जलवायु

आईपीसीसी संश्लेषण रिपोर्ट के छह प्रमुख संदेश: 1.5 डिग्री सेल्सियस पर अंतिम चेतावनी जारी

यह रिपोर्ट जलवायु में आते बदलावों और उससे जुड़ी नीतियों के मामले में पांच वर्षों के शोध का निचोड़ है। जो बेहतर कल के लिए एक स्पष्ट रोडमैप प्रस्तुत करती है

Avantika Goswami, Lalit Maurya

जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने आज यानी 20 मार्च 2023 को अपनी नवीनतम संश्लेषण रिपोर्ट (एसवाईआर) जारी कर दी है। यह रिपोर्ट इससे पहले आईपीसीसी द्वारा जलवायु में होते बदलावों पर जारी की गई छह रिपोर्टों के निष्कर्षों का सार प्रस्तुत करती है, जो छठे मूल्यांकन का हिस्सा है।

इस कड़ी में पहली रिपोर्ट 2018 में तापमान पर होती डेढ़ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पर, इसके बाद 2019 में भूमि और महासागरों पर प्रकाशित विशेष रिपोर्ट और 2021 और 2022 के बीच जारी तीन मूल्यांकन रिपोर्टों के बाद इस कड़ी का अंतिम हिस्सा है। इस रिपोर्ट को यूक्रेन-रूस संघर्ष के बाद पनपे वैश्विक ऊर्जा संकट और उससे उपजे वैश्विक उथल पुथल को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत किया गया है।

यह पिछले वर्ष मिस्र के शर्म-अल-शेख में हुए जलवायु सम्मेलन कॉप-27 में विचार किए गए मुद्दों को भी उजागर करती है। जहां जलवायु पीड़ितों के लिए हानि व क्षति को ध्यान  में रखते हुए कोष स्थापित करने की बात कही गई थी। साथ ही जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से हटाने और वैश्विक वित्तीय प्रणाली में सुधार जैसे मुद्दों पर चर्चा हुई थी। इस रिपोर्ट में जो महत्वपूर्ण बाते कही गई हैं उसमें यह छह प्रमुख हैं:

I. इंसानी हस्तक्षेप के चलते पहले ही हो चुकी है तापमान में 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि:

आईपीसीसी का कहना है कि मानव गतिविधियों ने 'असमान रूप से' बढ़ते तापमान को हवा दी है। इसके चलते इंसानों द्वारा किया जा रहा शुद्ध वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़कर 59 गीगाटन पर पहुंच गया है, जोकि 1990 के स्तर से 54 फीसदी ज्यादा है।

देखा जाए तो इस उत्सर्जन के चलते वैश्विक तापमान में पहले ही 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। इसका प्रभाव जमीन और महासागरों दोनों पर पड़ा है। हालांकि इस उत्सर्जन में बड़ी असमानता है। जो देश और आय के आधार पर अलग-अलग है। आंकड़ों के मुताबिक जहां वैश्विक आबादी का 35 फीसदी हिस्सा उन देशों में बसता है जहां प्रति व्यक्ति उत्सर्जन नौ टन कार्बन डाइऑक्साइड से भी ज्यादा है। वहीं 41 फीसदी आबादी उन कम उत्सर्जन करने वाले देशों में रह रही है जहां प्रति व्यक्ति उत्सर्जन तीन टन कार्बन डाइऑक्साइड से भी कम है। देखा जाए तो मौजूदा समय में वैश्विक उत्सर्जन इतिहास के अपने उच्चतम शिखर पर पहुंच चुका है। वहीं जलवायु प्रभाव अर्थव्यवस्थाओं और समाज को तबाह कर रहा है।

II. मौजूदा नीतियों के तहत तापमान में वृद्धि होना तय है, जो इंसानों सहित अन्य जीवों पर व्यापक प्रभाव डालेगी और समय के साथ स्थिति कहीं ज्यादा गंभीर हो जाएगी:

अक्टूबर 2021 तक देशों ने राष्ट्रीय स्तर पर जो योगदान निर्धारित (एनडीसी) किए हैं उससे इस बात की पूरी आशंका है कि सदी में ही तापमान में होती वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगी।

इतना ही नहीं अनुमान है कि हालात इतने बदतर हो जाएंगे कि ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना मुश्किल हो जाएगा। ग्लोबल वार्मिंग में होती इस वृद्धि के चलते जलवायु से जुड़ी आपदाएं कहीं ज्यादा व्यापक और स्पष्ट हो जाएगी।

इसके साथ ही जमीन और समुद्र को कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने की क्षमता भी गिरती जाएगी। साथ ही समुद्र के अम्लीकरण में भी वृद्धि होने की आशंका है। नतीजन सूखे और लू की घटनाएं कहीं ज्यादा विकराल रूप ले लेंगी। एक बार टिपिंग पॉइंट्स तक पहुंचने के बाद जलवायु प्रणाली में कुछ ऐसे बदलाव होंगें जिनको पलटना लगभग नामुमकिन होगा।

ग्रीनलैंड और वेस्ट अंटार्कटिक में जमा बर्फ की चादरों को होने वाला नुकसान ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। इतना ही नहीं अनुकूलन के जो विकल्प हैं वो भी व्यवहार्यता की सीमा तक पहुंच सकते हैं। इससे कहीं ज्यादा नुकसान और क्षति झेलनी पड़ सकती है।

III. उत्सर्जन के मौजूदा स्तर पर हम जल्द ही शेष कार्बन बजट को समाप्त कर देंगे:

अनुमान है कि 2020 की शुरुआत में, हमारे पास करीब 500 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर शेष कार्बन बजट बचा था। हालांकि इस बजट में भी तापमान को एक से 1.5 डिग्री सेल्सियस के बीच सीमित रखने की संभावना केवल 50 फीसदी थी।

ऐसे में रिपोर्ट के अनुसार यदि 2020 से 2030 के बीच वार्षिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन 2019 के स्तर पर रहता है तो तापमान को तय सीमा में रखने की आशाएं भी धूमिल होती जाएंगी।

VI. हमें इस दशक में ही सभी क्षेत्रों से होने वाले उत्सर्जन में तत्काल कटौती करने की आवश्यकता है:

देखा जाए तो यदि 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने की संभावनाओं को बनाए रखना है तो हमें इस दशक में सभी क्षेत्रों से होने वाले उत्सर्जन में तत्काल कटौती करने की जरूरत है।

देखा जाए तो इसके लिए 2019 के स्तर की तुलना में 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 43 फीसदी की कटौती करने की जरूरत है। इसी तरह बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में भी 48 फीसदी की कटौती करना जरूरी है। वहीं 2050 की शुरुआत तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के मामले में नेट जीरो का लक्ष्य होना चाहिए।

यदि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य पहुंच से बाहर होने लगे तो कार्बन डाइऑक्साइड हटाने के लिए सीडीआर प्रौद्योगिकियों को तैनात किया जा सकता है। लेकिन साथ ही इसे बड़े पैमाने पर तैनात किए जाने से पहले इनकी व्यवहार्यता और स्थिरता संबंधी चिंताओं, के साथ सामाजिक और पर्यावरणीय जोखिमों को भी ध्यान में रखना जरूरी है।

V. हमारे पास निम्न-कार्बन आर्थिक प्रणालियों की ओर रुख करने के लिए सभी आवश्यक समाधान पहले ही हैं:

देखा जाए तो उत्सर्जन को निरंतर कम करने के लिए हमें सभी क्षेत्रों में गहरे प्रणालीगत परिवर्तन करने की आवश्यकता है। इनमें से कुछ में व्यापक विद्युतीकरण, अधिक पवन, सौर का उपयोग, छोटे पैमाने पर जल विद्युत को शामिल करने के साथ ऊर्जा उत्पादन में विविधता लाना शामिल है।

साथ ही बैटरी से चलने वाले इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग करना और उष्णकटिबंधीय वनों की कटाई को कम करते हुए वनों के संरक्षण और बहाली पर ध्यान देना शामिल हैं। अच्छी खबर यह है कि जलवायु शमन और अनुकूलन के लिए व्यवहार्य, प्रभावी और कम लागत वाले विकल्प पहले ही उपलब्ध हैं। हालांकि क्षेत्रों और प्रणालियों के आधार पर इनमें कुछ अंतर जरूर है।

रिपोर्ट के अनुसार जलवायु शमन के कई विकल्प, विशेष रूप से सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, शहरी प्रणालियों का विद्युतीकरण, शहरों में पर्यावरण अनुकूल बुनियादी ढांचा, ऊर्जा दक्षता, बेहतर वनऔर फसल/ चरागाह प्रबंधन, खाद्य पदार्थों की बर्बादी और नुकसान पर रोक आज तकनीकी रूप से व्यवहार्य हैं। यह विकल्प तेजी से लागत प्रभावी हो रहे है और आम तौर पर जनता द्वारा समर्थित हैं।

VI: इन बदलावों के लिए राजनैतिक प्रतिबद्धता और इक्विटी महत्वपूर्ण हैं। पर्याप्त वित्त उपलब्ध है बस उसे जलवायु कार्रवाई के लिए निर्देशित करने की आवश्यकता है:

जलवायु अनुकूल विकास के इक्विटी महत्वपूर्ण है। रिपोर्ट में प्रकाश डाला है कि "अनुकूलन और न्यूनीकरण से जुड़ी क्रियाएं, जो समानता, सामाजिक न्याय, जलवायु न्याय, अधिकार-आधारित दृष्टिकोण और समावेशिता को प्राथमिकता देती हैं, अधिक स्थाई परिणामों की ओर ले जाती हैं। यह परिवर्तनकारी बदलावों का समर्थन करती हैं और जलवायु अनुकूल विकास को आगे बढ़ाती हैं।"

जिस तरह उच्च आय वर्ग उत्सर्जन में असमान रूप से योगदान देता है। इसी तरह उसमें उत्सर्जन को कम करने की भी सबसे ज्यादा क्षमता होती है। विकासशील देशों में प्रौद्योगिकी विकास, उसका हस्तांतरण, क्षमता निर्माण और वित्तपोषण की आवश्यकता है ताकि कम-उत्सर्जन करने वाली प्रणालियों की तरफ रुख किया जा सके और उसके साथ मिलने वाले लाभों का फायदा उठाया जा सके।

देखा जाए तो इसे राजनैतिक प्रतिबद्धता से मुमकिन किया जा सकता है। विशेष रूप से क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु शमन के लिए, सरकारों द्वारा संचालित विनियामक उपकरण उत्सर्जन में अच्छी-खासी कमी का समर्थन कर सकते हैं। दूसरी ओर कार्बन मूल्य निर्धारण उपकरण, जो बाजार आधारित हैं, कम प्रभावी रहे हैं।

रिपोर्ट का निष्कर्ष कहता है कि, "निवेश में मौजूद वैश्विक अंतराल को भरने के लिए पर्याप्त पूंजी है।" सिर्फ हमें इस पूंजी को जलवायु कार्रवाई की ओर पुनर्निर्देशित करने और उसके रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करने की जरूरत है।

रिपोर्ट में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों के लिए तुरंत वित्तीय सहायता की जरूरत है। इसमें सार्वजनिक अनुदान-आधारित वित्त पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।