दक्षिण एशिया में हिमालय के ग्लेशियरों का लगातार सिकुड़ना दुनिया भर में चिंता का विषय बना हुआ है। उनके जल विज्ञान के महत्व के कारण, ऊपरी सिंधु बेसिन (यूआईबी) के ग्लेशियर विशेष ध्यान देने योग्य हैं क्योंकि वे पर्वत घाटियों और आसपास के निचले इलाकों में ताजे पानी की आपूर्ति में अहम भूमिका निभाते हैं। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए ग्लेशियरों में किस तरह का बदलाव हो रहा है इस पर एक अध्ययन किया गया है, विशेष तौर पर हिमालय में स्थित नंगा पर्वत के ग्लेशियरों पर।
नंगा पर्वत के ग्लेशियर दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ों में से एक हैं। जो 1930 के दशक से थोड़ा-थोड़ा कर लगातार सिकुड़ रहे हैं। सतह क्षेत्र में इस नुकसान के बारे में हीडलबर्ग विश्वविद्यालय के दक्षिण एशिया संस्थान के शोधकर्ताओं द्वारा लंबे समय तक किए गए अध्ययन के माध्यम से पता लगाया है। भूगोलवेत्ताओं ने ऐतिहासिक तस्वीरों, सर्वेक्षणों और स्थलाकृतिक मानचित्रों को वर्तमान आंकड़ों के साथ जोड़ कर देखा, जिससे उन्हें उत्तर-पश्चिमी हिमालय में 1800 के दशक के मध्य के बाद ग्लेशियरों के द्रव्यमान में बदलाव दिखाई दिया।
ऐतिहासिक आंकड़ो की कमी, हिमालयी क्षेत्र में उपग्रह के आंकड़ों की उपलब्धता से पहले की लंबी अवधि के आंकड़ों के न होने से ग्लेशियरों का अध्ययन करना बहुत मुश्किल है। लेकिन दक्षिण एशिया संस्थान के प्रो. डॉ. मार्कस नुसर बताते हैं, नंगा पर्वतमाला के मामले में ऐसा नहीं है।
सबसे पहले 1856 के दौरान शोध अभियान किया गया था। दस्तावेजों में इस शोध अभियान के दौरान बनाए गए स्केच मैप और चित्र शामिल हैं। इस ऐतिहासिक डेटा के आधार पर, हीडलबर्ग शोधकर्ताओं ने नंगा पर्वत के दक्षिण के अगले भाग के साथ ग्लेशियर में हो रहे बदलावों का पुनर्निर्माण किया।
इसके अतिरिक्त, 1934 से यहां चढ़ाई करने और वैज्ञानिक अभियानों के दौरान ली गई कई तस्वीरें और स्थलाकृतिक मानचित्र भी हैं। इनमें से कुछ ऐतिहासिक तस्वीरों को 1990 और 2010 के दशक में तुलना के उद्देश्य से लिया गया था। 1960 के दशक की सैटेलाइट छवियों के द्वारा डेटाबेस को पूरा किया गया है। इसका उपयोग प्रो. नुसर और उनकी टीम ने मल्टीमीडिया अस्थायी विश्लेषण बनाने और ग्लेशियरों में हो रहे बदलावों को मापने के लिए किया।
मुख्य रूप से नंगा पर्वत के ग्लेशियर बर्फ और हिमस्खलन से बनते हैं, इनके पीछे हटने की दर अन्य हिमालयी क्षेत्रों की तुलना में काफी कम है। इसके विपरीत एक अपवाद मुख्य रूप से बर्फ से ढका रूपल ग्लेशियर है, जिसकी पीछे हटने की दर काफी अधिक है। प्रो. नुसर ने कहा कि कुल मिलाकर इन उच्चे पर्वतीय इलाके में ग्लेशियर की गतिशीलता पर हिमस्खलन गतिविधि के विशेष प्रभाव को बेहतर ढंग से समझने के लिए और अधिक अध्ययन की आवश्यकता है।
शोधकर्ता विशेष रूप से ग्लेशियरों में आने वाले उतार-चढ़ाव, बर्फ की मात्रा में बदलाव और ग्लेशियर की सतहों पर मलबे से ढके क्षेत्रों की वृद्धि की जांच करना चाहते हैं। उनके विश्लेषण में 1934 में पहले से ही दर्ज किए गए 63 ग्लेशियर शामिल थे। प्रो. नुसर ने बताया कि हमारे विश्लेषणों से पता चला है कि बर्फ से ढके क्षेत्र में लगभग 7 फीसदी की कमी आई है और 3 ग्लेशियर पूरी तरह से गायब हो गए हैं। साथ ही हमने मलबे में उल्लेखनीय वृद्धि देखी है। यह अध्ययन जर्नल साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशित हुआ है।
काराकोरम की सीमा के पास हिमालय के गोल भाग के उत्तर पश्चिम में नंगा पर्वतमाल की भौगोलिक स्थिति तुलनात्मक रूप से ग्लेशियर पीछे हटने को कम करने में एक विशेष भूमिका निभा सकती है। काराकोरम विसंगति के रूप में जानी जाने वाली घटना में, इस पर्वत श्रृंखला में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप किसी बड़े ग्लेशियर के पीछे हटने की पहचान नहीं की गई है, यह दुनिया में हर जगह से अलग है।
प्रो. नुसर बताते हैं कि अधिक ऊंचाई पर होने के कारण ऐसा हो सकता है, लेकिन इसके सटीक कारण की जानकारी अभी भी नहीं है। शोधकर्ताओं का मानना है कि काराकोरम और नंगा पर्वत क्षेत्र में कम बर्फ का नुकसान होने के पीछे एक कारण सुरक्षा भी हो सकती है। यहां बड़े पैमाने पर मलबा फैला है और खड़ी किनारों से साल भर हिमस्खलन होते रहता है।
अध्ययन स्थानीय छवियों और रिमोट सेंसिंग इमेजरी के साथ ऐतिहासिक सामग्री को एकीकृत करने की प्रमुख क्षमता को दिखाता है ताकि एक लंबे समय की अवधि में ग्लेशियर के विकास का पुनर्निर्माण किया जा सके, जो कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए आवश्यक है।