जलवायु

इंसान से उसके जीवन के औसतन छह महीने छीन सकता है जलवायु परिवर्तन, रिसर्च में हुआ खुलासा

रिसर्च के मुताबिक तापमान में हर एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ जन्म के समय लोगों की जीवन प्रत्याशा करीब साढ़े पांच महीने कम हो जाएगी

Lalit Maurya

एक नए अध्ययन से पता चला है कि जलवायु में आता बदलाव हर व्यक्ति से उसके जीवन के औसतन छह महीने छीन सकता है। इस अध्ययन के मुताबिक यदि वार्षिक औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो उससे लोगों की जीवन प्रत्याशा 0.44 वर्ष यानी करीब साढ़े पांच महीने तक कम हो जाएगी।

इसके साथ ही शोध में यह भी कहा गया है कि जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है वो बारिश में आते बदलावों के साथ मिलकर जीवन प्रत्याशा को कहीं ज्यादा प्रभावित कर सकता है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल प्लोस क्लाइमेट में प्रकाशित हुए हैं। गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर बढ़ता तापमान पहले ही एक डिग्री सेल्सियस को पार कर गया है और इसको लेकर कयास लगाए जा रहे हैं कि यह बहुत जल्द डेढ़ डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर सकता है।

नेशनल ओसेनिक एंड एटमोस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) के नेशनल सेंटर फॉर एनवायर्नमेंटल इंफॉर्मेशन (एनसीईआई) ने हाल ही में इस बात की पुष्टि की है कि 2023 पिछले 174 वर्षों के जलवायु रिकॉर्ड का अब तक का सबसे गर्म वर्ष था। जब वैश्विक तापमान में होती वृद्धि 20वीं सदी के औसत तापमान से 1.18 डिग्री सेल्सियस ज्यादा दर्ज की गई है। 

यह नया अध्ययन बांग्लादेश की शाहजलाल यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी और द न्यू स्कूल फॉर सोशल रिसर्च, न्यूयार्क से जुड़े शोधकर्ता अमित रॉय द्वारा किया गया है। अपने इस अध्ययन में उन्होंने 191 देशों में 1940 से 2020 के बीच तापमान, वर्षा और जीवन प्रत्याशा से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया है।

जलवायु परिवर्तन लोगों के स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करेगा इसे समझने के लिए वैज्ञानिकों ने एक रूपरेखा तैयार की है, जिसमें इसके स्वास्थ्य पर पड़ते प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभावों को शामिल किया गया है। इनमें प्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाले प्रभावों में मौसम में आते बदलाव और चरम मौसमी घटनाएं जैसे लू, बाढ़, सूखा शामिल हैं, जबकि अप्रत्यक्ष रूप से जलवायु परिवर्तन के आर्थिक प्रणालियों और पारिस्थितिक तंत्रों पर पड़ते प्रभावों को शामिल किया गया है।

इस अध्ययन में तापमान और वर्षा के अलग-अलग प्रभावों का अध्ययन करने के अलावा, शोधकर्ता रॉय ने अपनी तरह का जलवायु परिवर्तन सूचकांक भी तैयार किया है, जो व्यापक रूप से जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को मापने के लिए इन दोनों कारकों को जोड़कर देखता है। रिसर्च के नतीजे दर्शाते हैं कि यदि इस सूचकांक में दस अंकों का इजाफा होता है तो उससे जन्म के समय जीवन प्रत्याशा छह महीने घट जाएगी।

पुरुषों से ज्यादा महिलाओं पर मंडरा रहा खतरा

वैश्विक स्तर पर देखें तो बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन का असर अलग-अलग रूपों में सामने आने लगा है। आज यह प्रभाव बढ़ते तापमान, बारिश में आते बदलावों और चरम मौसमी घटनों में होती वृद्धि तक ही सीमित नहीं है।

यह बदलाव हमारे भोजन, पानी, हवा और मौसम को भी प्रभावित कर रहा है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहा है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 2030 से 2050 के बीच जलवायु परिवर्तन सालाना करीब ढाई लाख मौतों की वजह बन सकता है। साथ ही इसकी वजह से प्रति वर्ष वैश्विक आय में 400 करोड़ डॉलर से ज्यादा का नुकसान होगा।

अध्ययन में वैश्विक तापमान के साथ-साथ बारिश में आते बदलावों से जुड़े खतरों पर भी प्रकाश डाला गया है। जहां भारी बारिश से बाढ़, बीमारियों और फसलों को होते के नुकसान के साथ मृदा अपरदन और कुपोषण का खतरा बढ़ जाएगा। वहीं बारिश में आती कमी से सूखा, सिंचाई और पीने के पानी की कमी के साथ कृषि पैदावार को असर पड़ेगा। नतीजन न केवल खाद्य कीमतों में इजाफा होगा साथ ही खाद्य असुरक्षा का खतरा बढ़ जाएगा। जो लोगों में पोषण और स्वास्थ्य पर असर डालेगा।

अध्ययन के मुताबिक दुनिया के कई बेहद कमजोर देश, जो कृषि से जुड़े रोजगार पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं। उन देशों में यह बदलाव रोजगार को नुकसान पहुंचाने के साथ किसानों की आय में कमी की वजह बन रहे हैं। इसके साथ ही यह उस क्षेत्र में स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रहे हैं।

शोध में यह भी सामने आया है कि जलवायु में आता यह बदलाव पुरुषों की तुलना में महिलाओं की जीवन प्रत्याशा को कहीं ज्यादा प्रभावित कर सकता है। अनुमान है कि यदि वार्षिक जलवायु परिवर्तन सूचकांक 10 अंक बढ़ता है, तो जहां पुरुषों की जीवन प्रत्याशा करीब पांच महीने घट जाएगी। वहीं इसकी वजह से महिलाओं की जीवन प्रत्याशा में 0.6 वर्ष या सात महीनों की कमी का अनुमान लगाया गया है।

ऐसे में अध्ययन में इन बदलावों के स्वास्थ्य पर पड़ते प्रभावों को सम्बोधित करने के लिए ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ जलवायु में आ रहे बदलावों के प्रति अनुकूलन की सिफारिश की है। इसके साथ ही शोध के मुताबिक आपदाओं के लिए तैयारी, सावजनिक स्वास्थ्य से जुड़े उपायों को अपनाकर और हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्टर को मजबूत करके इसके प्रभावों को सीमित किया जा सकता है।