जलवायु

जलवायु परिवर्तन नहीं, जलवायु प्रलय कहिए

जलवायु आपातकाल वास्तविक है हमें इसके प्रलय से बचने के लिए वास्तविक कार्रवाई की ओर कदम बढ़ाना होगा

Chandra Bhushan

ब्रिटेन के प्रमुख अंग्रेजी दैनिक अखबार द गार्डियन ने तय किया है कि वह जलवायु परिवर्तन के नाम में बदलाव करेगा। जलवायु परिवर्तन का नया नाम जलवायु आपातकाल, जलवायु संकट या किसी दुर्घटना और बाधा के कारण होने वाली रुकावट यानी ब्रेकडाउन हो सकता है। यह नया नाम वैश्विक तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) के बजाए ग्लोबल हीटिंग यानी (वैश्विक स्तर पर तप रही धरती) के एकदम अनुरूप होगा।

इस बदलाव को लेकर गार्डियन के प्रमुख संपादक कैथरीन विनर कहते हैं कि मानवता के लिए जिस प्रलय को लेकर वैज्ञानिक बातचीत कर रहे हैं उसे जलवायु परिवर्तन शब्द ठीक से समझाता या परिभाषित नहीं करता है। यह शब्द वास्तविक अर्थ या परिणाम के करीब पहुंचाने में विफल है। जलवायु परिवर्तन शब्द की ध्वनि संभावित खतरे के प्रति आगाह करने के बजाए निष्क्रिय और कोमल है। गार्डियन अकेला अखबार नहीं है जिसने जलवायु परिवर्तन के प्रति अपने नजरिए और भाषा में बदलाव के बारे में सोचा है। पूरी दुनिया में यह समझ और मत तैयार हुआ है कि जलवायु प्रलय (क्लाइमेट कटैस्ट्रफी) के लिए कुछ कठोर कदम उठाए जाने की जरूरत है।

यह सब कुछ शुरु हुआ था जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) की 1.5 डिग्री सेल्सियस वैश्विक तापमान संबंधी विशेष रिपोर्ट के साथ। रिपोर्ट में जलवायु प्रलय से बचने के लिए महज 12 वर्षों में तापमान बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने की बात कही गई है। तभी से अब तक प्रकाशित होने वाली सभी वैज्ञानिक रिपोर्ट इस बात का इशारा करती हैं कि हम एक भीषण संकट की ओर बढ़ रहे हैं।

जैवविविधता और पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं को लेकर अंतरसरकारी विज्ञान-नीति मंच (आईपीबीईएस) की हालिया जारी रिपोर्ट यह बताती है कि हमारी पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत, अर्थव्यवस्था, आजीविका, खाद्य सुरक्षा, सेहत और जीवन गुणवत्ता में बहुत तेजी से क्षरण हो रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि इससे पहले गिरावट की यह रफ्तार नहीं देखी गई। करीब दस लाख पशु और वनस्पितयों की प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। वहीं, इसमें से कई हजार प्रजाति एक दशक में ही खत्म हो सकती है। ऐसा क्षरण मानव इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। वहीं, रिपोर्ट के मुताबिक इस विलुप्ति के खतरे में वैश्विक ताप (ग्लोबल वार्मिंग) की बड़ी भूमिका है।

रिपोर्ट और वैज्ञानिकों के इन खतरनाक संकेतों के बीच विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध एक जमीनी आंदोलन भी उभरता हुआ दिखाई दे रहा है। इन आंदोलनों में पूरे जोर-शोर से उत्सर्जन में भारी कटौती की मांग उठाई जा रही है।

स्वीडन की एक स्कूल छात्रा ग्रेटा थनबर्ग ने जलवायु परिवर्तन के लिए तत्काल कार्रवाई की मांग की है। वहीं, बीते वर्ष यूरोप में कई हजार लोगों ने स्कूलों और कक्षाओं से बाहर निकलकर प्रत्येक महीने दिन भर के लिए जलवायु परिवर्तन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया है।

एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन एक्सटींक्शन रीबिलियन ने आक्रामक तरीके से अपनी मांगों के लिए मध्य लंदन की रफ्तार को दस दिनों तक रोक कर रखा। इनके विरोध के चलते यूके की संसद पर दबाव कायम किया कि वे राष्ट्रीय जलवायु आपातकाल घोषित करें। जलवायु आपातकाल की घोषणा और उससे लड़ने की रणनीति का खाका तैयार करने को लेकर आवाज उठाने वाले कार्यकर्ता सरकार के साथ स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रहे हैं। खासतौर से ग्रीन हाउस गैस (सीएचजीएस) के उत्सर्जन को पूरी तरह से खत्म किए जाने की बात हो रही है। तपती धरती के लिए इस गैस का बहुत बड़ा प्रभाव है।

स्कॉटलैंड पहले ही जलवायु आपातकाल घोषित कर चुका है। वहीं, वह ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को 2045 तक पूरी तरह से खत्म करने के लिए लक्ष्य तय कर रहा है। न्यूजीलैंड की संसद जल्द ही इस दिशा में अपने कदम बढ़ा सकती है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि भारत इस दिशा में क्या कर रहा है? क्या जलवायु आपातकाल को लेकर कठोर कदमों के अनुरूप लोगों का मत है? दुर्भाग्यवश नहीं।

जलवायु आपातकाल को खुद-ब-खुद बेहद छोटी पहचान मिली है। पर्यावरण के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संस्थान (एनजीओ) और विचारवान लोग विकसित और विकासशील देशों की राजनीति और आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हुए हैं। नौकरशाही यथास्थिति के अलावा कुछ भी बेहतर नहीं मानती है। वहीं, हमारे राजनेता इस मुद्दे पर बहुत थोड़ी सी समझ रखते हैं। इनकी गंभीरता को इसी तथ्य से आंका जा सकता है कि पूरे चुनाव प्रचार और अभियान के दौरान एक भी शीर्ष नेता के जरिए एक बार भी जलवायु परिवर्तन शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया।

लेकिन जलवायु आपातकाल है और हम बहुत जल्द ही इसे बहुत अच्छी तरह से पहचान लेंगे। जरा देश के अलग-अलग भागों में बीते एक महीने के दौरान हुई अतिशय (एक्स्ट्रीम) मौसम वाली स्थितियों को यदि जांचिए परखिए :

  • मई के शुरुआत में ही चक्रवात फोनी पूर्वी तट से टकराया है। क्योंकि भारतीय मौसम विभाग ने गलती से एक बेहतर अनुमान लगा लिया इसके चलते हम हजारों जिंदगियों को बचा पाए। लेकिन चक्रवात फोनी के कारण उड़ीसा में होने वाला आर्थिक नुकसान 50,000 करोड़ रुपये को पार कर गया है। उड़ीसा को दोबारा निर्माण में और लोगों को गरीबी के दलदल से बाहर निकालने में काफी वक्त लगेगा।
  • महाराष्ट्र में 72 फीसदी और कर्नाटक के 80 फीसदी जिले सूखे की मार व फसलों का नुकसान झेल रहे हैं।
  • देश के अलग-अलग भाग लू की चपेट में है। इमनमें उत्तर प्रदेश, केरल, तेलंगाना, महाराष्ट्र शामिल हैं।
  • पश्चिमी विक्षोभ के कारण धूल और आंधी ने पश्चिम, मध्य और उत्तर भारत को अस्थिर कर रखा है। करीब 64 लोगों की जानें (फोनी के बराबर) गई हैं। इनमें ज्यादातर लोग राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के थे।

वैश्विक तापमान में वृद्धि के साथ ही यह सब कुछ और वीभत्स होने जा रहा है। हम कुछ ही वर्षों में 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि वाले तापमान के आंकड़े को छू लेंगे। यह हमारे हित में होगा कि हम उत्सर्जन को कम करें। वहीं, अपनी अर्थव्यवस्था, संरचना और पारिस्थितिकी तंत्र को वापस पठरी पर लाएं। नई सरकार यदि जलवायु आपातकाल को ठीक से नियंत्रित करना चाहती है तो उसे यह कदम उठाने होंगे –

विद्युत की हिस्सेदारी: परिवहन और खाना पकाने आदि जैसे क्षत्रों में 80 फीसदी ऊर्जा स्रोत बिजली को ही बनाना होगा। अभी विभिन्न क्षेत्रों में ऊर्जा स्रोत के तौर पर बिजली की हिस्सेदारी सिर्फ 20 फीसदी है। वहीं समूचे ऊर्जा क्षेत्र को कार्बन रहित बनाना होगा। अक्षय ऊर्जा को लोगों की पहुंच लायक बनाना होगा। सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा जरिए लोगों की बिजली पूर्ति होगी।

संरक्षण: पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण करने के साथ अतिशय मौसम से बचाव के लिए सुरक्षा जाल को भी मजबूत करना होगा। कई लाख लोगों की फसलें, घर और व्यापार हर वर्ष बर्बाद हो जाते हैं।

निगरानी: मौसम की निगरानी, पूर्वानुमान और चेतावनी तंत्र को बेहद मजबूत और लोगों की पहुंच वाला बनाना होगा।

और अंत में यह कि जलवायु आपातकाल वास्तविक है हमें इसके प्रलय से बचने के लिए वास्तविक कार्रवाई की ओर कदम बढ़ाना होगा।

(लेखक दिल्ली स्थित सेंटर फार साइंस एंड एनवायरमेंट में उपनिदेशक हैं)