जलवायु

उपग्रह बता सकते हैं कि कब होगा हिमस्खलन:अध्ययन

अध्ययन के मुताबिक उपग्रह के चित्रों से खतरनाक हिमालयी हिमस्खलन की निगरानी की जा सकती है, जिससे पर्वतीय इलाकों में रहने वाले लोगों को इसके खतरों से बचाया जा सकता हैं

Dayanidhi

हाल के वर्षों में दुनिया भर में बार-बार होने वाली हिमस्खलन की घटनाएं सामने आ रही हैं। इसी तरह की एक घटना 7 फरवरी 2021 को भारत के हिमालयी इलाके में चमोली जिले के तपोवन में हुई थी। हिमस्खलन के कारण लंबी दूरी तक बर्फ के एक साथ भारी मात्रा में पिघलने से अचानक आई बाढ़ ने इस इलाके में जान मॉल को काफी नुकसान पहुंचाया था।

अध्ययनकर्ताओं ने कहा कि उपग्रह के चित्रों से खतरनाक हिमालयी हिमस्खलन की निगरानी की जा सकती है। जिससे सबसे दूर पर्वतीय इलाकों में रहने वाले लोगों को हिमस्खलन के खतरों से बचाया जा सकता हैं। इस बात का अध्ययन एबरडीन के वैज्ञानिक लगातार कर रहे हैं।

यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ जियोसाइंसेज की टीम ने 2016 और 2021 में हुई हिमस्खलन की दो घटनाओं की गतिविधियों का अध्ययन करने के लिए उपग्रह चित्रों या सैटेलाइट इमेजिंग का इस्तेमाल किया। हिमस्खलन की ये दो घटनाएं हिमालयी घाटी में हुए थे। इनमें से सबसे गंभीर, जिसने पिछले साल 7 फरवरी को एक उच्च-पहाड़ी बस्ती को अपने आगोश में ले लिया था, इस जगह पर 200 से अधिक लोग मारे गए और इसने प्रमुख बुनियादी ढांचे को नष्ट कर दिया था।

उपग्रह के आंकड़ों और मॉडलिंग का उपयोग करके, टीम ने पाया कि 2016 के हिमस्खलन और उसके बाद के मौसमी हिमस्खलन से शेष तलछट ने पिछले साल के हिमस्खलन की गंभीरता को बढ़ा दिया था।  

उन्होंने 2016 के हिमस्खलन से पहले ग्लेशियर पर असामान्य सतह की गतिविधियों का पता लगाया, जो एक उभरते हुए खतरे का संकेत था। यह इस दिलचस्प संभावना को खोलता है कि भविष्य में इसी तरह के खतरों की चेतावनी के लिए उपग्रह के आंकड़ों के विश्लेषण का उपयोग किया जा सकता है, जो पर्वतीय इलाकों में रहने वाले लोगों को अधिक सुरक्षा प्रदान करता है।

अध्ययन करने वाली टीम का कहना है कि अतीत में हिमस्खलन के बारे में अनुमान लगाना क्षेत्र-आधारित अवलोकन तो प्रभावी साबित हुए हैं, लेकिन दूरदराज के पर्वतीय क्षेत्रों में संचालन की कठिनाइयों और जोखिमों के कारण किसी भी व्यापक पैमाने पर ऐसा करना मुश्किल है।

हालांकि उनके शोध से पता चला है कि उपग्रह के चित्रों पर आधारित रिमोट मॉनिटरिंग कुछ मामलों में बड़े और खतरनाक हिमस्खलन का अनुमान लगाने की क्षमता रखते हैं। साथ ही इसकी मदद से झूलते ग्लेशियरों की निगरानी के लिए बड़े क्षेत्रों को प्रभावी ढंग से कवर कर सकती है। टीम अब वैश्विक स्तर पर अन्य हिमस्खलन की घटनाओं का अध्ययन करने के लिए मॉडल और वैज्ञानिकों के साथ काम कर रही है, क्योंकि वे अपने शोध को आगे बढ़ाना चाहते हैं।

डॉ सैम ने कहा कि इसी तरह की अन्य पिछली आपदाओं पर आधारित अधिक केन्द्रित शोध के साथ, हम ऐसे हिमस्खलन की विनाशकारी प्रकृति का बेहतर मूल्यांकन करने के लिए एक संभावित ढांचे के विकास को देख सकते हैं।

बेशक रिमोट सेंसिंग अवलोकनों से जुड़ी अनिश्चितताएं हैं और हिमस्खलन से पहले सतह विस्थापन में सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण रुझानों की पहचान करने के लिए और इस पर अधिक शोध की आवश्यकता है।

लेकिन यह एक नए निगरानी ढांचे को विकसित करने की संभावना को खोलता है जो हिमालय या दक्षिण अमेरिका में एंडीज जैसे क्षेत्रों में पर्वतीय समुदायों की रक्षा करने में बहुत अहम हो सकता है, जो पहले से ही जलवायु परिवर्तन के कारण महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।

डॉ. भारद्वाज ने आगे कहा ये उत्साहजनक परिणाम हैं जो इन बड़े पैमाने पर चट्टान/बर्फ के हिमस्खलन की विशेषताओं के बारे में हमारी समझ को बढ़ाते हैं, साथ ही साथ भविष्य में आपदाओं का कारण बनने की उनकी क्षमता भी बढ़ाते हैं।

उन्होंने कहा इस तरह के अवलोकन बहुत दुर्लभ हैं और इससे हमें यह समझने में मदद मिली है कि कैसे एक बड़ी हिमस्खलन की घटना उसी घाटी में दुबारा हो सकती है तथा इससे बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। यह अध्ययन डॉ. अंशुमान भारद्वाज और डॉ. लिडिया सैम ने किया है, जिसे रिमोट सेंसिंग जर्नल में प्रकाशित किया गया है।