पिछले दिनों वैश्विक स्तर पर पृथ्वी के वायुमंडल में मौजूद ओजोन परत के संरक्षण के लिए "मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल: जलवायु कारवाई को आगे बढ़ाना" की थीम पर अंतर्राष्ट्रीय ओजोन दिवस मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने साल 1994 में 16 सितंबर को ओजोन परत के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस घोषित किया, तब से इसे हर साल ओजोन परत के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से मनाया जाता है।
यह आयोजन पारिस्थितिकी तंत्र के लिए सुरक्षात्मक ओजोन परत के महत्व पर प्रकाश डालता है और उस ऐतिहासिक समझौते की भी याद दिलाता है, जो आज से 37 साल पहले मॉन्ट्रियल शहर में ओजोन परत के क्षरण के जिम्मेदार पदार्थों के उत्पादन और उपयोग में समय सीमा के तहत कटौती करने का ना सिर्फ सामूहिक निर्णय लिया गया था, बल्कि आज सफल भी होता दिख रहा है। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल यह दर्शाता है कि वैज्ञानिक साक्ष्यों पर आधारित सामूहिक निर्णय और उसके अनुरूप सम्यक कारवाईयां प्रमुख वैश्विक चुनौतियों को हल करने का सबसे अच्छा तरीका है।
विश्व जलवायु संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने पहली बार 2018 में ओजोन परत को बचाने के प्रयास को सही दिशा में पाया। डब्ल्यूएमओ के वैज्ञानिक आकलन के अनुसार प्रोटोकॉल के तहत किए गए उपायों से ओजोन परत धीरे-धीरे अपने पुराने स्तर तक पहुंंच जाएगी।
उत्तरी गोलार्द्ध के मध्य में और खास कर आर्कटिक में ओजोन की संभावित वापसी साल 2035 के पहले, सदी के मध्य के आसपास दक्षिणी गोलार्द्ध के मध्य अक्षांश और 2060 तक अंटार्कटिक क्षेत्र में ओजोन की परत सामान्य हो जाएगी। आज साल 1980 के अपने सबसे बड़े ओजोन के छिद्र में बदल चुका सुरक्षात्मक परत अब धीरे-धीरे भरने लगा है।
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल एक आम सहमति के समझौते के रूप में शुरू हुआ जो धीरे-धीरे अगले तीन दशकों में ओजोन परत को ठीक करने के एक सफल वैश्विक तंत्र के रूप में विकसित हो चुका है। और इस प्रकार मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर्यावरण पर हुआ वैश्विक स्तर का पहला और एक मात्र सफल समझौता बन गया।
पृथ्वी के चारों तरफ विभिन्न गैसों के मिश्रण से बना वायुमंडल है जो एकसमान ना होकर कई परतों का बना है। धरती के सतह से वायुमंडल के दूसरे परत जिसे समताप मण्डल यानी स्ट्रेटोस्फियर कहते हैं, में ओजोन गैस 15 से 30 किलोमीटर की ऊंचाई के बीच प्राकृतिक रूप से काफी अधिक सघनता में पाई जाती है।
आम समझ के लिए ओजोन गैस की इतनी सघन मात्रा जो वायुमंडल में पाए जाने वाले ओजोन की कुल मात्रा का 90% से भी अधिक होता है, ओजोन परत के रूप में समझते हैं। ओजोन परत की सघनता और मोटाई मौसम और जगह के हिसाब से बदलती रहती है। ओजोन पृथ्वी पर जीवनदायी ऑक्सीजन का अपरूप है, जिसमें ऑक्सीजन के तीन परमाणु मिलकर इसे एक बहुत ही प्रतिक्रियाशील गैस बना देते हैं।
ओजोन की यह परत पृथ्वी पर आने वाली सूर्य की रोशनी में मौजूद कुछ उच्च आवृति और उर्जा वाली पराबैंगनी यानी अल्ट्रा वायलेट विकिरण (तरंगदैर्घ्य 310 नेनोमीटर) को सोख लेती है, और इस प्रकार पृथ्वी पर पराबैंगनी रहित विकिरण ही पहुँच पाती है। ये पराबैंगनी किरणें मनुष्य सहित जंतु और पौधों सहित जीवित ऊतकों को नुकसान पहुंचाती है।
इस प्रकार यह धरती पर जीवन के लिए छतरी का काम करती आयी है। समताप मण्डल के ओजोन परत की सघनता को ‘डॉबसन यूनिट’ में मापते हैं जो, इस परत की शुरुवाती शोध में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले मौसम विज्ञानी जी एम बी डोबसन के सम्मान में रखा गया है।
स्ट्रेटोस्फियर के खास ऊंचाई क्षेत्र (15-30 किलोमीटर) ओजोन प्राकृतिक रूप से ऑक्सीजन और पराबैगनी किरणों की प्रतिक्रिया से बनती है और पुनः तरह के एक प्रतिक्रिया में ओजोन ऑक्सीजन में बदल जाती है, और यह क्रम पिछले हजारों सालों से जारी है।
इस प्रकार वायुमंडल के इस खास ऊँचाई पर ओजोन की सघन मात्रा लगातार बनी रहती है। पर बीसवीं सदी के अंत आते-आते औद्योगीकरण का प्रभाव ओजोन परत पर भी पड़ा और यह कई जगहों पर पतली होने लगी। 1980 तक ओजोन परत में कमी होने की आधिकारिक पुष्टि हो चुकी थी। साल 1985 में पहली बार ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वेक्षण में अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन परत के बड़े स्तर पतले होने का पता चला, जिसे ओजोन "छिद्र" का नाम दिया गया।
तब तक ये भी पता चल चुका था कि ओजोन छिद्र का कारण क्लोरिन और ब्रोमिन जैसे हैलोजन गैसें हैं जो उच्च वायुमंडल में मौजूद ओजोन के प्राकृतिक रूप से बनने और नष्ट होने के संतुलन को बिगड़ रही है। ये दोनों गैसें मुख्य रूप से तब के रेफ्रिजरेसन और एयरोसोल स्प्रे में शीतलक के रूप में इस्तेमाल होने वाले क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) से बनती है, जो वायुमंडल के निचली परत ट्रोपोस्फीयर को पारकर स्ट्रेटोस्फियर में जा कर लम्बे समय तक ओजोन गैस का ह्रास करती रहती है।
ओजोन परत को नष्ट करने वाले मानव निर्मित पदार्थ को प्रचलित रूप से ‘ओएसडी’ के नाम से जानते है। ओएसडी’ में मुख्य रूप से रेफ्रिजरेशन और एयर कंडीशनिंग, फोम ब्लोइंग, एरोसोल, सॉल्वैंट्स के रूप में इस्तेमाल होने वाले रसायन शामिल हैं।
तात्कालिक खतरे को भांपते हुए जल्द ही 1987 में लगभग 200 देशों ने मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल,ओजोन परत को नष्ट करने वाले पदार्थों ओडीएस के उत्पादन और खपत को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना था, साथ ही साथ ओएसडी के विकल्प में भी वैसे रसायन को बढ़ावा देना था जो ओजोन परत को नष्ट न हो। यह समझौता जनवरी 1989 को लागू हुआ।
समझौते का पहला तीन दशक अन्य अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के इतर काफी सफल रहा। बाद में नए जरुरतों को तरजीह देते हुए 1 जनवरी, 2019 से किगाली संशोधन को लागू किया गया जिसके तहत 2040 के अंत तक क्लोरोफ्लोरोकार्बन के विकल्प के रूप में इस्तेमाल होने वाले हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी) को भी चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का प्रस्ताव है।
मोंट्रियल प्रोटोकॉल शुरू में ही विकसित और विकासशील की जरूरत और क्षमता का मूल्यांकल पर आधारित था, जो उस दौर में समय के आगे की बात थी। विकसित और विकासशील देश का झगड़ा आज भी लगभग सभी पर्यावरण सम्बंधित समझौतों के लम्बा खींचने और लक्ष्य से दूर हो जाने की जड़ में है, और इससे अछूता मौजूदा पेरिस जलवायु समझौता भी नहीं है।
इस समझौते के तहत, सभी पक्षों के पास ओडीएस के विभिन्न समूहों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने, ओडीएस व्यापार पर नियंत्रण, आंकड़ों की वार्षिक रिपोर्टिंग, ओडीएस के आयात और निर्यात की जांच करने के लिए राष्ट्रीय लाइसेंसिंग प्रणाली और अन्य मामलों से संबंधित विशिष्ट जिम्मेदारियां निर्धारित की गयी। और यही कारण था कि यह समझौता दुनिया के सभी देशों द्वारा अनुमोदित होने वाली पहली अंतर्राष्ट्रीय संधि थी।
ओजोन परत की सघनता मौसम के साथ-साथ बदलते रहता है, खास कर सर्दियों के कम तापमान और उच्च वायुमंडल में बनाने वाले ध्रुवीय भंवर के कारण इसकी सघनता काफी घट जाती है। यही कारण है कि दोनों ध्रुव आर्कटिक और अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन छिद्र का बनना एक वार्षिक घटना है।
भले ही ओएसडी का उत्सर्जन लगभग बंद कर दिया गया है, लेकिन वे कई दशकों तक वायुमंडल में बने रहेंगे। अभी भी आकाश में इतना क्लोरीन और ब्रोमीन मौजूद है जो अगले 35 सालों तक अंटार्कटिक के सुदूर आकाश में घटते क्रम में ही सही अगस्त से दिसम्बर तक ओजोन छिद्र बनाते रहेंगे। साल 2019 में बना ओजोन छिद्र, जब से इसकी खोज हुई है तब के मुकाबले सबसे छोटा था,जो ओडीएस के उत्पाद और उपयोग के नियंत्रण से हुई सफलता का सूचक है।
ओडीएस ओजोन परत को नष्ट करने के साथ साथ प्रभावी ग्रीनहाउस गैसें भी हैं और वर्षों से वायुमंडल में इनकी प्रचुरता ने वैश्विक उष्मन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। चूंकि ओजोन का वितरण और सघनता तापमान और परिसंचरण पर निर्भर करता है और वायुमंडल में बढ़ते ग्रीन हाउस के कारण जहाँ धरती का तापमान बढ़ता है वही ओजोन परत वाले वायुमंडल का तापमान घटता है।
ऐसी परिस्थितियाँ ओजोन परत के क्षय होने के अनुकूल होती है। जहाँ मोंट्रियल प्रोटोकॉल ओजोन परत के भरपाई की आशा देता है वही ग्रीन हाउस उत्सर्जन की कमी में नाकामी एक बार फिर से ओजोन परत के नष्ट होने की ओर इशारा करता है। नेचर में प्रकाशित एक शोध के अनुसार सघन ओजोन परत ना सिर्फ परावैगनी विकरण से पेड़-पौधों की रक्षा करता है बल्कि उनके कार्बन सोखने की क्षमता को बरक़रार रखता है, या यह कहे कि ओजोन परत का बरक़रार रहना जलवायु संकट से बचाव का भी एक तरीका है।
कुल मिलकर वैश्विक उष्मन, जलवायु परिवर्तन और ओजोन परत का क्षय एकदूसरे से गुथम गुथा है, पेरिस जलवायु समझौते में किसी भी स्तर की ढिलाई मोंट्रियल प्रोटोकॉल से मिली सफलता को प्रभावहीन बना सकती है।
मोंट्रियल प्रोटोकॉल के तहद ओडीएस के उत्पादन और उपयोग में समय रहते कमी के लक्ष्य हसिल कनने की सफलता को पर्यावरण सम्बन्धी किसी वैश्विक समझौते के लिए एक केस स्टडी के तरह मान सकते हैं, ताकि मौजूदा दौर की सारी अड़चनो को न सिर्फ समझा जाय बल्कि उसे स्वीकार कर आगे बढ़ा जाय।
इस अड्चानो में मुख्य रूप से विकसित और विकासशील, नार्थ और साउथ, गरीब और अमीर देश का नजरिया शामिल है। हालाकि “क्षमता के अनुरूप समान परन्तु अलग अलग जिम्मेदारियों” का सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के मूल में है पर व्याहारिक रूप से इस उद्दे प् सहमती बन नहीं पा रही है। तभी तो संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस इस बात को रेखांकित करते हैं कि “मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत हमने जो सहयोग देखा है, वह बिल्कुल वैसा ही है जिसकी अब जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ज़रूरत है, जो हमारे लिए एक समान रूप से अस्तित्वगत ख़तरा है”।