जलवायु

कार्बन उत्सर्जन से अमेरिका ने 24 साल में भारत को 257 अरब डॉलर का नुकसान पहुंचाया

शीर्ष कार्बन उत्सर्जक, अमेरिका ने 1990 से 2014 तक अन्य देशों की जलवायु को लेकर 1.9 ट्रिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान पहुंचाया है।

Dayanidhi

वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक नए अध्ययन में इस बात की गणना की गई है कि बड़े उत्सर्जकों ने अन्य देशों पर कितना आर्थिक प्रभाव डाला है। अध्ययन में कहा गया है कि आंकड़ों का इस्तेमाल अदालतों में और अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ता में अमीर देशों से भुगतान के बारे में किया जा सकता है। ऐसे देश जो अधिक कोयला, तेल और गैस जलाते हैं जिसके उत्सर्जन से गरीब देश प्रभावित होते हैं।

आंकड़ों से पता चलता है कि समय के साथ शीर्ष कार्बन उत्सर्जक, अमेरिका ने 1990 से 2014 तक अन्य देशों की जलवायु को लेकर 1.9 ट्रिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान पहुंचाया है। जिसमें सबसे ज्यादा ब्राजील को 310 अरब डॉलर तथा भारत को 257 अरब डॉलर का नुकसान हुआ।

वहीं इंडोनेशिया को 124 अरब डॉलर, वेनेजुएला को 104 अरब डॉलर और नाइजीरिया को 74 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। लेकिन साथ ही अमेरिका के अपने कार्बन प्रदूषण ने उसे 183 अरब डॉलर से अधिक का लाभ पहुंचाया।

डार्टमाउथ कॉलेज के जलवायु वैज्ञानिक और सह-अध्ययनकर्ता जस्टिन मैनकिन ने कहा कि हो सकता है सभी देश पुनर्स्थापन के लिए अमेरिका की ओर देख रहे हों। अमेरिका ने अपने उत्सर्जन से भारी मात्रा में आर्थिक नुकसान किया है और यह कुछ ऐसा है जिसके हमारे पास आंकड़े है।

प्रमुख अध्ययनकर्ता क्रिस्टोफर कैलाहन ने कहा कि विकासशील देशों ने अमीर देशों को भविष्य के लिए कार्बन उत्सर्जन को कम करने में आर्थिक रूप से मदद करने का वादा करने के लिए आश्वस्त किया है। लेकिन वैश्विक जलवायु वार्ता में क्षतिपूर्ति के बारे में कोई बात नहीं होती है। उन वार्ताओं में अमेरिका और चीन जैसे सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक पर्दे के पीछे से मना कर रहे होते हैं। कैलाहन डार्टमाउथ में जलवायु प्रभाव शोधकर्ता हैं। 

वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि नुकसान की भरपाई करने तथा अपने दायित्वों से बचने के लिए अधिक उत्सर्जन करने वाले अपनी भूमिका सही से नहीं निभा रहे हैं। तेजी से हो रहा भारी नुकसान विकासशील देशों को पंगु बना रहा है।

कैलहन ने बताया कि कार्बन उत्सर्जन को राष्ट्रीय स्तर पर दशकों से ट्रैक किया जा रहा है और नुकसान की गणना की गई है। उत्सर्जन करने वाले देशों के सभी बिंदुओं को इससे प्रभावित देशों से जोड़ने वाला यह पहला अध्ययन है। अध्ययन में फायदे भी शामिल हैं, जो मुख्य रूप से कनाडा और रूस जैसे उत्तरी देशों और अमेरिका और जर्मनी जैसे समृद्ध देशों में देखे जा सकते हैं।

कैलाहन ने कहा इनमें वे देश भी शामिल हैं जिन्होंने सबसे कम उत्सर्जन किया है और वे भी हैं जो ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि से नुकसान पहुंचाते हैं। इसलिए यह दोहरी असमानता एक मुख्य खोज है जिस पर हम जोर देना चाहते हैं।

अध्ययन में पहले कैलाहन ने पता लगाया कि प्रत्येक देश कितना कार्बन उत्सर्जित करता है और वैश्विक तापमान के लिए इसका क्या अर्थ है। बड़े जलवायु मॉडल का उपयोग करके और उस देश के कार्बन उत्सर्जन के साथ दुनिया का सिमुलेशन किया गया।

साथ ही चरम मौसम की घटनाओं के लिए उपयोग की जाने वाली वैज्ञानिक रूप से स्वीकृत एट्रिब्यूशन तकनीक का भी उपयोग किया गया। इसके बाद उन्होंने उस आर्थिक अध्ययन को जोड़ा जो प्रत्येक देश में तापमान वृद्धि और क्षति के बीच के संबंधों को दर्शाता है।

अमेरिका के बाद जिन देशों ने 1990 के बाद से सबसे अधिक नुकसान किया है अध्ययनकर्ताओं के अनुमान के मुताबिक उनमें चीन ने 1.8 ट्रिलियन डॉलर, रूस 986 अरब डॉलर, भारत 809 अरब डॉलर और ब्राजील 528 अरब डॉलर शामिल है। केवल संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन ने मिलकर दुनिया की एक तिहाई जलवायु को नुकसान पहुंचाया है।

कैलाहन ने कहा कि जिन पांच देशों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ, उनमें  ब्राजील, भारत, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और इंडोनेशिया शामिल है, लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके पास सबसे गर्म इलाकों में रहने वाले गरीब लोगों की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं थीं।

लेकिन जिन देशों को जीडीपी के आधार पर सबसे बड़ी चोट पहुंची वे हैं यूएई, मॉरिटानिया, सऊदी अरब, ओमान और माली। ब्राजील और भारत भी उन देशों में से हैं जो सबसे अधिक उत्सर्जन और नुकसान करते हैं।

कुछ राष्ट्रों, स्थानीय समुदायों और जलवायु कार्यकर्ताओं ने सबसे बड़े ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जक से "जलवायु क्षतिपूर्ति" का भुगतान करने का आह्वान किया है। जिससे उनके आर्थिक लाभ के कारण उन देशों और समुदायों को नुकसान हुआ है जो पहले से ही उपनिवेशवाद और दासता जैसे उत्पीड़न से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। 

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक उत्सर्जन करने वाले देशों से नुकसान और इसके भुगतान के बारे में बहस हुई है, जो इस बात की चिंता करते हैं कि गरीब देश जलवायु वित्त का उपयोग नहीं करने जा रहे हैं।

मैनकिन ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि यह अध्ययन शक्तिहीन और वैश्विक जलवायु परिवर्तन के सामने उन्हें सशक्त बनाने में मदद करेगा।

अध्ययन को पढ़ने वाले जलवायु समुदाय के अन्य लोगों ने कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए जानकारी से अधिक यह आवश्यकता है कि जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित लोगों को उनके नुकसान की भरपाई की जाए।

अध्ययन में जानकारी और आंकड़े मूल्यवान हैं, उन्होंने कहा लेकिन यह उन लोगों पर दबाव डालेगा जो जलवायु नीति को आकार देने के लिए जिम्मेदार हैं। वास्तव में अमीर देशों को उस नुकसान के लिए भुगतान करना चाहिए जो उन्होंने गरीब देशों को पहुंचाया है। यह अध्ययन क्लाइमेट चेंज नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।