाव छह गुणा तक अधिक हो सकते हैं।

यह भी आशंका है कि भविष्य में यह क्षेत्र इन चरम घटनाओं के हॉटस्पॉट बन सकते हैं। जलवायु और बढ़ती आबादी के सभी परिदृश्यों में इस बात की आशंका देखी गई है कि इन क्षेत्रों को सबसे ज्यादा जोखिम का सामना करना पड़ सकता है।

ऐसे में उनके मुताबिक इस अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो राजनीतिक निर्णय लेने और योजना बनाने में मददगार साबित हो सकते हैं। उन्होंने इससे बचने के लिए गर्मी और सूखे का सामना करने के काबिल बीजों में निवेश, बांधों का निर्माण जैसे उपायों की मदद से इसके लिए तैयार रहने पर जोर दिया है।

साथ ही उन्होंने बारिश के समय प्रचुर मात्रा में वर्षा जल को एकत्र करने की भी बात कही है। इससे एक तरफ जहां बाढ़ का खतरा घट जाएगा। वहीं सूखे के समय इस जल का उपयोग सिंचाई के लिए किया जा सकता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक ऐसे कई उपायों की मदद से भारत आने वाले बदलावों का सामना करने के लिए खुद को बेहतर ढंग से तैयार कर सकता है।

कुन्स्टमैन ने ग्लोबल वार्मिंग को धीमा करने की जरूरत पर भी बल दिया है, जो लू और सूखे के साथ-साथ बाढ़ के बढ़ते खतरों के लिए भी जिम्मेवार है।

साथ ही उन्होंने यह बात भी कही है कि हम इनके प्रभावों को पूरी तरह सीमित नहीं कर सकते। इसका मतलब है कि हमें इनके अनुकूलन बनना होगा। सेंटर फॉर क्लाइमेट रेजिलिएंस से जुड़े शोधकर्ता इन्हीं तरीकों और विश्लेषणों पर काम कर रहे हैं जो दर्शाते हैं कि तैयारी और अनुकूलन उपाय विशेष रूप से आवश्यक हैं और उन्हें कैसे लागू किया जा सकता है।